बेटियों के भविष्य के लिए महिला योद्धाओं की लड़ाई

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Bhuwan Ribhu

कानून हैं, पर क्या न्याय सभी को मिल रहा है? भारत में बाल विवाह के खिलाफ दुनिया के सबसे प्रगतिशील कानून हैं. लेकिन जमीनी स्तर पर इस पर अमल की हकीकत क्या है? इसकी पड़ताल इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन (आईसीपी) ने की तो अध्ययन में चौकाने वाले निष्कर्ष सामने आए. आईसीपी ने 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के आंकड़ों के विश्लेषण से नतीजा निकाला कि भारत में हर मिनट तीन लड़कियों की जबरन शादी कर दी जाती है, जबकि 2022 में बाल विवाह के रोजाना औसतन सिर्फ तीन मामले ही दर्ज किए गए. अधिकतर मामलों में दूल्हे की उम्र 21 वर्ष से अधिक थी. यानी बड़े पैमाने पर कानून का उल्लंघन हो रहा है और अपराधी बचकर निकल जा रहे हैं.

ऐसे में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्वसंध्या पर दिल-दिमाग को झकझोरने वाली एक खबर आती है कि 14 साल की एक मासूम बच्ची को जबरन एक 29 वर्षीय व्यक्ति से ब्याह दिया गया और बच्ची के कड़े प्रतिरोध के बावजूद उसे किसी पालतू जानवर की तरह उठा कर ले गया. यानी एक तो सबके सामने बाल विवाह का अपराध और दूसरे एक मासूम बच्ची को सबके सामने अगवा करके ले जाने का अपराध. यह खबर उस असंवेदनशील समाज का कड़वा सच उजागर करती है जहां बेटियों के सपनों और उनके भविष्य का कोई मोल नहीं है.

जाहिर है कि हालात बदलने चाहिए. बाल अधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के लिए देश के 26 राज्यों के 416 जिलों के 50,000 से ज्यादा संवेदनशील गांवों में जमीन पर काम कर रहे 250 से भी ज्यादा नागरिक संगठनों के सबसे बड़े नेटवर्क ‘जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन' के सहयोगी संगठन आईसीपी ने अपनी सिफारिशों में कहा कि बच्चों के खिलाफ अपराधों की रोकथाम और बचाव, पीड़ित बच्चों का पुनर्वास सुनिश्चित करने और कानूनी निवारक उपायों को लागू करने के लिए कानूनों पर सख्ती से अमल जरूरी है क्योंकि ये प्रतिरोधक का काम करते हैं. उदाहरण के लिए, असम में जब कानूनों पर सख्ती से अमल शुरू हुआ तो बाल विवाह के चलन में 81 प्रतिशत तक की कमी आई.

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आज भारत उस मोड़ पर खड़ा है, जहां महिलाओं के नेतृत्व और कानूनों पर सख्ती से अमल से स्थायी बदलाव की संभावना दस्तक दे रही है. जो जमीन पर काम कर रहे हैं वे इस बदलाव की आहट साफ सुन रहे. वे इस बात से वाकिफ हैं कि देश के कोने-कोने में ऐसी बेटियां हैं जो बाल विवाह के बहाने अपने जीवन और सपनों को कुचले जाने के खिलाफ पूरे साहस से डट कर खड़ी हो रही हैं.

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महिला नेतृत्व की परिवर्तनकारी शक्ति

इनमें से एक है राजस्थान के अजमेर की 27 वर्षीय सोनू जिसे महज 12 साल की उम्र में शादी का जोड़ा पहना दिया गया. एक बारात के खर्च में दो बेटियों का विवाह निपटा देने के फेर में उसके माता-पिता ने उससे पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि वह क्या चाहती है. उसकी बड़ी बहन के साथ ही उसी दिन उसकी भी शादी कर दी गई. सत्रह वर्ष की उम्र में तीन बेटियों की मां बनने के बावजूद उसने और उसके पति ने ठान लिया कि उनकी बेटियां वे मुश्किलें नहीं झेलेंगी, जिनसे वे गुजरे थे.

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कल की लाचार सोनू आज एक योद्धा बन चुकी है. उसकी हिम्मत और संकल्प उन तमाम लड़कियों एवं महिलाओं को प्रेरित कर रही है, जो बाल विवाह के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हैं. उसका मानना है कि "हम अपनी धरती अपने पूर्वजों से विरासत में नहीं लेते, बल्कि इसे अपने बच्चों से उधार लेते हैं." इसलिए वह इस संकल्प पर अटल है कि जानकारी में आने के बाद वह किसी को भी किसी बेटी का बचपन छीनने की इजाजत नहीं देगी. सोनू एक उदाहरण है कि बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं को रोकने के लिए महिलाओं और लड़कियों का नेतृत्व कितना आवश्यक है. उनकी भागीदारी, सहयोग, आर्थिक सशक्तीकरण, जागरूकता और शिक्षा इस लड़ाई में अहम भूमिका निभाते हैं.

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सोनू की तरह ही, ओड़ीशा के गंजाम जिले की अलका साहू ने भी अपने समुदाय की लड़कियों की दुर्दशा को देखा और उसे रोकने के लिए कदम उठाए. उन्होंने "सेवा" नामक एनजीओ की स्थापना की और देश में बढ़ते बाल विवाह पर रोक लगाने की मांग करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की. इस याचिका ने न सिर्फ इस अपराध की अनदेखी के खिलाफ आवाज उठाई बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि यह लड़ाई उन्हीं के नेतृत्व में लड़ी जाएगी जो इसके भुक्तभोगी हैं.

