चलिए, फ्लैशबैक से ही कहानी शुरू करते हैं. अंग्रेजी अखबार गार्जियन का तीन साल पुराना हेडलाइन दिल छू लेने वाला है. हेडलाइन कुछ इस तरह का है - वह दिन, जब डेनमार्क मानो ठहर गया.
कहानी 12 जून, 2021 की है, जब डेनमार्क और फिनलैंड के बीच यूरो 2020 का मैच खेला जा रहा था. मैच के 43वें मिनट में अनहोनी होती है. डेनमार्क के मिडफिल्डर क्रिस्चियन एरिक्सन अचानक मैदान में गिर जाते हैं. टीवी पर प्रसारित विज़ुअल्स के हिसाब से वह एकदम बेजान दिखते हैं - एकदम लाश की तरह.
सहयोगी भी बेखबर. आसपास कोई खिलाड़ी नहीं. कोई चोट की आशंका भी नहीं. फिर एक खिलाड़ी बेजान क्यों गिरा पड़ा है. साथी खिलाड़ियों ने तत्काल एरिक्सन को उठाकर मैदान के बाहर लिटाया. सहयोगियों ने एक ही काम सही किया - सुनिश्चित किया कि आसपास भीड़ इकट्ठा न हो. टीम के डॉक्टर को बुलाया गया. डॉक्टर की पहली प्रतिक्रिया - वह अब नहीं रहे. दिल का धड़कना बंद हो गया है.
अब वापस आते हैं. 16 जून, 2024. रविवार का दिन. यूरो में डेनमार्क का मुकाबला स्लोवानिया से. मैच के 17वें मिनट में जादू हो गया. वही बूट और वही एरिक्सन. स्कोरलाइन : डेनमार्क 1 - स्लोवानिया - 0, गोल करने वाला - क्रिस्चियन एरिक्सन.
दुनिया में मिरेकल होता है, तो यही है वह मिरेकल. यही वे लम्हे हैं, जो भरोसा दिलाते हैं - हार के बाद जीत संभव है. यही वे पल हैं, जो हमे प्रेरणा देते हैं - 'यस, वी कैन'.
साल 2015. कहानी दो बहनों की - छोटी बहन युसरा और बड़ी बहन सारा. दोनों अपने परिवार के साथ दमिश्क में रहती थीं. मन में सपना था ओलिम्पिक तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का, लेकिन उनका देश सीरिया गृहयुद्ध की चपेट में था. उनके लिए पहला वेकअप कॉल - उस स्टेडियम में बम फटना, जहां वे तैराकी प्रतियोगिता में हिस्सा ले रही थीं. अब सपने का क्या करें. सीरिया में रहकर तैराकी हो नहीं सकती, लेकिन ओलिम्पिक का ख्वाब तो पूरा करना ही है. सो तय किया कि दोनों बहनें अपने एक दूर के रिश्तेदार के साथ जर्मनी जाकर शरणार्थी बनने की कोशिश करेंगी, लेकिन यूरोप कानूनी रास्ते से तो जा नहीं सकते, तो करें क्या.
गैरकानूनी रास्ते में मुसीबतें ही मुसीबतें हैं. लेकिन ओलिम्पिक का सपना पूरा करने का तो सिर्फ वही रास्ता है. फिर वे तीनों निकल पड़े अपने सपनों के साथ. पहला पड़ाव तुर्की. वहां से ग्रीस जाने के लिए समुद्र का रास्ता ही तय करना है. सही बोट हो, तो इस रास्ते को 45 मिनट में तय किया जा सकता है, लेकिन उनके भाग्य में डिंगी लिखी थी, और फिर अन्य 17 शरणार्थियों के साथ उसी छोटी-सी डिंगी में सवार हो गए.
मुझे तैरना आता है, लेकिन वह सीन देखकर मेरे में एक ही खयाल आया. अब वे बचने वाली नहीं हैं. ऐसा लिखते हुए भी मैं सिहर रहा हूं, लेकिन उन पर क्या बीत रही होगी, ज़रा सोचिए - किनारे का पता नहीं. और अगर किनारा मिल भी गया, तो क्या भरोसा - पकड़कर जेल में डाल दिए जाएंगे. लेकिन ओलिम्पिक का सपना खींचे जा रहा है. साढ़े तीन घंटे बाद किनारा मिल भी गया, लेकिन उसके बाद नई मुसीबतों का सिलसिला शुरू होता है. यूएन के शरणार्थी शिविर में कुछ खाने-पीने को मिल जाता है, लेकिन जर्मनी तो अब भी दूर है.
बहनों ने फिर दिलेरी दिखाई. एक स्विमिंग क्लब का पता लगाया और निकल पड़ीं कोच से मिलने. लेकिन क्लब में नो वेकेंसी का साइन लगा था. ये लड़कियां कहां हार मानने वाली थीं. कोच को किसी तरह मनाया और फिर तो जो हुआ, वह इतिहास है. शरणार्थी बनने के एक साल के अंदर ही युसरा रियो ओलिम्पिक के लिए क्वालिफाई कर गईं. अब वह खेल से संन्यास ले चुकी हैं, लेकिन वह पेरिस में रिफ्यूजी टीम की चीयरलीडर रहेंगी.
युसरा और एरिक्सन की कहानियों में कॉमन है मिरेकल का होना. और अगर आप इन कहानियों में भरोसा करते हैं, तो आप भी सारी मुसीबतों से लड़ते रहेंगे, और आपको हमसफर भी मिलते रहेंगे.
मैंने भी देखा है कि मुसीबतें - छोटी या बड़ी - आती रहेंगी, लेकिन ऐसी-ऐसी जगहों से साथ भी मिलता रहेगा, जहां से आपने कल्पना भी नहीं की थी. मेरे साथ भी हुआ है - एक नहीं, कई बार. शायद आपके साथ भी - लगातार.
मयंक मिश्रा NDTV में कन्सल्टिंग एडिटर हैं...
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