This Article is From May 17, 2023

मिथिलांचल : अलग राज्य की मांग मिथिलावासियों के हित में नहीं

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Dr Rajan Jha and Sanjeev Kumar

पिछले कुछ वर्षों से बिहार में मिथिलांचल राज्य की मांग फिर बढ़ रही है, जिसके केंद्र में पिछड़ापन और मिथिला की सांस्कृतिक पहचान है. हिन्दुस्तान में  सांस्कृतिक पहचान के आधार पर प्रशासनिक राज्य के गठन की लड़ाई का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है. देश के अलग-अलग हिस्सों में पृथक राज्य के लिए हुए आंदोलनों में से उत्तराखंड राज्य आंदोलन, और झारखंड आंदोलन दो प्रमुख आंदोलन थे, जिनका आधार सांस्कृतिक पहचान थी. दोनों राज्य पहाड़ और घने जंगलों से भरे हुए थे और न सिर्फ़ भौगोलिक पहचान रखते थे, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पृथक आर्थिक पहचान भी रखते थे.

अंग्रेज़ी काल के दौरान अक्सर नए राज्यों का गठन प्रशासनिक कारणों से हुआ था. उदाहरण के लिए, पूर्वी और पश्चिमी बंगाल का विभाजन, बंगाल से बिहार-ओडिशा का विभाजन और बिहार से ओडिशा का विभाजन आदि. आज़ादी के बाद राज्यों का गठन अलग-अलग मानकों के आधार पर हुआ, जिनमें भाषा का सवाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा. हिन्दुस्तान में आज़ादी के बाद महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों के गठन में भाषाई पहचान ने सर्वाधिक अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि आज़ादी के बाद अन्य पहचानों के आधार पर राज्यों का गठन नहीं हुआ था. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्यों का गठन प्रशासनिक और पृथक भौगोलिक पहचान के आधार पर हुआ था.

झारखंड और उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश समेत उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों का गठन भी पृथक प्रशासनिक पहचान के आधार पर ही हुआ था और उनके विकास की रफ़्तार अब तक उत्तराखंड और झारखंड से बेहतर रही है. वर्ष 2000 में उत्तराखंड और झारखंड की स्थापना हुई. आज भी उत्तराखंड के लोग हिमाचल प्रदेश के विकास मॉडल की तारीफ़ करते हैं और हिमाचल जैसा राज्य बनाने की आकांक्षा रखते हैं.

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उत्तराखंड
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के तीन स्तम्भ पलायन, शराब विरोध और महिला आंदोलन रहे. उत्तराखंड में वर्ष 2001 और 2011 के दौरान शिशु लिंग-अनुपात 967 से घटकर 890 पहुंच गया. इसी दौरान, प्रदेश में महिला साक्षरता में 4 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली, जबकि पुरुष साक्षरता में 6.4 प्रतिशत वृद्धि हुई थी. इसके अलावा, प्रदेश की अर्थव्यवस्था की निर्भरता शराब पर बढ़ती जा रही है.

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राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन लगातार बढ़ रहा है. वर्ष 2011 में उत्तराखंड में कुल 1,048 भूतिया गांव (शत प्रतिशत पलायन वाले गांव) हुआ करते थे, जो आज बढ़कर 2,067 हो गए हैं. पिछले दो दशक के दौरान उत्तराखंड में पलायन किस कदर बढ़ा है, इसका अंदाज़ा सिर्फ़ इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड पूरे हिन्दुस्तान का एकमात्र राज्य है, जहां पृथक पलायन आयोग का गठन हुआ है.

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उत्तराखंड राज्य बनने के बाद प्रदेश में सकल घरेलू विकास दर, प्रति व्यक्ति आय आदि मानकों में विकास तेज़ी से हुआ, लेकिन जिन मुद्दों व मानकों के आधार पर पृथक उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ, उन सभी मानकों पर राज्य और राज्य के लोगों में गिरावट देखी गई है. इस विषय पर कई विस्तृत अध्ययन किए गए हैं, जिनकी विस्तृत चर्चा यहां सम्भव नहीं है.

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झारखंड
इसी तरह वर्ष 2000 में झारखंड को बिहार से अलग कर पृथक राज्य की स्थापना हुई थी. तब बिहार के लोग अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. झारखंड की गलियों में कई ऐसे मुहावरे बोले जाने लगे, जिनमें झारखंड के लोग बिहार के लोगों के विकास पर तंज़ करने लगे थे. इनमें से एक 'अलग होलो झारखंडी, अब पकड़ा सकरकंदी' बिहार और झारखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में काफ़ी प्रसिद्ध हुआ था. लेकिन पृथक झारखंड बनने के दो दशक बाद आज स्थिति अलग है. इन दो दशकों में बिहार की स्थिति झारखंड से बेहतर रही. बिहार में विकास राजनीति का प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा, लेकिन झारखंड अब भी इसके लिए संघर्ष कर रहा है.

पिछले दो दशक से बिहार ने देश की राजनीति में प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है. छात्र राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति तक बिहार ने विकल्प देने की कोशिश की है. आज भी जातिगत जनगणना और विपक्षी एकता के प्रयास में बिहार का राजनीतिक नेतृत्व ही केंद्र में है. ऐसा इसलिए सम्भव हो पा रहा है, क्योंकि बिहार देश का चौथा सर्वाधिक सांसद निर्वाचित करने वाला प्रदेश है.

