लोकतांत्रिक देशों में विचारधारा के नाम पर इतनी कड़वाहट क्यों...?

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Harish Chandra Burnwal

विश्व के हर लोकतांत्रिक देश में दो विचारधाराओं के बीच ऐसी टकराहट हो रही है, जिसमें हिंसा और हत्या स्वाभाविक परिणति बनती दिख रही हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप पर हुआ जानलेवा हमला इसका बड़ा उदाहरण है. मगर इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा हो गया है कि लोकतांत्रिक देशों में दो विचारधाराओं के बीच इतनी कड़वाहट क्यों? दरअसल सत्ता परिवर्तन के लिए लोकतंत्र में जहां विचारों को बहुमत प्राप्त करने और सत्ता पाने का आधार माना जाता है, उसी लोकतंत्र में सत्ता पर पकड़ मज़बूत बनाए रखने के लिए दुनिया के हर देश में लेफ्ट लिबरल पार्टियां हर वे हथकंडे अपना रही हैं, जिनसे दक्षिणपंथी विचारधाराओं की पार्टियों को सत्ता से दूर रखा जा सके. इन हथकंडों के बावजूद यदि दक्षिणपंथी पार्टियों को सत्ता मिलते दिखती है, तो उन्हें सत्ता में आने से रोकने के लिए दशकों से एक दूसरे की विरोधी रही लेफ्ट लिबरल पार्टियां सारे मतभेद भूलकर एक हो जाती हैं. यह सिर्फ़ भारत में नहीं, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, यूरोपीय संघ जैसे लोकतंत्रों में भी हो रहा है.

डोनाल्ड ट्रंप को मारी गई गोली

अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब पेन्सिलवेनिया में एक चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे, उन्हें गोली से मारने का असफल प्रयास किया गया. 20 साल के एक युवक ने उन पर कई बार गोली चलाई. इस गोलीबारी में ट्रंप के साथ खड़े एक व्यक्ति की मौत हो गई और अन्य दो घायल हो गए. वहीं एक गोली ट्रंप के दाहिने कान को छूते हुए निकल गई, यदि ट्रंप कुछ सेकंड पहले अपना सिर दूसरी तरफ नहीं घुमाते, तो गोली सीधे उनके माथे पर लगती और वह वहीं ढेर हो जाते. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी आमने-सामने हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन उम्मीदवार हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी अपने चुनाव प्रचार में डोनाल्ड ट्रंप को हिटलर, तानाशाह, अल्पसंख्यक-विरोधी और प्रवासियों का विरोधी बताने का नैरेटिव बनाते हुए प्रचार कर रही है. ज़ाहिर है, अमेरिकी समाज के भीतर एक गहरी खाई पैदा हो गई है. डेमोक्रेटिक पार्टी, जो अभी सत्ता में है, वह हर तरीके से डोनाल्ड ट्रंप को सत्ता में आने से रोकने का प्रयास कर रही है, इसके लिए ट्रंप के ख़िलाफ़ तमाम तरह के मुकदमे कोर्ट में दाखिल किए गए हैं, ताकि अमेरिकी अदालतें उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दें.

राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना

9 जून को यूरोपीय संघ की संसद के चुनाव परिणाम को देख कर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने समय से पहले चुनाव करने की घोषणा कर दी. यूरोपीय संघ के परिणाम में दक्षिणपंथी पार्टियों की न सिर्फ सीटें बढ़ी थीं, बल्कि उनका प्रतिशत भी बढ़ गया था. 27 देशों के यूरोपीय संघ में फ्रांस एक महत्वपूर्ण देश है, जहां से यूरोपीय संघ की संसद के लिए ले पेन की नेशनल रैली पार्टी को 31 प्रतिशत मत मिले थे. नेशनल रैली पार्टी के इस बढ़ते प्रभाव को देखते हुए फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने समय से पहले देश में 30 जून को पहले दौर का मतदान करवाने का फैसला ले लिया. इस पहले दौर में ले पेन की नेशनल रैली पार्टी 33 प्रतिशत मतों के साथ पहले स्थान की पार्टी बन गई और राष्ट्रपति मैक्रों की रेनेसां पार्टी 20 प्रतिशत मतों के साथ तीसरे स्थान पर खिसक गई, जबकि वामपंथी दलों का गठबंधन न्यू पॉपुलर फ्रंट 28 प्रतिशत मतों के साथ दूसरे स्थान पर आ गया. पहले दौर में दक्षिणपंथी पार्टी की जीत को देखते हुए दूसरे दौर के चुनाव से पहले सभी लेफ्ट लिबरल पार्टियों के उम्मीदवार नेशनल रैली के खिलाफ एकजुट हो गए, उनका सिर्फ़ एक ही मकसद था कि नेशनल रैली पार्टी को सत्ता में आने से रोका जाए. 7 जुलाई को जब दूसरे दौर का परिणाम आया, तो फ्रांस की संसद में वामपंथी दलों के गठबंधन न्यू पॉपुलर फ्रंट को 182 सीटें, मैंक्रों की पार्टी रेनेसां को 163, नेशनल रैली पार्टी को 143 सीटें और अन्य दक्षिणपंथी पार्टियों को 68 सीटें मिलीं. इस तरह फ्रांस अपने इतिहास में पहली बार ऐसी संसद को देख रहा है, जहां किसी भी दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, लेकिन लेफ्ट लिबरल पार्टियों ने एक दक्षिणपंथी पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए फ्रांस को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में झोंक दिया.

