Somvar vrat katha 2025 : सावन का सोमवार इस साल 11 जुलाई से शुरू होने जा रहा है. पहला सावन सोमवार व्रत 14 जुलाई को रखा जाएगा. अगर आप भी इस साल पहली बार सोमवार का व्रत रखने वाली हैं, तो इसका सही नियम क्या है और इसकी व्रत कथा है, आइए जानते हैं एस्ट्रोलॉजर डॉ. अरविंद मिश्र से.
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कैसे करें सावन सोमवार का व्रत - How to observe the fast of Sawan Monday
पंडित अरविंद मिश्र के अनुसार, सोमवार का व्रत चैत्र, वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक किसी भी मास से प्रारंभ किया जा सकता है, लेकिन श्रावण मास में सोमवार व्रत शुरू करने का अधिक महत्व है. इस व्रत को करने से स्त्रियों को पति-पुत्र सुख प्राप्त होता है.
सोमवार पूजा विधि विधान - सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे पहर तक होता है. व्रत में फलाहार या परायण का कोई खास नियम नहीं है. लेकिन ये जरूरी है कि दिन रात में केवल एक समय भोजन करें. सोमवार के व्रत में शिवजी व पार्वती का पूजन करना चाहिए.
सोमवार के व्रत तीन प्रकार के हैं-
साधारण सोमवार, सोम प्रदोष और सोलह सोमवार. आपको बता दें कि शिव पूजन के बाद कथा जरूर सुननी चाहिए. प्रदोष व्रत, सोलह सोमवार, तथा सोमवार तीनों की कथा अलग-अलग है, फिलहाल हम यहां पर आपको श्रावण सोमवार की व्रत कथा के बारे में बताने जा रह हैं...
श्रावण सोमवार व्रत कथा
एक बहुत धनवान साहूकार था, जिसके घर धन आदि किसी प्रकार की कमी नहीं थी. लेकिन उसको एक दुःख था कि उसके कोई संतान नहीं थी. वह इसी चिन्ता में रात-दिन रहता था. वह पुत्र की कामना के लिए प्रति सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था और सायंकाल को शिव मंदिर में जाकर शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था. उसके इस भक्ति-भाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा, "महाराज ! यह साहूकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है. इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए."
शिवजी ने कहा, "हे पार्वती ! यह संसार कर्म क्षेत्र है. जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है. उसी तरह इस संसार में प्राणी जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं." पार्वती जी ने अत्यंत आग्नह से कहा- "महाराज ! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को दूर करते हैं. यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यों करेंगे ?"
पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे- "हे पार्वती ! इसके कोई पुत्र नहीं है इसलिए यह दुःखी रहता है. इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूं. लेकिन यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक जीवित रहेगा. इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा. इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नहीं कर सकता."यह सब बातें साहूकार सुन रहा था. इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ. वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा. कुछ समय व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई. साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई. लेकिन साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जान कोई अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी क भेद ही बताया. जब वह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा. अपने पुत्र को काशीजी पढ़ने के लिए भेजूंगा. फिर साहूकार ने बालक के मामा को बुलाकर उसको बहुत-सा धन देकर कहा- तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजना कराते और दक्षिणा देते हुए जाना."
वह दोनों मामा-भांजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते जा रहे थे. रास्ते में एक शहर पड़ा. उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था परन्तु जो राजकुमार विवाह कराने के लिये आया था वह एक आंख से काना था. उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें.
इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो उसने मन में विचार किया कि क्यों न द्वार चार के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये. ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और उसके मामा से बात की तो वे राजी हो गये. फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहनाकर घोड़ी पर चढ़ाकर दरवाजे पर ले गये और सभी कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गए. फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाये तो क्या बुराई है ? ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी. मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होंने स्वीकार कर लिया. विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया. परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया "तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंंख से काना है. मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूं."लड़के के जाने के पश्चात् राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने काने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है. मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है. जिसके साथ मेरा विवाह हुआ है, वह तो काशी जी पढ़ने गया है. राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी. उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गए. वहां जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया. जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था. लड़के ने अपने मामा से कहा- "मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है." मामा ने कहा- "अन्दर जाकर सो जाओ."लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए. जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मृत पड़ा है, तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना-पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा. अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया. संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे. जब उन्होंने जोर-जोर से रोने की आवाज सुनी तो पार्वती जी कहने लगीं- "महाराज ! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए." जब शिव-पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मृत पड़ा था. पार्वती जी कहने लगीं- "महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था. शिवजी कहने लगे- "हे पार्वती ! इसकी आयु इतनी थी सो यह भोग चुका." तब पार्वती जी ने कहा- "हे महाराज ! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प-तड़प कर मर जायेंगे." पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया. शिव-पार्वती कैलाश चले गए.
शिक्षा पूर्ण होने पर वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते तथा दक्षिणा देते अपने घर की ओर चल पड़े. रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था. वहां पर आकर उन्होंने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की. साथ ही बहुत दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया. जब वे अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा मैं पहले घर जाकर खबर कर आता हूं. जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत पर बैठे थे और उन्होंने यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण दे देंगे. इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्वास नहीं आया. उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी पत्नी के साथ बहुत सारा धन लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और सब बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे. इसलिए कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता और सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा इस लोक में सुख भोगकर अन्त में सदाशिव के लोक को प्राप्त होता है.