उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद्र' : हिंदी साहित्य में विशेष योगदान पर 'कलम के जादूगर' के नाम से पहचाना गया एक युग

उनकी प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत काशी की धरती से ही हुई और वहीं से उन्होंने अपनी साहित्य साधना की शुरुआत भी की. बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने मुंशी प्रेमचंद्र को 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी.

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दूसरी शादी प्रेमचंद्र के लिए सुखमय साबित हुई, उनका पूरा जीवन बदल गया.

Hindi Sahitya : प्रेमचंद्र के नाम से प्रसिद्ध धनपत राय श्रीवास्तव को 'उपन्यास सम्राट' और 'कलम का जादूगर' कहा जाता है. उन्होंने हिंदी कहानी के यथार्थ को न सिर्फ धरातल दिया, बल्कि अपने अनुभव से उसे समृद्ध भी किया. बाद में वो हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक बने.  मुंशी प्रेमचंद्र का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी के लमही में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम मुंशी आजायबराय और माता का नाम आनंदी देवी था.

काशी में हुई प्रारंभिक शिक्षा

उनकी प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत काशी की धरती से ही हुई और वहीं से उन्होंने अपनी साहित्य साधना की शुरुआत भी की. बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने मुंशी प्रेमचंद्र को 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी.

प्रेमचंद्र जब सात वर्ष के थे तो उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था. निधन के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली, लेकिन सौतेली मां और प्रेमचंद्र के बीच कभी नहीं बनी. जब प्रेमचंद्र 15 वर्ष के थे तो उनकी सौतेली मां ने पिता के साथ मिलकर उनकी शादी ऐसी लड़की से करा दी, जिसे वो बिल्कुल पसंद नहीं करते थे. शादी के बाद पिता का निधन, सौतेली मां का व्यवहार, और बिना पसंद की लड़की से शादी की वजह से उनका जीवन संघर्षों में ही बीता.

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बाल विधवा से किया विवाह

प्रेमचंद्र ने स्वयं बताया कि उनकी सौतेली मां ने उनकी शादी जानबूझकर ऐसी लड़की से कर दी, जो बदसूरत और झगड़ालू थी. बाद में यह शादी टूटनी अपेक्षित थी, जिसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. इसके बाद मुंशी प्रेमचंद्र ने दूसरी शादी की, जो उनके आदर्शों के अनुरूप थी. प्रेमचंद्र ने दूसरा विवाह 1906 में शिवरानी देवी नाम की बाल विधवा से किया. शादी होने के बाद उन्होंने पहले विवाह के बारे में लिखा, 'पिताजी जीवन के अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और बिना कुछ सोचे समझे ही शादी करा दी.'

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दूसरी शादी प्रेमचंद्र के लिए सुखमय साबित हुई, उनका पूरा जीवन बदल गया. वो स्कूल में डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए और इस दौरान ही उन्होंने पांच कहानियों का संग्रह 'सोजे वतन' प्रकाशित किया.

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पहला कहानी संग्रह 'सोजे वतन'

अगर प्रेमचंद्र के साहित्यिक जीवन की बात करें तो इसकी शुरुआत 1901 में हो गई थी. शुरुआत में वो नवाब राय के साथ उर्दू में लिखते थे. कहा जाता है कि प्रेमचंद्र की पहली रचना अप्रकाशित रही और जो संभवत: एक नाट्य रचना ही रही होगी. उनका पहला उपलब्ध लेख एक उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' था, जो एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ. इसका बाद में 'देवस्थान रहस्य' नाम से हिंदी रूपांतरण किया गया.

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1908 में उनका पहला कहानी संग्रह सोजे वतन प्रकाशित हुआ, जो देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत था. बाद में अंग्रेजों ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया और इसकी सभी प्रतियों को जब्त कर लिया. साथ ही भविष्य में लेखन को लेकर भी चेतावनी दी.

1918 से 1936 कालखंड 'प्रेमचंद्र युग'

साल 1918, प्रेमचंद्र के जीवन का बड़ा साल रहा, जिस दौरान हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ. इस कृति ने उन्हें देशभर में लोकप्रिय बना दिया और उन्हें उर्दू से हिंदी कथाकार के रूप में पहचाना जाने लगा. इसके बाद मानो हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद्र का सिक्का चलने लगा. हिंदी साहित्य और उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान और उपलब्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1918 से 1936 के कालखंड को 'प्रेमचंद्र युग' कहा गया.

प्रेमचंद्र की प्रमुख कृतियां

प्रेमचंद्र की प्रमुख कृतियों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग 18 से अधिक उपन्यास थे. वहीं, कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियां उन्होंने लिखी. इनमें से अधिकांश हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुई. साहित्य में असाधारण योगदान के लिए प्रेमचंद्र को 'कलम का जादूगर' कहकर भी संबोधित किया गया.

उन्होंने अपने दौर के सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चांद, सुधा, आदि में अपने लेख दिए. उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया. इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा, जो बाद में घाटे में रहा और बंद करना पड़ा. महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास, और मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माने जाते हैं.

1936 में कहा अलविदा

मुंशी प्रेमचंद्र अपने पिता की ही तरह पेचिस रोग से ग्रसित थे और अपने उम्र के अंतिम दिनों में लगातार बीमार रहने लगे. देशभर में लोकप्रिय होने के बावजूद वो आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं थे कि उनका उचित इलाज हो सके. 1936 में उन्होंने इस धरा को हमेशा के लिए अलविदा कहा. आज भले ही वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कृतियां सदैव आधुनिक लेखकों का मार्गदर्शन करती रही हैं.

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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