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विचारधारा सर्वश्रेष्ठ

लेफ्ट लिबरल पार्टियों ने फ्रांस में नेशनल रैली पार्टी को सत्ता में आने से रोकने और राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने का दुस्साहस यूरोपीय संघ के चुनाव के परिणाम को देखकर किया. 27 देशों के यूरोपीय संघ के 720 सदस्यों की संसद के चुनाव परिणाम जब 9 जून को आए, तो यूरोपियन पीपल्स पार्टी को 188 सीटें मिलीं, वहीं प्रोग्रेसिव एलायन्स ऑफ सोशलिस्ट एंड डेमोक्रेटस को 136 सीटें मिलीं, जबकि 2019 के चुनाव की तुलना में सबसे अधिक 78 सीटें दक्षिणपंथी समूह यूरोपिन कंज़रवेटिव्स एंड रिफार्मिस्ट ग्रुप को मिलीं. दक्षिणपंथी समूह के इस उभार को देखकर पूरा लेफ्ट लिबरल समूह सकते में आ गया. सबसे बड़ा झटका फ्रांस औऱ जर्मनी के लेफ्ट लिबरल समूह को लगा, जहां दक्षिणपंथी पार्टियों को सबसे अधिक सफलता मिली थी. फ्रांस ने तो दक्षिणपंथी पार्टी की बढ़त को रोकने के लिए समय से पहले चुनाव करवा दिए, लेकिन जर्मनी में अभी चुनाव नहीं करवाया गया है, और वहां चुनाव अगले साल होने वाले हैं. आज यूरोपीय संघ औऱ उसके देशों में जिस तरह दक्षिणपंथी पार्टियां जनता के बीच जनमत हासिल कर रही है, उससे लेफ्ट लिबरल पार्टियां उनके ख़िलाफ़ फ़ासीवाद, नाज़ीवाद और तानाशाही का नैरेटिव बनाने पर आमादा हैं और प्रचारित कर रही हैं कि दक्षिणपंथी पार्टियों के आने से संघ का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा. जबकि इटली में दक्षिणपंथी पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली सत्ता में है, जिसकी प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की नीतियां काफी प्रभावी हैं और इटली में सबको साथ लेकर चलने वाली हैं. एक दक्षिणपंथी पार्टी के सत्ता में आने के बावजूद इटली में न तो तानाशाही आई है, न प्रधानमंत्री मेलोनी हिटलर की तरह हैं.

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भारत में वही राग

दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश की तरह भारत में भी लेफ्ट लिबरल पार्टियां उसी तरह का नैरेटिव बनाती हैं. यहां भी सत्ताधारी पार्टी BJP के खिलाफ़ पिछले एक दशक से यही नैरेटिव चलाया जा रहा है कि देश में आग लग जाएगी, यहां का अल्पसंख्यक खतरे में है और यदि यह पार्टी सत्ता में बनी रहती है, तो देश का संविधान बदल जाएगा. लेकिन पिछले 10 सालों में इस देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ. परन्तु इस नैरेटिव ने देश में एक ऐसे वर्ग को तैयार करने का काम किया है, जिसमें गुस्सा और भय है. इसी गुस्से और भय का उपयोग ये पार्टियां अपनी सत्ता के लिए करती हैं. जब अठारहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के परिणाम 4 जून को आने वाले थे, तो ठीक एक दिन पहले इन पार्टियों के नेताओं ने घोषणा की कि यदि चुनाव परिणाम एकतरफा BJP के पक्ष में आए, तो देश में आग लगा दी जाएगी. जबकि इन्ही पार्टियों ने पूरे चुनाव में यही प्रचार किया था कि BJP के सत्ता में आते ही देश में न तो संविधान रहेगा और न चुनाव होंगे.

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हार में हिंसा

भारत में लेफ्ट लिबरल पार्टियों का इतिहास रक्तरंजित हैं. केरल और पश्चिम बंगाल में सत्ता में बने रहने के लिए लेफ्ट ने जिस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति पैदा की, उस हिंसा के तांडव में सैकड़ों कार्यकताओं और नेताओं को जान गंवानी पड़ी है. जिस लेफ्ट लिबरल विचारधारा को आधुनिक, सहनशील और धर्मनिरपेक्ष समझा गया और जनता ने एक समय में बेहतर माना था, आज वही विचारधारा पिछड़ी, असहनशील और अल्पसंख्यक परस्त बन चुकी है. यही वजह है कि आज दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश में दक्षिणपंथी पार्टियों की जड़ें समाज में मज़बूत हो रही हैं. विचारधाराओं की टकराहट मानव सभ्यता के विकास की स्वाभाविक नियति है, लेकिन हमारा कर्तव्य होना चाहिए कि इस टकराहट को हिंसा और असहिष्णुता से बचाते हुए परिवक्व और बेहतर विचारधारा को पनपने का मौका दें.

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हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.