बात 1917-18 की है, जब जमशेदजी टाटा ने ओके कोकोनट ऑयल मिल्स खरीदी थी, ओके मिल्स ने न केवल नारियल तेल का निर्माण किया, बल्कि नहाने और कपड़े धोने का साबुन भी बनाया. बाद में इसका नाम बदलकर टाटा ऑयल मिल्स लिमिटेड कंपनी (टॉमको) कर दिया गया. देखा जाए तो जमशेदजी टाटा देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने साबुन की दुनिया में अपना पहला कदम रखा. ये साबुन बड़े साइज और खुशबूदार महक के लिए काफी प्रसिद्ध था. इस साबुन के विज्ञापन भी जमकर हुए. बच्चा हो या बूढ़ा, सबकी जबान पर इस साबुन का नाम चढ़ा रहता था. ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी लोकप्रियता के बावजूद भी ये साबुन आखिर भारतीय बाजारों से खो क्यों गया?
टाटा का ये ब्रांड सफल क्यों नहीं हो पाया?
'देखा जाए तो टाटा ने इस देश को अपना पहला स्वदेशी साबुन दिया था. इस साबुन का नाम OK था. तमाम विज्ञापन और लोकप्रियता के बावजूद ये साबुन भारतीय बाजारों में खो गया है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर ये टाटा के अन्य ब्रांड्स की तरह सफल क्यों नहीं हो पाया?
- साल 1930 में टाटा ने देश को पहला स्वदेशी साबुन दिया.
- जमशेद जी टाटा ने साल 1918 में कोच्चि में Tata Oil Mills की फैक्ट्री शुरू की थी.
- इसी फैक्ट्री में साल 1930 में टाटा ने देश का पहला साबुन बनाया
- साबुन का नाम था ‘OK'.
क्या खासियत थी?
TATA कंपनी ने जब इस साबुन का निर्माण किया तो इसमें कई चीजों को एड किया गया. जैसे साबुन के साइज को बड़ा रखा गया. इस साबुन में खास तरह की खुशबू एड की गई थी. ओके टॉमको (TOMCO) का नया ब्रांड था जिसे लाइफबॉय के साथ टक्कर देने के लिए बनाया गया था. इस साबुन के विज्ञापन पर बहुत पैसे खर्च किए गए. मुनाफे को बेहद कम रखा गया. इसकी क्वालिटी पर बहुत ही ज्यादा ध्यान दिया गया.
क्यों फेल हुआ?
दरअसल, उस समय मार्केट में पहले से कई ब्रांड मौजूद थे. ऐसे में OK को लोगों तक पहुंचाने के लिए टाटा ने विज्ञापन पर जोर दिया. टाटा ने ज़बरदस्त मार्केटिंग प्लानिंग करते हुए अखबार, रेडियो में साबुन कैा विज्ञापन दिया. ओके साबुन साइज में काफी बड़ा था, इसलिए इसके नाम के साथ टैगलाइन जुड़ा था-"नहाने का सबसे बड़ा साबुन".
आज भी लोगों को याद है कैंपेन
भारत में इस तरह के विज्ञापन आज भी ट्रकों में देखा जा सकता है. लगभग हर चौथे या पांचवें ट्रक में आपको ओके का विज्ञापन देखने को मिल जाएगा.
टाटा ने अपने ट्रकों के पूरे बेड़े में 'ओके सोप' के लिए मुफ्त विज्ञापन दिखाई थी. टाटा ऑयल मिल्स कंपनी ने बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने की कोशिश में अपने सभी विपणन संसाधन अपने साबुन ब्रांड को बढ़ावा देने में लगा दिए हैं. टाटा की ओके सोप की रिलीज कंपनी के ट्रक व्यवसाय पर लगभग पूर्ण प्रभुत्व के साथ हुई. मार्केटिंग से जुड़े किसी व्यक्ति ने सोचा कि इन ट्रकों के पीछे ओके साबुन का विज्ञापन करना एक अच्छा विचार होगा. हालांकि, ओके साबुन अब भले ही बंद है, मगर ये आज भी प्रासंगिक है.
OK का इतिहास
ओके टॉमको का नया ब्रांड था जिसे लीवर ब्रदर्स/यूनिलीवर लाइफबॉय - सबसे लोकप्रिय ब्रांड के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए डिज़ाइन किया गया था. इसे सबसे पहले एक वैल्यू ब्रांड के रूप में प्रचारित किया गया. ओके साबुन के लिए खुद को कम लागत वाले, दैनिक समाधान के रूप में पेश करके लाइफबॉय के साथ प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करना एक दिलचस्प मार्केटिंग दृष्टिकोण था.
कैसे फेल हुआ OK?
ओके को जब टाटा ने खरीदा तो इसका सीधा मकसद था कि मार्केट में मौजूद अन्य साबुन कंपनियों को खत्म कर एक ब्रांड बनाना. टाटा ने मार्केटिंग के जरिए काफी हद तक सफलता भी पा ली. आम लोगों में ब्रांड अवरनेयस (उत्पाद जागरुकता) खूब किया. लोग धीरे-धीरे ओके को जानने भी लगे, मगर टाटा की कैंपेनिंग के साथ एक चूक हो गई. आम लोगों को लगने लगा कि ये गरीब लोगों के लिए है, इसलिए मध्यम वर्ग और अमीर लोग इसे खरीद नहीं रहे थे.
- कंपनी ने साबुन की कीमत को कम किया
- कंपनी ने ब्रांड अवेयरनेस बढ़ाई
- कंपनी ने साबुन को अन्य कंपनियों के साबुन से बड़ा रखा
- आम लोगों का ये साबुन कह कर प्रचार भी किया
- लोगों ने इसे गरीबों का साबुन समझ कर खरीदना ही बंद कर दिया
विज्ञापन की खासियत
OK साबुन के विज्ञापनों ने आश्चर्यजनक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया. ओके साबुन अपने कस्टमर को कमल के फूल की तरह खिला देगा, जैसा स्लोगन दिया. कंपनी ने आकार पर और अधिक बल दिया गया. विज्ञापन की हेडलाइन में कंपनी ने लिखा था, "OK नहाने का बड़ा साबुन," जबकि Model ने सीधे कैमरे की ओर देखते हुए कहा, "सचमुच काफी बड़ा है."
यह एक सरल विज्ञापन था जो लागत-प्रभावशीलता पर प्रकाश डालता था. ओके साबुन के एक अन्य विज्ञापन का शीर्षक था "सुबह-सुबह कमल खिले." विज्ञापन का पंचलाइन था, जो इसे इस्तेमाल करेगा, कमल की तरह खिल उठेगा.