Ramleela: रामलीला को लेकर बढ़ता जा रहा है विवाद? संतों ने कहा ये नाटक नहीं चलेगा

Ramleela: सनातन परंपरा में रामलीला मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन प्रसंग को लोगों के सामने प्रस्तुत करने का सदियों से बड़ा माध्यम रही है. बीते कुछ दशकों में देश-काल परिस्थिति और तकनीक के चलते इसमें कई तरह के बदलाव आए हैं, जिसमें फिल्मी कलाकारों द्वारा इसका मंचन करना भी शामिल है, लेकिन अचानक से ग्लैमर से जुड़ी पर्सनालिटी और फिल्मी हस्तियों का विरोध ​क्यों शुरू हो गया है, जानने के लिए पढ़ें ये लेख. 

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Poonam Pandey Ramleela Controversy: सनातन परंपरा में भगवान राम के गुणों को एक पवित्र मंच से प्रस्तुति देने का नाम रामलीला है. जिसमें न सिर्फ रामायण से जुड़े चरित्र का निभाने वालों की बल्कि उसे देखने-सुनने की भी की एक मर्यादा रही है. जिस रामलीला को देखने और सुनने मात्र से पापों से मुक्ति और पुण्य की प्राप्ति की मान्यता रही है, उसमें बीते कुछ समय से बड़े बदलाव देखने को आए हैं. इन दिनों रामलीला में फिल्मी कलाकार और ग्लैमर जगत से जुड़ी पूनम पांडेय द्वारा मंदोदरी का किरदार निभाए जाने को लेकर काफी हंगामा मचा हुआ है. रामलीला से फिल्मी कलाकारों को हटाए जाने की जो मांग राम की नगरी अयोध्या से महंत संजय दास ने की थी, उसका असर दिल्ली में भी देखने को मिल रहा है.

रामलीला के पात्र से मैच नहीं करते हैं फिल्मी कलाकार

हनुमानगढ़ी के महंत ओर संकट मोचन सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी संजयदास महाराज के अनुसार रामलला की नगरी अयोध्या में हर समय संतों के सान्निध्य में रहने वाले और लीला के जानकार लोग ही रामलीला करते रहे हैं. ऐसे लोग हमेशा अपने चरित्र को पवित्रता और परंपरा के साथ निभाया करते थे. उन्हें रामायण की तमाम चौपाईयां याद रहती हैं. वहीं फिल्मी तमाम फिल्मी कलाकारों की तमाम आपत्तिजनक चीजें समय-समय पर सामने आती रहती हैं. ऐसे लोग रामायण के आदर्श चरित्र को कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं. 

फिल्मी कलाकारों से न करवाए रामलीला 

स्वामी संजयदास के अनुसार परंपरागत लीला करने वाले लोगों में और फिल्मी कलाकारों के रहन-सहन और जीवनशैली में बड़ा अंतर होता है, जो अक्सर मीडिया के जरिये हमें देखने को भी मिलता रहता है. फिल्म से जुड़े कलाकार का चरित्र रामलीला के पात्रों से तालमेल नहीं खाता है. ऐसे में उन्हें रंगमंच और फिल्म का ही कार्य करना चाहिए. उनके अनुसार संस्कृति विभाग को भी अगले साल अयोध्या में होने वाली रामलीला में फिल्मी कलाकारों को न बुलाकर संतों के सान्निध्य में रहने वाली रामलीला मंडली का चुनाव करना चाहिए. स्वामी संजय दास जी का मानना है कि यदि अयोध्या के गणमान्य संत एक साथ मिलकर इस बात को उठाएंगे तो सरकार जरूर इस बात पर ध्यान देगी. 

लीला मनोरंजन का साधन नहीं एक साधना है 

वृंदावन के अखंड दयाधाम आश्रम के परमाध्यक्ष और महानिर्वाणी अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी भास्करानंद महाराज के अनुसार ब्रजमंडल में होने वाली लीलाओं में आज भी पूरी परंपराओं का पालन होता है. उनके मुताबिक रामलीला हो या फिर रासलीला, ये कोई अभिनय या मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना है. यही कारण है कि रामलीला को करते समय न सिर्फ पात्र, बल्कि देखने वाले लोग भी चप्पल-जूते उतार देते हैं. रामलीला की मर्यादा, परंपरा और नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति ही इसका सदा पात्र बनता रहा है.

लीला में श्रृंगार होता है मेकअप नहीं

स्वामी भास्करानंद महाराज ​कहते हैं कि वृंदावन में कई ऐसे कलाकार हैं जो रासलीला और रामलीला दोनों को उत्तम ढंग से प्रस्तुत करते हैं. उनके मुताबिक बीते कुछ सालों में रामलीला की तरफ लोगों को आकर्षित करने के लिए तमाम तरह के ग्लैमर और फिल्मी पात्रों को शामिल किया जाने लगा है, जिस पर इन संस्थाओं को दोबारा से विचार करने की आवश्यकता है. उन्हें समझना होगा कि रामलीला हो फिर रासलीला उसमें पात्रों के संपूर्ण श्रृंगार और पूजन की परंपरा है न कि मेकअप के जरिए उनके चेहरे को सिर्फ संवारने की. लीला का पात्र ईश्वर के अवतार का अनुकरण करने की कोशिश करता है, वह सिर्फ उसका नाटक नहीं करता है, इसलिए यह नाटक नहीं चलेगा, बल्कि लीला को परंपरागत तरीके से ही प्रस्तुत करना ही उचित रहेगा.

रामलीला में स्वस्थ परंपराओं का पालन होना चाहिए

देश की राजधानी दिल्ली के लाल किला पर होने वाली नवश्री धार्मिक लीला कमेटी के शोभा यात्रा मंत्री सुरेंद्र मोहन गुप्ता ​का भी कहना है कि सभी रामलीला कमेटियों को स्वस्थ परंपरा का समर्थन करना चाहिए और विवादित लोगों से उचित दूरी बनाए रखना चाहिए. रामलीला में फिल्मी कलाकारों को लेकर उठे विवाद के बारे में उनका कहना है कि जिस समय से लवकुश रामलीला कमेटी की स्थापना हुई है, उसी समय से इसमें फिल्मी कलाकारों से अभिनय करवाया जाता रहा है. चूंकि इस बार पूनम पांडेय की चर्चा हो रही है, इसलिए उसका ज्यादा विरोध हो रहा है. सुरेंद्र मोहन के अनुसार यह सिर्फ और सिर्फ सस्ती लोकप्रियता और प्रचार पाने का माध्यम है, ताकि लोग आकर्षित होकर उनकी रामलीला को देखने के लिए पहुंचे. उनके मुताबिक यह रामायण से जुड़ी परंपरा नहीं है. 

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कभी स्थानीय मुस्लिम भी किया करते थे रामलीला 

रामलीला को बीते छह-सात दशक से देखते चले आ रहे सुरेंद्र मोहन के अनुसार समय के अनुसार रामलीला के प्रस्तुतिकरण और तकनीक में बदलाव आता रहा है. उनके अनुसार 50-60 के दशक में सभी वर्गों और धर्मों के लोग इसमें भाग लिया करते थे और इसे देखने पहुंचा करते थे. तब मुस्लिम कलाकार भी होते थे, लेकिन अब इसमें ​सिर्फ कुछ मुस्लिम कारीगर ही काम करते हैं. वर्तमान में रामलीला में युवा कलाकारों की अधिकता है. नवश्री धार्मिक रामलीला कमेटी की स्थापना सन् 1958 में हुई थी, तब से लेकर आज तक यह निरंतर होती चली आ रही है.

(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. एनडीटीवी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)

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