This Article is From May 27, 2021

भारत में कोरोना से मौत की सही संख्या कितनी होगी?

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Ravish Kumar

क्या हम कभी जान पाएंगे कि भारत में कोरोना से कितने लोगों की मौत हुई है. अलग-अलग मॉडल के आधार पर कोरोना से मरने वालों की संख्या तीन लाख की जगह छह लाख भी हो जाती है और 42 लाख तक भी चली जाती है. अलग-अलग मीडिया संस्थानों के रिपोर्टर गांवों कस्बों में जाकर मरने वालों की संख्या का पता कर रहे हैं तब देख रहे हैं कि सरकारी आंकड़ा बहुत ही कम है. छह लाख की मौत को तीन लाख बता देना और 40 हज़ार की मौत की जगह चार हज़ार बता देने का यह खेल कब रुकेगा. वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के Institute of health metrics and evaluation की वेबसाइट पर ताज़ा अनुमान यह है कि भारत में कोविड से मरने वालों की संख्या 9 लाखसे अधिक हो सकती है. इसी तरह न्यूयार्क टाइम्स ने दर्जन भर एक्सपर्ट के साथ मिलकर तीन अनुमान पेश किए हैं. इसके हिसाब से भारत में कोविड से अब तक मरने वालों की संख्या कम से कम छह लाख होगी, मोटा-मोटी 15 लाख और अधिक से अधिक 42 लाख तक हो सकती है. कोई भी मॉडल सरकार के आंकड़े के करीब नहीं है, बल्कि कम से कम डेढ़ गुना या दुगना तो है ही.

लज़ारो गामियो और जेम्स ग्लांज़ ने इसके लिए भारत में हुए तीनों सीरो सर्वे के डेटा को आधार बनाया है. भारत में संक्रमित मरीज़ों की आधिकारिक संख्या 2 करोड़ 72 लाख है और मरने वालों की आधिकारिक संख्या 3 लाख से कुछ अधिक है. न्यूयार्क टाइम्स ने कम से कम के आधार पर अनुमान लगा कर देखा तो भारत में संक्रमित मरीज़ों की संख्या 40 करोड़ से अधिक नज़र आती है और मरने वालों की संख्या 6 लाख. अखबार के अनुसार जो संख्या ठीक ठीक बैठती नज़र आती है वो है 53 करोड़ से अधिक लगती है और तब मरने वालों की संख्या 16 लाख होगी. अब तीसरा अनुमान ख़राब से ख़राब हालत के आधार पर लगाया गया है. इसके अनुसार 70 करोड़ से अधिक संक्रमित हुए होंगे और मरने वालों की संख्या 42 लाख हो सकती है.

कई देशों में कोरोना से मरने वालों की संख्या पर सवाल उठे हैं. भारत के आंकड़ों को लेकर केवल बाहर की यूनिवर्सिटी में ही नहीं, बल्कि यहां भी शक की नज़र से देखा जा रहा है. लोग भी नोट कर रहे हैं कि सरकारी आंकड़े कम हैं. अगर सरकारी संख्या की विश्वसनीयता इतनी ही होती तो प्रधानमंत्री मोदी को देर से ही सही, यह नहीं कहना पड़ता कि अगर संख्या ज्यादा है तो भी राज्य सरकार को बताना चाहिए. यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलविन्या के पीएचडी छात्र आशीष गुप्ता और मिडिलसेक्स यूनिवर्सिटी लंदन के मुराद बानाजी ने भी गुजरात को लेकर एक अध्ययन किया है. हिन्दू अख़बार में उनका लेख छपा है. गुजरात का सरकारी आंकड़ा है कि एक साल में कोविड से 9,665 लोग मरे हैं. लेकिन आशीष गुप्ता और मुराद बानाजी का अनुमान है कि पिछले 71 दिनों में कोविड से मरने वालों की कुल संख्या 82,500 तक जा सकती है. कहां साल भर में दस हज़ार और कहां 71 दिन में 82 हज़ार से ज़्यादा. आंकड़ों को कितना छुपा लेगी सरकार.

