Guruvayur Ekadashi 2025: किस देवता के लिए रखा जाता है गुरुवायुर एकादशी का व्रत, जानें कथा और धार्मिक महत्व

Guruvayur Ekadashi 2025: उत्तर भारत में जिस अगहन एकादशी वाले दिन मोक्षदा एकादशी का व्रत रखा जाता है, उसी दिन आखिर यह पर्व दक्षिण भारत में गुरुवायुर एकादशी (Guruvayur Ekadashi) के रूप में क्यों मनाया जाता है? इस दिन किस देवता की होती है पूजा और क्या है उसका धार्मिक महत्व, जानने के लिए पढ़ें ये लेख. 

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Guruvayur Ekadashi 2025: गुरुवायुर एकादशी की पूजा विधि, कथा और धार्मिक महत्व
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Guruvayur Ekadashi 2025 Vrat Vidhi And Significance: दक्षिण भारत के पंचांग के अनुसार वृश्चिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि पर गुरुवायुर एकादशी का व्रत रखा जाता है. यह व्रत भगवान श्री कृष्ण को समर्पित् होता है और इस दिन केरल के त्रिशूर जिले में स्थित प्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्ण मन्दिर में भक्तगण बड़ी धूमधाम से पूजा अर्चना करते हैं. इस मंदिर के प्रधान देवता भगवान गुरुवायुरप्पन हैं, जिन्हें बाल स्वरूप में पूजा जाता है. कान्हा के इस मंदिर का श्री कृष्ण की द्वारका नगरी से बड़ा कनेक्शन है. आइए गुरुवायुर एकादशी और भगवान गुरुवायुरप्पन की पूजा का धार्मिक महत्व विस्तार से जानते हैं. 

गुरुवायुर एकादशी का शुभ मुहूर्त 

गुरुवायुर एकादशी का व्रत 01 दिसंबर 2025 को रखा जाएगा. पंचांग के अनुसार गुरुवायुर एकादशी तिथि 30 नवंबर 2025 की रात को 09:29 बजे प्रारंभ होकर अगले दिन 01 दिसंबर 2025 की शाम को 07:01 बजे तक रहेगी. गुरुवायुर एकादशी व्रत का पारण 02 दिसंबर 2025 को प्रात:काल 06:57 से 09:03 बजे के बीच होगा. 

गुरुवायुर एकादशी पर कैसे करें भगवान विष्णु की पूजा

गुरुवायुर एकादशी के दिन तन और मन से पवित्र होने के बाद सबसे पहले सूर्य नारायण को जल दें. इसके बाद अपने पूजा स्थान पर भगवान श्री विष्णु या फिर श्री कृष्ण के बाल स्वरूप गुरुवायुरप्पन भगवान की तस्वीर या मूर्ति स्थापित करें और उन्हें सबसे पहले पंचामृत से स्नान कराएं. इसके बाद पवित्र जल से दोबारा स्नान कराएं और फिर फल-फूल, धूप-दीप, भोग आदि अर्पित करें. पूजा के अंत में भगवान गुरुवायुरप्पन या फिर श्री हरि की आरती करना बिल्कुल न भूलें. गुरुवायुर एकादशी के दिन अन्न और विशेष रूप से चावल और नमक का सेवन नहीं करना चाहिए. आज के दिन भगवान श्रीकृष्ण को चंदन चढ़ाने और तुलसी पत्र का विशेष महत्व माना गया है. 

गुरूवायुर के कृष्ण मंदिर का धार्मिक महत्व 

गुरुवायुर कृष्ण मंदिर को दक्षिण भारत का द्वारका कहा जाता है क्योंकि इसका संबंध गुजरात में स्थित द्वारका नगरी से जुड़ा हुआ है. हिंदू मान्यता के अनुसार पौराणिक काल में राजा सुतपा और उनकी रानी ने पुत्र की कामना से ब्रह्मा जी का ​तप किया, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें एक मूर्ति देकर उसकी प्रतिदिन पूजा करने को कहा. इसके बाद उस मूर्ति की साधना और आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया वे कई जन्मों तक रानी के गर्भ से जन्म लें. मान्यता है कि इसके बाद राजा और रानी ने पहले कश्यप और अदिति और सके बाद वासुदेव और देवकी के रूप में जन्म लिया. जिनकी संतान के रूप में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया. 

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मान्यता है कि द्वापरयुग में भगवान कंस का वध करने के बाद ब्रह्मा जी की उस दिव्य मूर्ति को वासुदेव ने धौम्य ऋषि को दे दिया था, जिसे उन्होंने द्वारिका नगरी में स्थापित किया था. कहते हैं कि जब द्वारिका नगरी जलमग्न होने को आई तो श्रीकृष्ण ने देवगुरु बृहस्पति को उसे उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करने को कहा. मान्यता है जब तक देवगुरु वहां पहुंचे मूर्ति जलमग्न हो चुकी थी, तब उन्होंने वायु देवता की मदद से उसे बाहर निकालकर दक्षिण में गुरुवायुर स्थान पर प्रतिष्ठित किया. चूंकि यह मूर्ति गुरु और वायु देवता की मदद से स्थापित हुई इसीलिए इस स्थान का नाम गुरुवायुर पड़ा. तब से लेकर आज तक यहां पर भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप यानि गुरुवायुरप्पन भगवान की यहां पर पूजा होती चली आ रही है. 

(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. एनडीटीवी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)

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