बाल विवाह मुक्त भारत: एक क्रांति की शुरुआत

पीड़िताओं के पास एक अनूठा दृष्टिकोण और अनुभव होता है, जो उन्हें अन्य लड़कियों और महिलाओं के लिए प्रभावी समाधान विकसित करने में सक्षम बनाता है. भारत के विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों में सोनू और अलका जैसी महिलाओं के नेतृत्व में यह आंदोलन बाल विवाह जैसी गहरी जड़ें जमाए कुप्रथा को चुनौती दे रहा है. स्वावलंबन और आत्मविश्वास के साथ प्रतिदिन आगे बढ़ते हुए पूरे भारत में बाल विवाह के खिलाफ उठी हमारी माताओं, बहनों और बेटियों की आवाज आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला सशक्तीकरण का सबसे बड़ा सबूत है. ये महिलाएं अपने प्रयासों, अनुभव और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सामाजिक व्यवस्था को बदल रही हैं. ये न केवल अपने लिए, बल्कि हर उस बेटी के लिए लड़ रही हैं, जिसे उसकी मर्जी के बिना विवाह के बंधन में जकड़ दिया जाता है. पिछले दो वर्षों में लड़कियों, उनके परिवारों, नागरिक समाज संगठनों और सरकारी संस्थाओं के सहयोग से यह अभियान गति पकड़ चुका है. 27 नवंबर 2024 को भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती अन्नपूर्णा देवी ने बाल विवाह के खिलाफ "बाल विवाह मुक्त भारत" नामक दुनिया के सबसे बड़े अभियान की शुरुआत की. इस अभियान को अब तक 26 करोड़ से अधिक भारतीयों का समर्थन मिल चुका है.

यह मात्र एक अभियान नहीं, बल्कि एक सामाजिक ताने बाने को बदलने वाली क्रांति है, जो हर लड़की के सपनों और भविष्य की रक्षा सुनिश्चित करेगी. यह साबित करता है कि जब महिलाएं नेतृत्व करती हैं, तो समाज प्रगति करता है. यह उनके नजरिए से ही संभव है कि हम समाज की मान्यताओं को बदल सकें और बाल विवाह जैसी प्रथाओं को हमेशा के लिए समाप्त कर सकें. इस अभियान में सबसे अगली कतार में खड़ी महिलाएं इस बाबत स्पष्ट हैं कि अब शर्म को अपनी दिशा बदलनी होगी. शर्म अब उन अपराधियों को आनी चाहिए जो बलात्कार व बाल विवाह जैसे घिनौने कार्यों को अंजाम देते हैं न कि पीड़िताओं को. इसके लिए समाज की उस मानसिकता में बदलाव जरूरी है जो मुजरिम के बजाय पीड़ित को ही शर्मिंदा करता है और उनके साथ हुए अपराध के लिए उन्हें हेय दृष्टि से देखता है. पीड़ितों को सहानुभूति या अन्याय के लिए शर्मसार होने की नहीं, बल्कि न्याय की जरूरत है. भय उन्हें होना चाहिए जो ये सोचकर अपराध करते हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा. कानून का शासन स्थापित करने के लिए यह जरूरी शर्त है कि लोगों में कानून का भय हो कि अगर वे अपराध करेंगे तो सजा से नहीं बच पाएंगे.

सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता

किशोरियों में कौशल विकास और शिक्षा को बढ़ावा देने वाली सरकार की योजनाएं सकारात्मक बदलाव ला रही हैं. विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि अगर भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 50% हो जाए तो देश की जीडीपी में 1.5% की वृद्धि हो सकती है.

इसके लिए नेतृत्वकारी वर्ग यानी सामुदायिक नेताओं, राजनीतिक प्रतिनिधियों, न्यायपालिका और धर्मगुरुओं को एकजुट होकर बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। प्रत्येक नागरिक की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे बाल विवाह की घटनाओं की हर हाल में रिपोर्ट करें और हर लड़की को शिक्षा और अवसर उपलब्ध कराने में सहयोग दें. भारत 2030 तक बाल विवाह को समाप्त करने के महत्वपूर्ण लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, जो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. महिलाएं और लड़कियां बाल विवाह के खिलाफ इस संघर्ष को आगे बढ़ा रही हैं. लेकिन विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, छात्र, किसान, व्यापारी जैसे नागरिक समाज के सभी वर्गों को इस परिवर्तनकारी आंदोलन का हिस्सा बनना होगा. केंद्र सरकार का ‘बाल विवाह मुक्त भारत' का संकल्प उन समर्पित महिला नेताओं और कार्यकर्ताओं के प्रयासों से ही साकार हो पाएगा जो बिना रुके और थके स्कूलों, पंचायतों, गांवों के खेत खलिहानों से लेकर गरीब बस्तियों तक यह संदेश पहुंचा रही हैं कि अब और नहीं- बच्चों के खिलाफ अपराधों खास तौर से बाल यौन शोषण व बाल विवाह को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

(लेखक प्रख्यात बाल अधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता और बाल अधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के लिए दुनिया में नागरिक संगठनों के सबसे बड़े नेटवर्क में से एक 'जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन के संस्थापक हैं)