This Article is From Jan 03, 2025

टेक्नोलॉजी के इस दौर में 'डिजिटल डिटॉक्स' पर बात करना क्यों जरूरी है?

विज्ञापन
अमरेश सौरभ

बीते साल एक टर्म पर चर्चा तेज हो गई- डिजिटल डिटॉक्स (Digital Detox). दरअसल, लोग जिस तरह डिजिटल टूल्स पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं, इसके नकारात्मक नतीजे भी तेजी से सामने आते जा रहे हैं. ऐसे में डिजिटल डिटॉक्स के हर पहलू को गंभीरता से देखा जाना लाजिमी ही है.

सर्वे की तस्वीर
वैसे तो अब यह घर-घर की कहानी बन चुकी है. सर्वे के नतीजों के बिना भी हकीकत बताई जा सकती है. फिर भी नए-पुराने एक-दो नमूने ले लेते हैं. करीब 7 साल पहले एक सर्वे में शामिल 61% लोगों ने कबूला था कि वे रात को सोने से ठीक पहले और सुबह जागते ही एक काम करना नहीं भूलते- मोबाइल फोन चेक करना. इनमें आधे से भी ज्यादा वैसे लोग थे, जो सुबह उठने के 5 मिनट के भीतर ही अपना फोन चेक करते थे. अगर जागने के बाद की अवधि को 30 मिनट कर दें, तो ऐसे लोगों का दायरा बढ़कर 88% हो जाता है. अवधि एक घंटे कर दें, तो आंकड़ा हो जाता है 96%. जरा चेक कीजिए कि साल 2025 की शुरुआत तक हम और आप कहां खड़े हैं?

इसी तरह, साल 2024 में छपी डेलॉइट (Deloitte) जर्मनी की एक रिसर्च भी गौर किए जाने लायक है. जर्मनी में 2,000 लोगों ने इस सर्वे में भाग लिया. इनमें 18 से 24 साल के बीच के 84% लोगों ने कहा कि वे अपने फोन का 'बहुत ज्यादा' इस्तेमाल करते हैं. साथ ही 45 साल से कम उम्र के 55% लोगों को लगता है कि वे एक साल पहले की तुलना में स्मार्टफोन पर ज्यादा समय बिताते हैं. सबसे जरूरी बात ये कि सर्वे में शामिल ज्यादातर लोग स्क्रीन टाइम बढ़ने के बुरे नतीजों से चिंतित हैं और इसे कम करने के उपाय कर रहे हैं.

बुरे नतीजे का मतलब?
चाहे फोन हो या टैबलेट, लैपटॉप हो या कोई और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, इनका ज्यादा इस्तेमाल इंसान पर कई तरह से नकारात्मक असर डाल रहा है. स्क्रीन टाइम बढ़ते जाने से कई तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याएं बढ़ती पाई गई हैं. इनमें नींद कम आना, अनिद्रा, आंखों की बीमारी, चिड़चिड़ापन, थकान, सिरदर्द, मानसिक तनाव, डिप्रेशन जैसे लक्षण उभरते पाए गए हैं. ये समस्याएं ग्लोबल हैं, किसी एक देश की नहीं.

हालात ऐसे हैं कि ज्यादातर लोग डिजिटल उपकरणों के बुरे असर को जानते-समझते हुए भी इनका इस्तेमाल कम कर नहीं पा रहे. यह बात सही है कि टेक्नोलॉजी के इस दौर में बहुत सारा काम फोन और लैपटॉप पर शिफ्ट हो गया है. इसके बावजूद, एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है, जो इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के 'नशे' का शिकार है. लोग बार-बार अपना फोन चेक करने को 'मजबूर' हो जा रहे हैं. यही वजह है कि डिजिटल डिटॉक्स आज के वक्त की बड़ी जरूरत बन चुका है.

लिमिट तय करना जरूरी
रोजमर्रा के जीवन में डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल करना चाहे अनिवार्य हो या महज टाइमपास का जरिया, इसकी एक सीमा तय करना बहुत जरूरी है. इसके बिना समस्याओं पर काबू पाना मुमकिन नहीं हो सकेगा. यह हर किसी के लिए सोचने की बात है कि अपना काम-धंधा प्रभावित किए बिना डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल किस तरह कम से कम किया जाए. लेकिन पहले यह मानें तो सही कि वे इंटरनेट और डिजिटल स्क्रीन के आदी हो चले हैं. इस गंभीर 'लत' के शिकार हैं!

