Explainer: 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों में किसी को सज़ा क्यों नहीं? अपराधों में कनविक्शन रेट इतना कम क्यों है?

इतने बड़े मामले में आरोपियों का बरी हो जाना महाराष्ट्र एटीएस की जांच प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है और ये सिर्फ़ महाराष्ट्र के साथ ही नहीं है कि कनविक्शन रेट यानी अपराधियों को सज़ा दिलाने की दर कम हो. अधिकतर राज्यों में और केंद्र में भी जांच एजेंसियों का कनविक्शन रेट लगातार सवालों के घेरे में रहा है.

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  • मुंबई लोकल ट्रेन में हुए धमाकों में 189 लोगों की मौत हुई और 827 घायल हुए, लेकिन कोई आरोपी दोषी साबित नहीं हो सका
  • बॉम्बे हाईकोर्ट ने सबूतों की कमी के कारण सभी आरोपियों को बरी कर दिया और अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए
  • महाराष्ट्र में अपराधों के खिलाफ दोषसिद्धि दर लगातार गिर रही है, और वर्ष 2023 के पहले छह महीनों में यह कम होकर 41.36% रह गई
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नई दिल्ली:

आज से 19 साल पहले 11 जुलाई 2006 की वो शाम मुंबई कभी नहीं भूल सकती जब मुंबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल में एक के बाद एक सात भयानक धमाके हुए. इन धमाकों में 189 लोगों की जान गई, 827 लोग घायल हुए. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों से भी ज़्यादा लोग इन ट्रेन धमाकों में मारे गए लेकिन अफ़सोस एक भी आरोपी को ट्रेन धमाकों में दोषी साबित नहीं किया जा सका.

  • निचली अदालत ने इस मामले में सज़ा सुनाई थी.
  • 2015 में निचली अदालत ने 13 गिरफ़्तार आरोपियों में से 12 को दोषी ठहराया.
  • पांच को मौत की सज़ा हुई और बाकियों को आजीवन कारावास.
  • जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई उनमें से एक की कोविड के कारण जेल में मौत हो गई.
  • इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील का नतीजा ये हुआ कि बॉम्बे हाइकोर्ट ने पूरा फ़ैसला ही पलट दिया.
  • पुख़्ता सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया.
  • बॉम्बे हाइकोर्ट की दो जजों की बेंच ने फ़ैसला सुनाते हुए अभियोजन पक्ष की पैरवी और मामले में जुटाए गए सबूतों पर गंभीर सवाल खड़े किए और कहा कि ये झूठा अहसास तैयार किया गया कि केस को हल कर लिया गया है.
  • अभियोजन पक्ष आरोपियों की पहचान करने वाले गवाहों की विश्वसनीयता साबित करने में नाकाम रहा है.
  • आरोपियों के कबूलनामे से जुड़े बयान भी सच्चे नहीं पाए गए.
  • हाइकोर्ट ने बचाव पक्ष की ये दलील मानी कि यातना देकर आरोपियों से कबूलनामे लिए गए.
  • जिस गवाह ने बताया कि उसने आरोपियों को बम बनाते देखा, उसने बाद में अपना बयान बदल दिया.
  • हाइकोर्ट ने आरोपियों की पहचान परेड को भी खारिज कर दिया क्योंकि जिस अफ़सर के सामने ये पहचान परेड कराई गई, उसके पास इसका अधिकार नहीं था.
  • कुल मिलाकर इस पूरे मामले की जांच में इतनी खामियां थीं कि हाइकोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया.

इतने बड़े मामले में आरोपियों का बरी हो जाना महाराष्ट्र एटीएस की जांच प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है और ये सिर्फ़ महाराष्ट्र के साथ ही नहीं है कि कनविक्शन रेट यानी अपराधियों को सज़ा दिलाने की दर कम हो. अधिकतर राज्यों में और केंद्र में भी जांच एजेंसियों का कनविक्शन रेट लगातार सवालों के घेरे में रहा है.

