This Article is From Oct 05, 2021

उत्तर प्रदेश या प्रश्न प्रदेश? निरुत्तर देश

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प्रियदर्शन

तीन दिन से लखीमपुर खीरी में जो कुछ हो रहा है, वह संवैधानिक भावनाओं और प्रतिज्ञाओं के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार और भारतीय जनता पार्टी की अक्षम्य और आपराधिक अवहेलना का एक नया उदाहरण है. अब इस बात के कई प्रमाण आ चुके हैं कि लखीमपुर खीरी में उपमुख्यमंत्री को झंडा दिखाने जुटे किसानों पर बाकायदा गाड़ी चढ़ा दी गई. इस हादसे या हमले में 4 किसानों की मौत हो गई. निस्संदेह इसके बाद नाराज़ भीड़ ने जिस तरह एक गाड़ी के ड्राइवर सहित चार लोगों को पीट-पीट कर मार डाला, उसका भी बचाव नहीं किया जा सकता. दरअसल ऐसे उकसावे ही असल इम्तिहान का अवसर होते हैं. अभी-अभी दो अक्टूबर गुज़रा है और गांधी की याद ताज़ा है. अहिंसा किसी भी आंदोलन की रणनीति या मजबूरी नहीं हो सकती, वह उसका बुनियादी दर्शन ही हो सकती है. यह अहिंसा आहत होती है तो आंदोलन आहत होता है. अगर गाड़ी से कुचले जाने के बावजूद किसानों ने पलट कर हमला नहीं किया होता तो उनके विरोध प्रदर्शन की नैतिक साख इतनी ऊंची होती कि दूसरे शर्मिंदा हो जाते.

लेकिन किसानों ने जो किया, उसकी आड़ में यूपी सरकार का भी कहीं से बचाव नहीं किया जा सकता. अगर इस सरकार में थोड़ा सा भी नैतिक साहस और शील बचा होता तो मुख्यमंत्री ख़ुद जाकर किसान परिवारों से मिलते, उनको ढाढस बंधाते, आरोपियों पर क़ानूनी कार्रवाई करते, अपने एक मंत्री से इस्तीफ़ा लेते और भरोसा दिलाते कि यूपी में क़ानून के शासन का सम्मान होता है. मगर यह सम्मान होता कहां है? यहां पहले अपराधियों को संरक्षण दिया जाता है, और फिर जब वे सरकार के लिए ही संकट बनने लगते हैं तो उन्हें फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मार गिराया जाता है. यह मुठभेड़ संस्कृति इतनी आम हो चुकी है कि लोग इसी को न्याय मानने लगे हैं.

लखीमपुर खीरी में प्रशासन के प्रतिनिधि बेशक, किसान नेताओं के साथ बैठे और उन्होंने समझौते का एलान कर दिया. बताया कि मृतकों के परिजनों को 45-45 लाख रुपये मिलेंगे, घायलों को 10-10 लाख रुपये, मामले की हाइकोर्ट के रिटायर्ड जज से जांच कराई जाएगी और आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई होगी.

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पहली बात तो यह कि यह न्याय नहीं समझौता है- वैसा ही समझौता जैसा गोरखपुर के एक होटल में पुलिस द्वारा मारे गए एक व्यवसायी की पत्नी के साथ पिछले हफ़्ते किया गया. इन दोनों मामलों में अभी तक किसी आरोपी की गिरफ़्तारी नहीं हुई है. पहले मामले में पुलिसवाले बस सस्पेंड करके छोड़ दिए गए हैं. दूसरे मामले में इतनी औपचारिकता भर भी नहीं निभाई गई है. यह बात इसलिए ज़्यादा स्तब्ध करने वाली है कि इस मामले में उत्तर प्रदेश के गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र को आरोपी बनाया गया है.

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पुराना समय होता तो अजय मिश्र अपनी ओर से इस्तीफ़ा दे देते. न देते तो कोई मुख्यमंत्री उनसे ले लेता. लेकिन इस्तीफ़ा तो दूर, पिता-पुत्र दोनों टीवी चैनलों में बताते घूम रहे हैं कि इस मामले में उन्हें फंसाया जा रहा है. उनके बचाव को मजबूर बीजेपी प्रवक्ता किसानों के बीच आतंकी और खालिस्तानी खोज रहे हैं और किसानों पर ही तरह-तरह के इल्ज़ाम मढ़ रहे हैं. पुलिस कह रही है कि शवों के पोस्टमार्टम में फंसे रहने की वजह से आरोपियों से पूछताछ नहीं हो पा रही है.

