इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक, मुसलमानों की सबसे पवित्र हज यात्रा इस साल शनिवार, 17 जुलाई से शुरू हो रही है. हालांकि, कोरोना महामारी के चलते केवल सऊदी अरब के स्थानीय लोगों को ही हज करने की इजाजत दी गई है. इस बार 60,000 लोग ही हज कर सकेंगे, और सऊदी अरब के भी वही लोग शामिल होंगे, जिन्हें कोरोना वैक्सीन लग चुकी है.
यह लगातार दूसरा साल है, जब भारत समेत अन्य देशों के मुसलमानों को हज यात्रा करने की अनुमति नहीं दी गई है. पिछले साल मार्च में जब कोरोना ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेना शुरू किया, तो उसका असर हज पर भी पड़ा. मस्जिदें तक बंद करनी पड़ीं और इसी कड़ी में हज यात्रा पर भी रोक लगा दी गई थी.
हज के लिए सऊदी के मक्का शहर जाना पड़ता है. वहां हज यात्री कई दिन तक रहते हैं और अलग-अलग धार्मिक परंपराओं को निभाते हैं.
हज में पहने जाते हैं सफेद कपड़े
* हज करने वाले सभी लोगों को सबसे पाक जगह एहराम में जाना होता है. इसके लिए खास लिबास और व्यवहार का पालन करना जरूरी होता है.
* हज में पुरुष सफेद रंग का लिबास पहनते हैं.
* महिलाएं ऐसे कपड़े पहनती हैं, जिनमें उनके मुंह को छोड़कर पूरा शरीर ढक जाए.
* हज यात्रा के दौरान यात्रियों को झगड़ने या बहस करने की इजाज़त नहीं होती.
* इसके अलावा यात्रियों को परफ्यूम लगाने, नाखून काटने या बाल और दाढ़ी काटने की भी मनाही होती है.
हज की प्रक्रिया
* हज करने वाले लोगों को सबसे पहले काबा शरीफ के चारों ओर सात बार घूमना होता है.
* काबा ग्रेनाइट से बना है और उसे काले रंग के कपड़े से ढका गया है. काबा 15 मीटर (50 फीट) लंबा है.
* दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद लोग काबे की तरफ रुख करके ही नमाज़ अदा करते हैं.
* कहा जाता है कि काबा शरीफ के स्ट्रक्चर को सबसे पहले हजरत आदम ने बनवाया था और फिर 4,000 साल पहले हज़रत इब्राहीम ने इसका पुनर्निर्माण किया था.
* इसके बाद लोग मस्जिद में पत्थर के दो स्थानों के बीच सात चक्कर लगाते हैं.
* फिर वे लगभग पांच किलोमीटर (तीन मील) दूर मीना की ओर बढ़ते हैं.
आराफात की पहाड़ी
* इसके बाद सबसे आखिर में आराफात की पहाड़ियों पर जाते हैं. यह जगह मीना से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर है. माना जाता है कि पैगंबर मोहम्मद ने अपना अंतिम उपदेश यहीं दिया था. यहां करीब 70 मीटर (230 फुट) ऊंची पहाड़ी और उसके आसपास के मैदान में हज यात्री जमा होते हैं और वहां नमाज़ व कुरान पढ़ते हैं. शाम तक सभी लोग वहीं रहते हैं.
सूरज छिपने के बाद हज यात्री अराफात और मीना के बीच मौजूद मुजदलीफा नाम की जगह पर जमा होते हैं. यहां 'शैतान को पत्थर' मारने की परंपरा निभाई जाती है.
'शैतान को पत्थर' क्यों मारा जाता है...?
शैतान को पत्थर मारना हज की आखिरी सबसे बड़ी परंपरा है. इसमें हज यात्री कंक्रीट की तीन बड़ी दीवारों (जो शैतान की प्रतीक मानी जाती हैं) की तरफ पत्थर मारते हैं.
दरअसल, इस परंपरा का जुड़ाव बकरीद पर होने वाली कुर्बानी के इतिहास से है. जब खुदा का हुक्म मानते हुए हजरत इब्राहीम ने अपने बेटे हजरत इस्माइल को कुर्बान करने का फैसला कर लिया था, तो शैतान ने उन्हें बरगलाने की कोशिश की थी, ताकि वह खुदा का हुक्म न मान सकें, इसीलिए आज भी हज के मौके पर शैतान को पत्थर मारने की परंपरा है.
शैतान को पहला पत्थर मारने के बाद बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी दी जाती है. यहीं हज पूरा हो जाता है. इसके बाद पुरुष यात्री अपने बाल-दाढ़ी बनवाते हैं, जबकि महिलाएं नाखून काट पाती हैं. हज यात्री अब अपने सामान्य लिबास में आ जाते हैं और वापस मक्का आ जाते हैं. घर वापसी से पहले हज यात्री बचे पत्थर फेंकने की परंपरा को पूरा करके आते हैं.