अगर पहले महाराष्ट्र की ही बात करें तो वहां अपराधों के ख़िलाफ़ कनविक्शन रेट यानी दोषसिद्धि दर लगातार गिरता गया है.

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  • 2020 - 58.29%
  • 2021 - 54.36%
  • 2022 - 46.36%
  • 2023 के पहले छह महीने - 41.36%

राज्य सरकार ने इसे गंभीरता से लेते हुए राज्य के डीजीपी से रिपोर्ट मांगी थी ताकि इसके आधार पर गृह मंत्रालय नियमों में ज़रूरी फेरबदल कर सके और पब्लिक प्रोसिक्यूटर्स की जवाबदेही तय कर सके. वो जवाबदेही कितनी तय हुई होगी पता नहीं लेकिन मुंबई लोकल पर हमलों के मामले में फ़ैसला अपने आप में एक गंभीर टिप्पणी है. वैसे तमाम जांच एजेंसियों के कनविक्शन रेट पर सवाल उठते रहे हैं लेकिन ये मामला दरअसल एक या दो जांच एजेंसियों का नहीं है बल्कि न्याय की पूरी व्यवस्था का ही है.

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NCRB 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि

  • देश भर के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हत्या के मामलों में कनविक्शन रेट 43.8% रहा.
  • बलात्कार के मामलों में कनविक्शन रेट 27.4% रहा.
  • अपहरण के मामलों में कनविक्शन रेट 33.9% था.
  • शारीरिक चोट पहुंचाने के मामले में कनविक्शन रेट 35.9% रहा.
  • दंगा करने से जुड़े मामलों में कनविक्शन रेट 24.9% रहा.
  • महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में कनविक्शन रेट 25.3% था यानी एक चौथाई मामलों में आरोपी बरी हो गए.
  • अगर बच्चों के ख़िलाफ़ अपराधों के मामले में देखें तो 2022 में देश में कनविक्शन रेट 33.6% रहा.
  • ऐसा क्यों है कि किसी भी तरह के अपराध में कनविक्शन रेट 50% तक भी नहीं है. इसकी कई वजह हैं.
  • सबसे बड़ी वजह है कि पूरी दक्षता से जांच न होना. संसाधनों, प्रशिक्षण और टैक्नोलॉजी से जुड़े टूल्स की कमी इसकी एक वजह है.
  • इससे कोर्ट में पेश किए गए सबूत अक्सर कमज़ोर रह जाते हैं.
  • जांच अधिकारियों की जवाबदेही की कमी. जांच में गड़बड़ी, सबूतों से छेड़छाड़ के मामले में संबंधित अफ़सरों की जवाबदेही बहुत कम फिक्स होती है.
  • गवाहों का पलटना, धमकी, रिश्वत या गवाहों की सुरक्षा न होने से अक्सर गवाह पलट जाते हैं जिससे केस सीधे तौर पर प्रभावित होता है.
  • लंबी और सुस्त क़ानूनी प्रक्रिया,  तारीख़ पर तारीख़ इंसाफ़ लेने की कोशिश करने वालों को हतोत्साहित करती है. कितनी ही बार ऐसा होता है कि कोर्ट में तारीख़ लगती ही नहीं.
  • जांच अधिकारियों और अभियोजकों के बीच तालमेल की कमी भी एक बड़ी वजह है.
  • अदालतों पर मुकदमों का भारी बोझ..
  • ताज़ा जानकारी के मुताबिक देश की सभी अदालतो में 5 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा केस लंबित थे. मुकदमों की इतनी भारी संख्या किसी भी न्यायपालिका को बोझिल कर देगी.

बाकी भ्रष्टाचार तो है ही जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता जो अक्सर कई मामलों की जांच को पटरी से उतारने की कोशिश में रहता है. कुल मिलाकर एक आम आदमी के लिए इंसाफ़ पाना आज भी बड़ी चुनौती है.

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