आशीष और मुराद ने दैनिक भास्कर और दिव्य भास्कर की रिपोर्टिंग के आधार पर मरने वालों की संख्या का अनुमान लगाया है. हाल ही में दिव्य भास्कर के मुताबिक गुजरात में 1 मार्च से 10 मई के बीच मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए 1 लाख 23 हज़ार मौतों का पंजीकरण हुआ है. इन 71 दिनों में पंजीकरण की यह संख्या पिछले साल के ठीक इसी समय की संख्या से बहुत अधिक है. पिछले साल 1 मार्च से 10 मई के बीच 58000 मौतों का पंजीकरण हुआ था. तब भी कोविड की लहर थी. इस संख्या के साथ साथ आशीष और बानाजी ने 2015 से 2018 के बीच गुजरात में मौतों के पंजीकरण की औसत संख्या निकाली और पाया कि इस साल जितनी मौतों का अनुमान था उसकी तुलना में 40,000 मौत ज़्यादा हुई हैं. जबकि सरकार कहती है कि इस दौरान 4200 लोग ही मरे. दिव्य भास्कर ने बताया है कि इस साल मरने वालों में 20 प्रतिशत 25 साल से कम थे. आशीष और मुराद ने देखा कि 2018 में 25 साल से कम के नौजवानों के मरने का प्रतिशत 15 था. तो इसी वर्ग में दस प्रतिशत की वृद्धि है. आशीष गुप्ता डेमोग्रेफी एंड सोश्योलजी विभाग में पीएचडी कर रहे हैं और मुराद बानाजी गणित के लेक्चरर हैं.

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आशीष और मुराद ने लिखा है कि कोविड से मौत का आंकड़ा इसलिए भी विश्वसनीय नहीं है क्योंकि कई बार अस्पताल का डाक्टर ही कोविड से मरने पर भी कोविड कारण नहीं लिखता है. घरों में जो मौत हो रही है, उनकी गिनती नहीं हो रही है.

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नदियों में कितनी लाशें बहा दी गईं और उन्हें परंपरा के नाम पर खारिज कर दिया गया. ये शव बिहार के हैं या यूपी के, इस पर बहस हो गई लेकिन कोविड से इनकी मौत हुई है या नहीं, इसकी गिनती नहीं हुई. यही नहीं इसकी जांच तो हो रही है कि प्रयागराज के किनारे दफ्न किए गए शवों से पीली चादरें क्यों हटाई जा रही हैं, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ट्वीट करते हैं कि तीन साल पहले भी ऐसे ही दफनाए गए थे. लेकिन कोई नहीं बता रहा कि इनमें से कितनों की मौत कोविड से हुई है. परंपरा ही है तो तीन साल पहले की क्यों, हर साल की तस्वीर हो सकती है, क्या ये परंपरा मार्च और अप्रैल मई महीने में ही देखी गई है. इन तस्वीरों से इस सवाल का जवाब मिलना चाहिए कि ये शव कोविड के हैं या नहीं. केवल अस्पतालों में होने वाली मौत की गिनती हो रही है उस पर भी सवाल उठ रहे हैं.

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न्यूयार्क टाइम्स के एक्सपर्ट ने भी घरों में होने वाली कोविड मरीज़ की मौत की गिनती को लेकर सवाल उठाया है. बंगलुरु से हमारे सहयोगी नेहाल ने एक रिपोर्ट भेजी है. नेहाल की रिपोर्ट बताती है कि कर्नाटक में होम आइसोलेशन में इलाज करा रहे 700 लोगों की मौत हुई है. ऐसी संख्या की गिनती अगर हर राज्य से होने लगे तो मरने वालों की संख्या कुछ और होगी.

