उत्तराखंड के माणा गांव में 28 फरवरी को एवलांच की वजह से आठ मजदूरों की मौत हो गई थी, माणा में हुई इस दुर्घटना के कारणों की पड़ताल करें तो उत्तराखंड के पहाड़ों से अच्छी तरह से परिचित विशेषज्ञों के अनुसार यह प्राकृतिक आपदा कम, मानवीय भूल का परिणाम ज्यादा लगती है.
विस्तार से जानें क्यों आते हैं एवलांच.
भूवैज्ञानिक एस पी सती माणा के बारे में विस्तार से बात करते हैं. एस पी सती कहते हैं यह घाटी हिम अवधावों (एवलांच)के लिए जानी जाती है. बद्रीनाथ मंदिर के ठीक ऊपर एक मानव के आंख की भौं (eye brow) सदृश चट्टान है, जिसके कारण एवलांच के आने पर वो सीधे दूसरी तरफ डायवर्ट हो जाता है और मंदिर बचा रहता है. सैकड़ों सालों से मंदिर का अक्षुण्ण रहने का कारण उसका इस बुद्धिमत्ता से किया गया साइट सिलेक्शन है.
एवलांच की संभावना को देखते हुए ही मंदिर के ऊपर ट्राइएंगुलर स्ट्रक्चर बनाए गए हैं. असल में ग्लेशियरों की बहुतायतों के काल में आज से सैकड़ों वर्ष पहले इस क्षेत्र की पहाड़ियों की चोटियों में कुछ गर्त बने थे, जिन पर छोटे मोटे ग्लेशियर बन जाते थे. इन ग्लेशियरों को माउंटेन ग्लेशियर या फिर बड़े गड्ढों में बने अपेक्षाकृत बड़े ग्लेशियरों को सर्क ग्लेशियर कहते हैं. जब ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम प्रारंभ हुआ तो सबसे पहले ये छोटे छोटे माउंटेन ग्लेशियर ही खत्म हुए, फिर सर्क ग्लेशियरों का नंबर आया. अब इन ग्लेशियरों की जगह मिट्टी पत्थर से कुछ कुछ भरे गड्ढे रह गए हैं, जिन्हें रिलिक्ट सर्क या फिर रिलिक्ट माउंटेन ग्लेशियर या फिर हैंगिंग ग्लेशियल साइट्स कह सकते हैं.
ताजा हिमपात की घटनाओं में इन गड्ढों में अधिक बर्फ भर जाती है क्योंकि ताजा बर्फ की धरती से पकड़ कम होती है, लिहाजा ये ताजा बर्फ का मास अपने भार से टूट कर तेजी से नीचे गिर जाता है, इसी को अवधव या एवलांच कहते हैं. मार्च 2021 में गिरथी घाटी (धौली की सहायक नदी) में इसी तरह की प्रक्रिया में काफी मजदूर हताहत हुए थे. इस घटना पर हमने एक छोटा सा पत्र प्रकाशित कर इस घाटी के वे संवेदनशील इलाके चिन्हित किए थे, जहां जहां ये एवलांच आने की संभावना है.
माणा में मजदूरों का कैंप इसी तरह के संभावित क्षेत्र में स्थित था. अब सवाल यह है कि ये एवलांच अधिकांशतः फरवरी के आखिरी हफ्ते और मार्च अप्रैल में क्यों आते हैं? इसका कारण यह है कि दिसंबर जनवरी में पृथ्वी का तापमान काफी कम होता है तो इस दौरान पड़ने वाली बर्फ में पानी की मात्रा कम, घनत्व अधिक होता है और पाला पड़ते रहने से बर्फ की पकड़ मजबूत होती है, वह धरातल से आसानी से नीचे की ओर खिसक नहीं पाती. इसको कुछ यूं समझिए कि एक छोटी प्लेट में बर्फ जमाइए, जब आप ठंडी बर्फ वाली प्लेट बाहर निकालेंगे तो बर्फ प्लेट पर चिपकी रहेगी, खिसकेगी नहीं पर कुछ देर में जब बर्फ पिघलने लगेगी तो सबसे पहले वह प्लेट की सतह से पकड़ छोड़ेगी.
जलवायु में आए उल्लेखनीय बदलाव का एक पहलू यह भी है कि अब प्रायः यह देखा जा रहा है कि पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता, अब दिसंबर, जनवरी की अपेक्षा फरवरी के आखिरी हफ्ते, मार्च अप्रैल और यहां तक कि गर्मियों में शिफ्ट हो गई है. मार्च अप्रैल की बर्फ ग्लेशियरों के साइज में कोई फर्क नहीं डालते क्योंकि यह बर्फ शीघ्र पिघल जाती है. इसके अतिरिक्त अधिक एवलांच की संभावना बनाती हैं, गर्मियों में आए पश्चिमी विक्षोभ हिमालय में मानसून की आर्द्रता से मिल भयंकर तबाही मचाते हैं. 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका एक उदाहरण है.
अनुभव की कमी है जिम्मेदार.
पर्वतारोहण के प्रशिक्षक सुनील कैंतोला माणा एवलांच पर कहते हैं विदेशों में स्कीइंग के सीजन में अपेक्षाकृत कम आय के लोग बहुत बड़ी संख्या बैक कंट्री स्कीइंग करते हैं. जो स्की रिसोर्ट से इतर दुर्गम क्षेत्रों में की जाती है, वहां वन विभाग सैटेलाइट की सहायता से उन क्षेत्रों को चिन्हित कर लेते हैं, जहां एवलांच आने की संभावना हो और विस्फोट करके उस एवलांच को पहले ही ध्वस्त कर देते हैं. हिमालय में हालांकि बैक कंट्री स्कीइंग नहीं होती परन्तु सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सीमांत क्षेत्रों में सैन्य सुरक्षा एवं संबंधित विकास के कार्य चलते रहते हैं और अनुभव की कमी के चलते ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं. विदेशों में तो हिम संबंधित दुर्घटनाओं से निपटने के लिए स्वयं सहायता समूह तक सक्रिय रहते हैं, इस विषय में गंभीरता से संबंधित तकनीक एवं प्रबंधन को लाने की आवश्यकता है.
मजदूरों का वहां फंसना घोर लापरवाही का नतीजा.
अनुभवी पर्वतारोही सुभाष तराण कहते हैं सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहता हूं कि कई मीडिया रिपोर्ट्स में आया है कि माणा गांव में ग्लेशियर टूटा है, वहां दूर तक कोई ग्लेशियर नही है और यह ताज़ा बर्फ गिरने की वजह से एवलांच आने की घटना है. सुभाष कहते हैं मजदूरों का वहां फंसना घोर लापरवाही का नतीजा है क्योंकि पर्वतारोहण में एक बेसिक बात होती है कि 3000 मीटर से ऊपर एक रात के लिए भी रुकते हो तो देखना होता है कि रुकने वाली जगह के ऊपर ढाल कितने डिग्री पर है, बताया जा रहा है जहां ये मजदूर रुके थे वहां ये लोग कंटेनर में रुके थे. मजदूरों को तो मालूम नही होगा कि कितने डिग्री ढाल के नीचे नही रुकना है पर बीआरओ के अधिकारियों को तो इसकी जानकारी होनी चाहिए कि तीस से पैंतालीस डिग्री वाली ढाल के नीचे कैम्प नही होने चाहिए, ऐसी जगह एवलांच का सबसे ज्यादा खतरा रहता है. बीआरओ पर हिमालय में सड़क के निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी है भविष्य के लिए उन्हें इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है.
(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.














