कास्ट एंड क्रू
मिथुन चक्रवर्ती, नसीरुद्दीन शाह, पंकज त्रिपाठी, पल्लवी जोशी, मंदिरा बेदी, राजेश शर्मा, विश्व मोहन बडोला, प्रकाश बेलवाडी, विनय पाठक, प्रशांत गुप्ता, अचिंत कौर और श्वेता बसु प्रसाद. फ़िल्म को लिखा और इसका निर्देशन किया है विवेक अग्निहोत्री ने. इसकी सिनमटॉग्रफ़ी की है उदय सिंह मोहिते ने और फ़िल्म में बैक्ग्राउंड स्कोर है सत्य मानिक का.
कहानी
फ़िल्म की कहानी घूमती है 1966 में ताशकन्त के दौरे पे गए देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मृतु के इर्द गिर्द. फ़िल्म ढूंढने की कोशिश करती है की आख़िर शास्त्री जी की मृत्यु की वजह क्या थी. फ़िल्म पत्रकार रगिनी फुले को उसके बॉस से अल्टिमेटम मिलता है की उसे दो दिन के अंदर एक बड़ा ख़ुलासा चाहिए और तभी रगिनी को एक फ़ोन आता है और उसे कहा जाता है की एक बड़ी ख़बर के कुछ काग़ज़ात उसकी डरौर में पड़े हैं. बस फिर क्या था रगिनी लग जाती है शास्त्री जी मृत्यु की छानबीन करने, राजनीतिक गलियरों में हड़कम्प मचता है और एक कमिटी बिठायी जाती है सच जान ने के लिए जिसके एक मेम्बर ख़ुद रगिनी भी है. और फिर एक बंद कमरे में सारे मेम्बर्ज़ के सामने शुरू होती है तहक़ीक़ात, और इस तहक़ीक़ात से कुछ नतीजा निकलता है या नहीं उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी.
डिस्क्लेमर
अंग्रेज़ी में एक फ़िल्म थी 12 ऐंग्री मैन जिसका 1986 में हिंदी में रीमेक बना एक रुका हुआ फ़ैसला, द ताशकंत फ़ाइल्ज़ मुझे इन्ही फ़िल्मों की याद दिलाती है. इस फ़िल्म में शास्त्री जी की मृत्यु के अलावा, समाज और सिस्टम पे भी तगड़ा कटाक्ष है और फ़िल्म में एक बात निकल कर आती है की यहां हर इंसान किसी ना किसी के लिए काम कर रहा है और उसे ये पता भी नहीं है की वो किसके लिए काम कर रहा है, एक और बात जो सामने आती है की यहां सब का एक एजेंडा है ...फ़िल्म में किरदार निभा रहे किरदारों का एजेंडा मुझे समझ आता है पर फ़िल्म के पीछे का एजेंडा नहीं. फ़िल्म की स्क्रिप्ट और उसकी रीसर्च की ऑथेंटिसिटी यानी सत्यता को किस नज़रिए से आंका जाए, ये भी मुश्किल काम है. फ़िल्म के दौरान शास्त्री जी की मृत्यु पर कई किताबों की मिसाल दी गयी है, पर वहीं पर फ़िल्म के कुछ डाइयलॉग्ज़ इन मिसालों को कटघरे में खड़ा कर देते है, जैसे एतिहासकारों ने किताबों में पूरा सच नहीं लिखा, या फिर रिटायर होने के बाद अगर कोई व्यक्ति किसी किताब में कुछ ख़ुलासा करता है तो वो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो हर क़ीमत पर अपनी खोयी पहचान वापस पाना चाहता है. तो फ़िल्म देखते वक़्त ये अपना विवेक है की आप उसे किस नज़रिए से देखें. पर बतौर सिनमा में इसे अपने रिव्यू में आंकूंगा तो सबसे पहले ख़ामियां.
ख़ामियां
ये फ़िल्म थोड़ी लम्बी है ये है इसकी पहेली ख़ामी, फ़िल्म में श्वेता पर फ़िल्माए गए थोड़े से मैलोड्रेमेटिक सींज़ से बचा जा सकता था साथ ही बैक्ग्राउंड के एक गाने से भी. एक और चीज़ एक जासूस जिसे देश के लोग ढूंढ नहीं पाए उसे फ़िल्म की नायिका ढूंढ लेती है ये थोड़ा लॉजिकल नहीं लगता. फिर से एक बात कहूंगा की इस फ़िल्म को मैं वक पलिटिकल थ्रिलर कहूंगा और जिन लोगों को हिस्ट्री में दिलचस्पी नहीं है उन्हें ये फ़िल्म शायद मनोरंजक ना लगे.
ख़ूबियां
बतौर फ़िल्म ये मुझे एंगेजिंग लगी और मुझे इसकी स्क्रिप्ट, स्क्रीन्प्ले कसा हुआ लगा वरना एक कमरे में हुई बातचीत बोरिंग हो सकती थी. जिस तरह से फ़िल्म की कहानी कही गयी है ये आपको बांध के रखती है और आप इंट्रेस्ट नहीं खोते. यहां मैं तारीफ़ करना छाऊंगा श्वेता बसु प्रसाद की जिन्होंने अपने कंधों पर इस भारी भरकम किरदार का बोझ उठाया, इतने डाइयलॉग्ज़ और इतने इमोशंज़ किसी भी कलाकार की परीक्षा के लिए काफ़ी होते हैं और श्वेता इस परीक्षा में 100 फ़ीसदी पास हैं. बाक़ी सभी कलाकारों का काम भी क़ाबिले तारीफ़ है ख़ासकर मिथुन चक्रवर्ती. फ़िल्म के बैक्ग्राउंड स्कोर और कैमरा फ़िल्म के साथ न्याय करते हैं और विवेक का निर्देशन भी साधा हुआ है, तो कुल मिलाकर मेरी और से इस फ़िल्म को 3.5 स्टार्स.
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