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दैनिक भास्कर ने राजस्थान में कोविड से हुई मौतों को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. 25 ज़िलों के 28 ब्यूरो प्रमुख और 46 संवाददाताओं ने इस रिपोर्ट पर काम किया है. इस रिपोर्ट के अनुसार दैनिक भास्कर की टीम ने जब 512 गांवों और ब्लॉक्स के रिकॉर्ड देखे और अपनी छानबीन की है. गंगानगर में जहां 48 मौतें बताई गईं वहीं वहां के 28 गांवों में ही 50 दिनों के भीतर 517 अर्थियां उठी हैं. 512 गांवों और ब्लाक में 14,482 अर्थियां उठी हैं. कोरोना की दूसरी लहर में राजस्थान में कोविड से मरने वालों का सरकारी आंकड़ा 3918 है. तीन गुना से अधिक का अंतर है. इस हिसाब से देखें तो देश भर के स्तर पर मरने वालों की संख्या तीन लाख से बारह लाख से अधिक हो जाती है. न्यूयार्क टाइम्स का अनुमान बहुत दूर नहीं लगते हैं.

मरने वालों की संख्या रहस्य नहीं है. दुस्साहस है. लोग बता रहे हैं और सरकारें चुप हैं. जब डेटा पर इतना संदेह हो तो फिर इस लड़ाई को झूठ से नहीं जीता जा सकता. बोकारो का एक किस्सा इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है. अरविंद कुमार मास्क में हैं और सिलेंडर के साथ अपनी बैंक शाखा में चले आए हैं. अरविंद के बेटे सिलेंडर को खींच कर ला रहे हैं औऱ साथ में पत्नी है. इस हालत में अरविंद का बैंक आना उनकी जान के लिए खतरा हो सकता था लेकिन वे यह बताने आए हैं ताकि उनके अधिकारी को भरोसा हो सके कि वे वाकई बीमार हैं. अरविंद का कहना है कि दस दिन से बुखार था जिससे वो ठीक हो गए हैं. इसके बाद भी फेफड़े में संक्रमण के बाद ऑक्सीजन सपोर्ट में है लेकिन बैंक के अधिकारी उन्हें काम पर बुलाते हैं. पेमेंट को लेकर भी खींचतान करते है. इसके लिए इस्तीफ़ा भी दे दिया लेकिन मंज़ूर नहीं हुआ. तो इस हालत में बैंक ही आ गए ताकि अफसर को यकीन हो जाए कि अरविंद आक्सीजन सपोर्ट पर हैं.

कोविड के समय में बैंकों में तबादले भी हो रहे हैं और जो कर्मचारी कोविड से मर रहे हैं उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. वित्त मंत्रालय को बताना चाहिए था कि कोविड की दूसरी लहर में कितने बैंक कर्मी ड्यूटी करते हुए संक्रमित हुए और मरे हैं. जब यूपी के शिक्षकों को मुआवज़ा मिल सकता है और आश्रित को नौकरी देने का आश्वासन दिया गया है तो बैंक कर्मियों या दूसरे सरकारी सेवकों के लिए ऐसी नीति क्यों हैं. इसी के साथ यूपी से तीन प्रसंग पेश करना चाहता हूं. अप्रैल के पहले हफ्ते में शामली में कुछ गांव वालों को कोरोना की वैक्सीन के बजाए एन्टी रेबीज़ इंजेक्शन लगा दिया गया था. यह पता तब चला जब कांदला के कम्युनिटी हेल्थ सेंटर पर 72 साल की अनारकली ने टीका लगवाने के बाद एएनएम को अपना आधार कार्ड दे कर कहा कि वह उनका आधार नंबर दर्ज कर लें. अनारकली को एएनएम ने कहा कि "कुत्ता काटने का टीका लगाने पर आधार की ज़रूरत नहीं होती." तब उन्हें पता चला कि उन्हें कुत्ता काटने पर लगने वाली सुई लगा दी गयी है. अब यूपी के सिद्धार्थनगर ज़िले में 20 लोगोँ को कोरोना के टीके की पहली डोज कोविशील्ड और दूसरी कोवाक्सिन लगा दी गयी है.