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यह न्याय-प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ का एक डरावना दृश्य है. इस दृश्य को उत्तर प्रदेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ हो रहा खिलवाड़ और डरावना बनाता है. लखीमपुर खीरी में जो कुछ हुआ, वह महज एक आपराधिक वारदात नहीं है. वह सत्ता के दंभ से उपजे विशेषाधिकार के प्रदर्शन का मामला भी है- कि हम अपना विरोध करने वालों को कुचल सकते हैं और हमारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता.

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सत्ता के इस अहंकार को लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही रोक सकती है. स्वाभाविक तौर पर विपक्ष के नेता वहां जाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन बिल्कुल उद्धत ढंग से उन्हें लखीमपुर खीरी जाने से रोका जा रहा है. बताया जा रहा है कि इससे वहां माहौल बिगड़ जाएगा. प्रियंका गांधी दो दिन से यूपी पुलिस की हिरासत में हैं. अखिलेश यादव, सतीश मिश्र, संजय सिंह सहित कई नेताओं को वहां जाने से पहले रोक लिया गया है. और तो और, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को भी लखनऊ हवाई अड्डे से निकलने नहीं दिया गया. एक राज्य का मुख्यमंत्री दूसरे राज्य में प्रतिबंधित है. तर्क दिया जा रहा है कि लखनऊ में धारा 144 लागू है. लेकिन भूपेश बघेल का यह सवाल जायज़ है कि जब इस धारा के बावजूद प्रधानमंत्री का कार्यक्रम हो सकता है तो मुख्यमंत्री को प्रियंका गांधी से मिलने क्यों नहीं दिया जा सकता.

कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि यूपी में न कोई चुनी हुई सरकार है और न ही उसे लोकतांत्रिक मर्यादाओं की परवाह है. ऐसा भी लग रहा है कि बीजेपी के भीतर योगी आदित्यनाथ को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है. या फिर यह भी संभव है कि किसान आंदोलन से नाराज़ बीजेपी मान कर चल रही हो कि लखीमपुर खीरी में जो किया गया, वह सही है. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने बिल्कुल हाल में अपने कार्यकर्ताओं को किसानों की पिटाई का सुझाव दिया है. इसके पहले वे किसानों का सिर फोड़ देने की सलाह देने वाले अफ़सर की पीठ थपथपा चुके हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि बंगाल में अपने नेता के साथ धक्का-मुक्की को पूरा चुनाव खारिज करने का आधार बनाने निकली और कई बार राज्य में राष्ट्रपति शासन की ज़रूरत बता रही बीजेपी के लिए यूपी पहुंचते-पहुंचते पैमाने बदल जाते हैं.

दरअसल यह पूरा मामला आपराधिक है. वरिष्ठ नेता शरद पवार ने लखीमपुर खीरी की तुलना जालियांवाला बाग़ से की है. निस्संदेह जालियांवाला बाग में जितने बड़े पैमाने पर लोग मारे गए, जितनी गोलियां चलीं, उस आधार पर लखीमपुर खीरी से उसकी तुलना नहीं की जा सकती. लेकिन आज़ाद भारत में सत्ता का अहंकार और हनक कुछ वैसे ही हैं जैसे जनरल डायर के भीतर अपने ब्रिटिश साम्राज्य की वफ़ादारी को लेकर रहे होंगे. क्योंकि जो घटना हुई है, उसके पहले गृह राज्य मंत्री अजय सिंह ने बाक़ायदा किसानों को नतीजा भुगतने की धमकी दी थी. क़ायदे से ऐसी धमकी पर ही उन पर कार्रवाई होनी चाहिए थी. लेकिन इस देश में अब लगभग कल्पनातीत हो गया है कि मंत्रियों पर पुलिस हाथ डाल सकती है. उल्टे सरेआम गोली मारो का नारा देने वाले नेता केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए जाते हैं.  

लेकिन इस पूरे मामले में जैसे प्रजातांत्रिक आस्था तार-तार है. जिस पर अपराध का आरोप है, वह खुलेआम बयानबाज़ी कर रहा है, जिस पुलिस बल पर आरोपी को गिरफ्तार करने की ज़िम्मेदारी है, वह नेताओं को रोकने में लगा हुआ है. मुख्यमंत्री सबको न्याय दिलाने का दावा करने के बाद गुम हैं, दूसरे प्रदेश के मुख्यमंत्री को हवाई अड्डे पर इस तरह रोका जा रहा है जैसे वे किसी दुश्मन देश के नेता हों, प्रधानमंत्री लखनऊ में ही समारोह करके लौट रहे हैं और किसानों के इतने गंभीर मामले पर उन्हें कुछ कहने की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही है. उत्तर प्रदेश धीरे-धीरे प्रश्न प्रदेश होता जा रहा है- और देश निरुत्तर है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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