Advertisement

मुश्किल ये कि बड़े तो बड़े, आज छोटे-छोटे बच्चों तक के व्यवहार और बोल-चाल में डिजिटल गैजेट्स की छाप साफ झलक जाती है. ऐसे में इस नई चुनौती से पार पाने के उपाय निकाले जा रहे हैं. गैजेट्स से दूरी बनाने के मौके तलाशे जाने लगे हैं.

'डिजिटल डिटॉक्स' के तरीके
दरअसल, होता यह है कि हमारे दिमाग में ऐसी चीजें ज्यादा स्टोर होती चली जाती हैं, जो हम स्क्रीन पर देखते-सुनते रहते हैं. आगे चलकर बात-बात पर उसी तरीके से रिएक्ट भी करने लगते हैं. इन सबसे उबरने की ही 'थेरेपी' है- डिजिटल डिटॉक्स.

Advertisement

इसके लिए लोग अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से तरीके चुन रहे हैं. इनमें फोन के फालतू के नोटिफिकेशन को म्यूट या ब्लॉक करना भी शामिल है. कुछ लोग सोते समय या खाली समय में अपने डिजिटल डिवाइस को पूरी तरह बंद कर रहे हैं. कुछ लोग हर दिन, कुछ खास घंटों के लिए या वीकेंड पर इनसे दूरी बनाकर चलते हैं. डिजिटल उपकरणों पर वक्त बिताने की जगह अब लोग फिर से किताबें पढ़ने या किसी और हॉबी की ओर मुड़ने लगे हैं.

लोगों की दुखती रग टटोलकर ही कई ट्रैवेल कंपनियां ग्राहकों को नए-नए ऑफर दे रही हैं. इनमें डिजिटल डिटॉक्स का पूरा इंतजाम रहता है. यानी आप उन होटल या कैंपों में जाकर डिजिटल डिवाइस इस्तेमाल करने की जगह क्या करेंगे, वैसी चीजें मुहैया कराई जाती हैं. कई लोग छुट्टियां बिताने के लिए जान-बूझकर वैसी जगह चुनने लगे हैं, जहां नेटवर्क ही न हो या बेहद मुश्किल से मिलता हो. फलसफा एकदम साफ है- पहले जान है, तभी तो जहान है!

Advertisement

उपाय कितने कारगर?
जिन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल से बुरे नतीजे सामने आते हैं, उनसे वक्त रहते वाजिब दूरी बनाकर चलने पर समस्याएं खुद-ब-खुद कम हो जाती हैं. डिजिटल वर्ल्ड और हकीकत के बीच बैलेंस बनाकर चलना ही समझदारी भरा कदम माना जा सकता है. केवल कुछ शारीरिक और मानसिक समस्याओं से उबरने में ही नहीं, बल्कि कई रिश्तों में मजबूती लाने के लिए भी डिजिटल डिटॉक्स आज की जरूरत बनती जा रही है.

जब फोन की खातिर रात में बार-बार नींद का उचटना कम होगा, तो नींद की क्वालिटी सुधरेगी ही. अगर डिजिटल टूल्स से दूरी बनाकर, बचे हुए समय को किसी प्रोडक्टिव वर्क में लगाया जाएगा, तो इसके अच्छे नतीजे आते देर नहीं लगेंगे. लेकिन पहले लोग ऐसा करने का साहस तो दिखाएं.

Advertisement

नए साल का तोहफा
एक बात पूरी तरह तय है. नए साल में या आने वाले दौर में ज्यों-ज्यों डिजिटल उपकरणों पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जाएगी, त्यों-त्यों डिजिटल डिटॉक्स की जरूरत में भी इजाफा होता चला जाएगा. बाजार तो इसको भुनाने को पहले से तैयार बैठा है. समझदारी इसी में है कि वक्त रहते चेत जाया जाए.

नए साल पर अपने चाहने वालों और करीबियों को डिजिटल डिटॉक्स के लिए प्रेरित करना एक अच्छा गिफ्ट हो सकता है. हैपी न्यू ईयर!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.