ज़िले के सीएमओ ने माना कि यह ग़लती हुई है. दोषी पहचान लिए गए हैं उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. लेकिन जिन्हें अलग अलग कंपनियों के टीके लग गए हैं उनका क्या होगा. सिद्धार्थनगर के औदहीकलां गांव के रामसूरत ने बताया कि उन्हें और उनके साथियों को ज़िले के बढ़नी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर 1 अप्रैल को कोविशील्ड लगाई गई थी. 14 मई को उनलोगों को टीके की दूसरी डोज लगाई गई. उनके टीका लगवाने के बाद जब एएनएम ने और टीका मंगवाया तब टीका इशू करने वाले डॉक्टर ने बताया कि उनलोगों को ग़लत टीका लग गया है. ग़लत टीका लगवाने वाले गांव वाले अब किसी अनहोनी से डरे हुए हैं. रामसूरत ने एनडीटीवी से कहा कि "ऐसा लगता है कि शरीर के अंदर कुछ गलत हो गया है. उससे कहीं कुछ हो न जाये?"

तीसरा प्रसंग कानपुर देहात से है और घटना अप्रैल के पहले हफ्ते की है. इंजेक्शन लगाने वाली ANM मोबाइल पर बात करने में इतनी मश्ग़ूल थी कि उसने एक महिला को दो बार टीका लगा दिया. जब महिला ने उनसे पूछा कि "क्या अब दोनों डोज़ एक ही दिन लग रही है." तब उसने महिला से कहा कि "तुम टीका लगवाने के बाद यहां से हटीं क्यों नहीं? यह तुम्हारी ग़लती से दो बार टीका लग गया. देश को चाहिए टीका, बहस हो रही है ट्विटर पर. रात भर लोग अपना अकाउंट चेक करते रहे कि ट्विटर बंद तो नहीं हो गया. ट्विटर को भी झूठ के नीचे झूठ लिखने की ज़रूरत ही क्या थी. सरकार है, आपके सच को झूठ साबित कर दे, लेकिन अपने झूठ को क्यों झूठ कहे. हम एक गंभीर मुल्क हैं लेकिन कोई हमें हल्का काम करने से नहीं रोक सकता. लड़ाई सीमा पर होती है और हम बदला मोबाइल एप से लेने लग जाते हैं. उदाहरण के लिए ले चलता हूं फ्लैश बैक में. तभी पता चलेगा कि हमने ठीक एक साल पहले टिक-टॉक को भी सबक सिखाया था, क्या वैसा ट्विटर के साथ होने वाला है?

