बौद्धों के सबसे बड़े गुरु दलाई लामा ने ये साफ कर दिया है कि उनका उत्तराधिकारी होगा, लेकिन उसे उनकी मृत्यु के बाद ही चुना जाएगा. यही नहीं एक बार फिर ये साफ हो गया कि अगला दलाई लामा चीन से बाहर का होगा. दलाई लामा के इस ऐलान का धर्मशाला समेत दुनिया भर में उनके लाखों अनुयायी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. इस ऐलान का महत्व इसलिए और भी ज्यादा है क्योंकि 2011 में दलाई लामा ने कहा था कि वो नब्बे साल का होने पर तिब्बती लामाओं और तिब्बत के लोगों के साथ चर्चा कर ये फैसला करेंगे कि दलाई लामा नाम की संस्था बनी रहे या नहीं.
सोशल मीडिया पर किया था बडा ऐलान
6 जुलाई को दलाई लामा नब्बे साल के पूरे हो रहे हैं. दलाई लामा ने सोशल मीडिया X पर एक रिकॉर्डेड वीडियो मैसेज में बताया कि उनके उत्तराधिकारी का चुनाव तिब्बती बौद्ध परंपराओं के सभी प्रमुखों और शपथ से बंधे विश्वसनीय धार्मिक गुरुओं के साथ विचार विमर्श से होना चाहिए, जो दलाई लामा की परंपरा से करीबी रहे हैं. पुरानी परंपराओं के मुताबिक ही नए दलाई लामा की खोज और पहचान होनी चाहिए. किसी और को इसमें दखल देने का अधिकार नहीं है.
उत्तराधिकारी के चुनाव में नहीं होगी बीजिंग की भूमिका
दलाई लामा के इस बयान से साफ है कि उनके उत्तराधिकारी के चुनाव में बीजिंग की भूमिका नहीं होगी. दलाई लामा के इस बयान में Gaden Phodrang Trust की भूमिका को स्पष्ट किया गया है, जिसे दलाई लामा ने अपने उत्तराधिकारी की खोज की जिम्मेदारी की देखरेख का जिम्मा दिया है. इस ट्रस्ट के अधिकारियों ने ये भी स्पष्ट किया है कि अगला दलाई लामा स्त्री या पुरुष कोई भी हो सकता है.
दलाई लामा के इस ऐलान पर आई चीन की प्रतिक्रिया
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि, दलाई लामा का उत्तराधिकारी, पणछेन लामा और बाकी बौद्ध गुरुओं को स्वर्ण कलश से ड्रॉ के जरिए ही चुना जाना चाहिए और उस पर चीन सरकार की मुहर लगनी चाहिए. यानी दलाई लामा के उत्तराधिकारी को तभी माना जाएगा जब चीन की सरकार उस पर मुहर लगा देगी.
चीन के लिए दलाई लामा एक अलगाववादी
दरअसल चीन दलाई लामा को अलगाववादी मानता है और कहता रहा है कि वो तिब्बतियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते. चीन दलाई लामा को भारत में शरण दिए जाने का भी विरोधी रहा है और ये मुद्दा भारत और चीन के बीच तनाव की एक वजह रहा है.
चीन की फौज के दमन के बाद दलाई लामा आए भारत
भारत और चीन के बीच इस मुद्दे पर विवाद करीब 66 साल पहले शुरू हुआ, जब 1959 में चीन के खिलाफ तिब्बत में हुए विद्रोह और चीन की फौज के दमन के बाद दलाई लामा अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ भागकर भारत आ गए और तब से वो धर्मशाला में रह रहे हैं. 1959 में दलाई लामा का तिब्बत से निकलना तिब्बत के लिए एक बड़ी घटना थी. इस दौरान चीन की सेना के दमन के खिलाफ तिब्बतियों की बगावत में हजारों तिब्बती बौद्ध मारे गए. कई लोगों को गिरफ़्तार कर चीन की मुख्य भूमि ले जाया गया. अस्सी हज़ार से ज्यादा लोग तिब्बत से भागकर भारत आ गए. दलाई लामा ने धर्मशाला के मैकलियॉडगंज में तिब्बत की निर्वासित सरकार का गठन किया और तिब्बती बौद्धों के सबसे बड़े धार्मिक और राजनीतिक प्रमुख बन गए.
दलाई लामा का कैसा रहा बचपन?
दलाई लामा का जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के तक्तसर इलाके में एक किसान परिवार में हुआ था. उनका जन्म का नाम ल्हामा थोंडुप था. वो जब दो साल के ही थे तभी उन्हें तेरहवें दलाई लामा द्वारा छोड़ी गई निशानियों के आधार पर हुई खोज में उनका अवतार चुन लिया गया. चौदहवां दलाई लामा चुने जाने के बाद उन्होंने अपना नया नाम चुना जो था तेनजिन ग्यात्सो.
1950 में जब वो 15 साल के थे तो तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद दलाई लामा ने तिब्बत का राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. 1954 में माओत्से तुंग और अन्य चीनी नेताओं के साथ शांति वार्ता के लिए वो बीजिंग गए लेकिन बात नहीं बनी. 1959 में तिब्बत में विद्रोह नाकाम होने के बाद वो भागकर भारत आए और धर्मशाला में निर्वासित सरकार बनाई.
शांति और अहिंसा के लिए मिला नोबेल पुरस्कार
शांति और अहिंसा के विचारों को दुनिया भर में फैलाने के लिए 1989 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 2011 में उन्होंने अपनी राजनीतिक भूमिका निर्वासित सरकार के लिए छोड़ दी, और आध्यात्मिक नेतृत्व ही अपने पास रखा. 2024 में वो इलाज के लिए अमेरिका गए, उसके बाद से उत्तराधिकार पर नए सिरे से चर्चा उठी और 6 जुलाई को 90वें जन्मदिन से चार दिन पहले अपने उत्तराधिकार के मसले पर उन्होंने अहम फैसले का ऐलान किया.
तिब्बती बौद्ध मानते हैं कि दलाई लामा मृत्यु के बाद अवतार लेते हैं जिन्हें एक स्थापित प्रक्रिया के आधार पर चुना जाता है. परंपरा के तहत दलाई लामा अपनी मृत्यु से पहले अपने उत्तराधिकारी को चुनने के लिए कुछ अहम निशानियां छोड़ जाते हैं जिनके आधार पर उनके अवतार का चुनाव होता है. अधिकतर तिब्बती बौद्ध चाहे वो तिब्बत में रह रहे हों या फिर निर्वासन में, वो अपनी धार्मिक परंपराओं में चीन के दखल से नाराज रहे हैं.