एक अफ़्रीकी कहावत है 'When elephants fight, it is the grass that suffers.' अर्थात जब हाथियों की लड़ाई होती है तो ख़ामियाज़ा घास को भुगतना पड़ता है. आप सोचेंगे मैं ये कहावत क्यों सुना रहा हूं. क्योंकि ये कहावत का बिहार की मौजूदा राजनीति को सीधे-सीधे परिलक्षित करती है. कैसे? बताता हूं. एक तरफ़ नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू और दूसरी तरफ़ अमित शाह और उनकी पार्टी बीजेपी. दोनों के बीच बिहार चुनाव में ठनी थी. जेडीयू राज्य में बड़ी पार्टी रही है लेकिन बीजेपी की कोशिश जेडीयू को जूनियर बनाने की थी. दोनों के बीच शतरंज बिछी थी. बीजेपी ने चिराग़ को मोहरा बना लिया. ऐसा नहीं था कि चिराग़ इस खेल को नहीं समझ रहे थे. वे समझ रहे थे तभी वे मोहरे के तौर पर आगे बढ़े. नीतीश को सीधे निशाने पर रखा. बीजेपी के साथ बने रहे लेकिन जेडीयू को हराने की क़मर कसे रहे. बीजेपी के नेता नीतीश की ख़ातिर चिराग़ को चेताते रहे लेकिन अंदरखाने हरी झंडी भी दिखाते रहे.
चिराग़ ने तक़रीबन 40 सीटों पर वोट काट कर जेडीयू को बीजेपी के जूनियर पार्टनर की स्थिति में ला ही दिया. लेकिन आरजेडी ने इतनी सीटें जीत ली कि वही नीतीश के हाथ में तुरुप जैसा हो गया. बीजेपी नीतीश पर कमान कसती तो वे आरजेडी की राह ले सकते थे. लिहाज़ा बीजेपी ने कोई बाधा खड़ी नहीं की.
नीतीश ने सीएम बनना तो स्वीकार लिया लेकिन अपमान के तमाम घूंट पीने के बाद अब कमान कसने की बारी उनकी थी. उन्होंने अपनी शर्तें रखनी शुरु कीं. लिहाज़ा चिराग़ को बजट पूर्व एनडीए की बैठक में शामिल होने का निमंत्रण मिला तो नीतीश तन गए. फिर चिराग़ को उस बैठक में आने से रोक दिया गया.
लेकिन चिराग़ को बिहार चुनाव में अपनी भूमिका के बदले बीजेपी हाईकमान से काफ़ी उम्मीदें थीं. मां को राज्यसभा, अपने लिए मंत्री पद आदि आदि. लेकिन बीजेपी के लिए नीतीश की ख़ुशी नाख़ुशी ज़्यादा अहम हो गई. ऐसे में चिराग़ की लौ को तेज़ करने से बिहार की गठबंधन सरकार के जलने का ख़तरा था.
इधर नीतीश अपनी गोटियां बिछाते रहे. पहले एलजेपी का एकमात्र विधायक टूटा, (जोकि बीजेपी नहीं चाहती थी), और अब चिराग़ को छोड़ बाक़ी 6 में से पांच सांसद टूट गए. चिराग़ हनुमान की तरह अपना सीना चीर उसमें राम की तरह पीएम मोदी के बसे होने की बात करते थे. मोदी चाहते तो टूट रोक सकते थे.
हो सकता है पीएम मोदी ने चाहा भी हो लेकिन फिर नीतीश को नाराज़ कर उन्हें कोई दूसरी राह लेने का ख़तरा कौन मोल लेता. ख़ासतौर पर पश्चिम बंगाल चुनाव की हार के बाद बिहार गंवाना आत्मघाती राजनीति साबित होती. बीजेपी बंगाल जीत जाती तो फिर बिहार में कई प्रयोग कर पाने की हालत में आ सकती थी.
लेकिन अब तो बिहार में बीजेपी के लिए 'जाहि विधि राखे नीतीश ताहि विधि रहिए' की स्थिति है. इसलिए बीजेपी को चिराग़ कार्ड छोड़ना पड़ा. लेकिन बीजेपी चाहती तो फिर एक बार चिराग़ की मदद कर सकती थी. वह अलग हुए पांचों सांसदों को जेडीयू में विलय हो जाने देती ताकि एलजेपी पर चिराग़ एकछत्र रहें.
लेकिन ऐसी सूरत में जेडीयू के कुल सांसद 21 हो जाते और बीजेपी के 17 ही रहते. विधानसभा में जूनियर लोकसभा में सीनियर हो जाता तो फिर मंत्री पद से लेकर कई समीकरण उल्टा पुल्टा हो जाता. लिहाज़ा हनुमान चिराग़ की न सोच कर बीजेपी के राम ने अपनी सोची. एलजेपी में वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गई.
तो बात यहां से शुरू हुई थी कि हाथियों की लड़ाई में ख़ामियाज़ा घास को भुगतना पड़ता है. चिराग़ घास नहीं हैं. राजनीति के वो युवा दूब हैं जो अपनी जिजीविषा दिखा कर फिर पनप सकते हैं. लेकिन फ़िलहाल तो वे दो हाथियों के बीच की लड़ाई में कुचल दिए गए हैं.
उमाशंकर सिंह NDTV में सीनियर एडिटर, पॉलिटिकल एंड फॉरेन अफेयर्स हैं...
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