जून 2020 का महीना था. तपती गर्मी में तालाबंदी की मार और कोरोना माहामारी सर पर सवार. ख़बर आ रही थी कि चीन की सेना भारत के पूर्वी लद्दाख की सीमा के भीतर आ गई है. झड़प हुई है जिसमें भारतीय सैनिक शहीद हुए हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारी सीमा में कोई नहीं आया. उन्होंने तो उनका नाम तक नहीं लिया. सबने समझा कोई नहीं आया मतलब चीन नहीं आया. रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने भी ऐसा ही कहा. राष्ट्र ने गंभीरता से लिया कि कोई नहीं आया लेकिन तभी खबर आने लगी कि दोनों देश ज़मीन को लेकर बातचीत कर रहे हैं. सीमा पर सैनिक तैनात हैं तो सिविलियन को भी कुछ करना ही था. व्यापारियों की संस्था CAIT ने बहिष्कार के लिए 500 सामानों की सूची बना दी. डिबेट होने लगी. उद्वेलित राष्ट्र कहां विश्राम करता है. नज़र में आ गया टिक टॉक. नेशन के लोग भूल गए थे कि चीन का है, लाकडाउन में घरों में बंद लोग कूद फांद कर वीडियो बना रहे थे, अपलोड करने की तैयारी में ही थे कि टिक-टॉक बंद. सबने नेशन का साथ दिया. निर्णय कड़ा हो तो नेता भी बड़ा होता है. टिक-टॉक से ग्लोबल हो रहे लोकल कलाकार पुन: लोकल हो गए. इसके बाद 267 चीनी एप हमने मोबाइल फोन से उड़ा दिए. नेशन ने टकराव का नया तरीका निकाल लिया. ईंट का जवाब पत्थर से देने के बजाए ईंट का इस्तमाल विकास में करने लगा. चीन से सामानों के आयात की नीतियां कठोर होने लगीं. 3 जुलाई 2020 का दिन भी कड़े निर्णय लेने वाला ऐतिहासिक दिन था. ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने कहा कि चीन से तनाव के बीच भारत वहां से बिजली के उपकरणों का आयात नहीं करेगा. राज्य सरकारों की बिजली कंपनियों से भी कहा कि वे चीन से आयात न करें. मंत्री जी ने कहा कि हम बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई देश हमारी सीमा में घुस आए. बातों- बातों में हमने चीन को इतना कठोर सबक कभी नहीं सिखाया था.

इसका मतलब यह नहीं कि अपने स्टुडेंट को सबक सिखाने के बाद टीचर दोबारा क्लास में नहीं जाएगा. एक साल पहले चीन से आयात पर अंकुश के फैसले को महान बताने वाले मंत्री चीन से आयात पर आंखें मूंदने लगे हैं. आक्रोश की जगह आयात ने ले ली है. चीन से आक्सीजन कंसंट्रेटर और सिलेंडर का आयात होने लगा है.

दिल्ली सरकार ने बताया है कि चीन से छह हज़ार आक्सीज़न सिलेंडर आयात कर लिया गया है. नेशन की नेशनलिस्ट भावनाएं आहत नहीं हुईं. एक साल पहले कहां तो हम चीन के बने एप डिलिट कर रहे थे, एक साल बाद हम चीन के सिलेंडर से आक्सीज़न ले रहे थे. बाई द वे सीमा पर जो विवाद था उसका समाधान फाइनल नहीं हुआ है. You can check with the govt. कर्नाटक ने भी चीन से 200 आक्सीजन कंसंट्रेटर का आयात कर लिया. बहुत से सामान तो वुहान से आए हैं जहां से कोरोना आया था. राजस्थान ने भी कहा है कि चीन से 6900 आक्सीजन कंसंट्रेटर का आयात करेगा. अफसोस की बात है कि इन घोषणाओं के खिलाफ पुतला फूंकने वाले इन दिनों अपनी सोच को पोज़िटिव करने के जुगाड़ में लगे हैं.

क्या आत्म निर्भर भारत आयात निर्भर भारत बनने लगा है? ज़ाहिर है चीन भी अपनी वाहवाही करेगा. बताने लगा कि भारत की अलग अलग कंपनियों ने चालीस हज़ार आक्सीजन कंस्ट्रेटर के आयात का आर्डर किया है. भारत में तैनात चीन के राजदूत ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ग्लोबल टाइम्स को बताया है. 29 अप्रैल को चीनी राजदूत ने ट्वीट किया था, 'चीन से दो हफ्तों के भीतर 61 मालवाहक जहाज़ आए हैं. 5000 से अधिक आक्सीजन सिलेंडर की आपूर्ति हुई है. 21,569 आक्सीजन जनरेटर और 3800 टन दवाओं की आपूर्ति हुई है. 2 करोड़ से अधिक मास्क की भी आपूर्ति हुई है.'

आक्सीजन कंस्ट्रेटर तो ठीक है लेकिन एक साल तक आत्म निर्भर आत्म निर्भर रटने के बाद दो करोड़ मास्क का आयात करना पड़े यह निर्भरता की आत्मा के लिए अच्छा नहीं है. चीनी सामान का विरोध करने वाले इस साल उदार नज़र आ रहे हैं. लोकल की ग्लोबल चेतना जाग गई है.

ऐसा नहीं है कि दूसरी लहर के बाद ही चीन से आयात होने लगा और सरकारें चीन का नाम लेकर बताने लगी कि वहां से आयात कर रहे हैं. पिछले साल करतीं तो पुतला दहन हो जाता मुख्यमंत्रियों का. इस साल 18 मार्च को वाणिज्य राज्य मंत्री हरदीप पुरी ने लोकसभा में एक लिखित जवाब पेश किया. सवाल तृणमूल की सांसद माला रॉय ने पूछा था. हरदीप पुरी ने कहा कि 'जनवरी से दिसंबर के बीच भारत ने जिन देशों से आयात किया है, उनमें चीन अव्वल स्थान पर बना हुआ है. चीन से टेलिकॉम उपकरण, कंप्यूटर हार्डवेयर, उर्वरक, इलेक्ट्रानिक उपकरण और पुर्ज़े, दवाएं, इलेक्ट्रानिक मशीन वगैरह का आयात होता रहा है. चीन से भारत ने 58.71 अरब डॉलर का आयात किया है.

आयात के मामले में नंबर वन चीन ही बना रहा. 2019 में 62.4 बिलियन डॉलर का आयात हुआ तो 2020 में 58.71 बिलियर डॉलर का हुआ. क्या यह कमी आत्मनिर्भर भारत के कारण आई या कोरोना के कारण दुनिया भर में आयात-निर्यात में गिरावट के कारण आई? आप पिछले साल की हेडलाइन निकाल कर देखेंगे तो इस साल की हेडलाइन का खेल समझ आ जाएगा. ट्विटर को लेकर जो प्रसंग छिड़ा है उसे इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है. मामला केवल सरकार की गाइडलाइन के पालन का नहीं है.

जैसे ही आज बुद्ध पूर्णिमा पर प्रधानमंत्री का ट्वीट आया, ट्विटर को लेकर चिन्तित लोगों ने राहत की सांस ली. उन्हें निराशा हुई होगी जो आधी रात को टिक टिक करती घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे कि ट्विटर की हालत टिक-टॉक वाली हो जाएगी.

बेशक गाइडलाइन का मामला अलग है. लेकिन संबित पात्रा के मैन्युपुलेटेड ट्वीट के बहाने जो हो रहा है उस पवर गौर ज़रूर कीजिए मगर कोविड के सवालों से ध्यान मत हटाइये. चकल्लसबाज़ियों से बचिए. खबर आ रही है कि फाइज़र कंपनी की शर्तों पर सरकार ने मंज़ूरी दी है जिसे सरकार ने कभी मना कर दिया था. फाइज़र भी अमरीकी कंपनी है और ट्वि‍टर भी. क्या सरकार वाकई बंद करने की दिशा में आगे बढ़ रही है? कहीं ऐसा न हो कि चीन वाला हाल हो जाए. ज़ोर लगाकर एप बैन करने के बाद हम चीन से आक्सीजन सिलेंडर का आयात कर रहे हैं. नई नई चर्चाओं के बाद भी कोई चर्चा टिक नहीं पा रही है. अब लोग इसी पर चर्चा करने लगे हैं कि चर्चा में लाने के लिए कितनी चर्चा हो रही है. कमबैक, री-मेक, री-लांच एटसेट्रा एटसेट्रा कैसे हो. सवाल पूछते रहिए भले जवाब किसी सवाल का नहीं आ रहा है. बाराती बैठे हैं इंतज़ार में ठीक वैसे जैसे पहले राउंड के बाद दूसरे राउंड की सब्ज़ी नहीं आ रही है.

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