भारतीय संघवाद और छोटे पृथक राज्य
ऐसे दौर में, जब भारतीय संघवाद की संरचना में केंद्र लगातार राज्यों पर हावी हो रहा है और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र कम हो रहे हैं, किसी भी तरह के छोटे राज्यों का गठन संघवादी व्यवस्था में राज्य सरकारों की नेगोसिएशन शक्ति को कमज़ोर करेगा. राष्ट्रीय राजनीति में आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश का जितना प्रभाव, पकड़ और महत्व है, उतना झारखंड या उत्तराखंड का नहीं है.

उत्तर प्रदेश और बिहार में क्रमशः 80 और 40 लोकसभा क्षेत्र हैं, जबकि इन दोनों राज्यों से अलग होकर पृथक राज्य बनने वाले उत्तराखंड और झारखंड में क्रमशः मात्र 5 और 14 लोकसभा क्षेत्र हैं. आज भी बिहार और उत्तर प्रदेश से दो राजनेताओं - योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार - के बारे में भारत के भावी प्रधानमंत्री होने की सम्भावना पर चर्चा लगातार बढ़ रही है, जबकि उत्तराखंड या झारखंड के किसी राजनेता को केंद्र सरकार में कोई महत्वपूर्ण मंत्रिमंडल दिए जाने पर भी चर्चा नहीं होती है.

इसका प्रभाव यह है कि देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बिहार और उत्तर प्रदेश का दौरा ग़ैर-चुनावी मौसम में भी करते हैं, जबकि इन नेताओं का झारखंड या उत्तराखंड का दौरा चुनावी मौसम में भी नगण्य होता है. पिछले एक वर्ष से भी कम समय के दौरान बिहार में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के कई दौरे हो चुके हैं, जबकि झारखंड या उत्तराखंड का एक भी दौरा नहीं हुआ है. यह बिहार और उत्तर प्रदेश का केंद्र की राजनीति में प्रभाव ही है, जो देश के प्रधानमंत्री को चुनावी दौरों में राज्य के लिए विशेष आर्थिक पैकेज देने का वादा करने पर मजबूर करता है, जबकि उत्तराखंड और झारखंड में सिर्फ़ चुनावी जुमले चलते हैं.

पृथक मिथिला राज्य
वैसे तो पृथक मिथिलांचल राज्य का इतिहास 1881 तक जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से बिहार में मिथिला राज्य की मांग लगातार बढ़ रही है. बिहार के 38 में से 20 ज़िलों में फैला मिथिलांचल अपने विशेष भाषा-साहित्य, कला-संस्कृति, खान-पान, इतिहास आदि के लिए जाना जाता है. महामहोपाध्याय द्वारा रचित यह पंक्तियां मिथिला संस्कृति की पहचान को निचोड़कर एक जगह करती प्रतीत होती हैं...

'पग-पग पोखरि माछ मखान, मधुर बोली मुख में पान'

मिथिला की चार प्रमुख पहचान है मखाना, मछली, मिथिला पेंटिंग और मैथिली भाषा-साहित्य. सांस्कृतिक पहचान के इन चारों क्षेत्रों में मिथिला ने पिछले दो दशक में अभूतपूर्व पहचान बनाई है. मैथिली भाषा और साहित्य बिहार की एकमात्र भाषा है, जिसकी अपनी पृथक लिपि है. वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं सूची में स्थान प्राप्त करने वाली मैथिली भाषा बिहार की पहली और आखिरी भाषा थी. इसी तरह पिछले दो दशक के दौरान मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग को UNESCO में अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली. वर्ष 2009 में भारत सरकार ने मिथिला पेंटिंग को UNESCO की धरोहर सूची में शामिल करने का प्रयास भी किया था.

आज मिथिला हिन्दुस्तान का सर्वाधिक मखाना पैदा करने वाला क्षेत्र है. मिथिला मखाना को 16 अगस्त, 2022 को GI टैग मिला. मखाना बिहार का पांचवां ऐसा उत्पाद है, जिसे GI टैग मिला है. हिन्दुस्तान के कुल मखाना उत्पादन का 90 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ़ बिहार में होता है. मिथिला में मखाना उत्पादन करने वाले किसान मछली उत्पादन में भी संलग्न हैं. पिछले दो दशक के दौरान बिहार में मछली उत्पादन में तीन गुना से अधिक वृद्धि देखने को मिली है, जिसमें मिथिला क्षेत्र का योगदान सर्वाधिक है. वर्ष 2001 के दौरान बिहार में कुल 222.160 टन मछली का उत्पादन हुआ था, जो वर्ष 2022 में बढ़कर 762 टन हो गया. समुद्र के अभाव के बावजूद बिहार हिन्दुस्तान का चौथा सबसे ज़्यादा मछली उत्पादन करने वाला राज्य है.

मिथिला की चार प्रमुख समस्याएं हैं - बाढ़, नेपाल-बांग्लादेश से घुसपैठ, पलायन और यातायात की सुविधा. इन चारों समस्याओं में से बाढ़ की समस्या मिथिला के विकास में सर्वाधिक जटिल है. मिथिला में बाढ़ की समस्या का समाधान ढूंढने के लिए किए गए प्रयासों का इतिहास बहुत पुराना है. अंग्रेज़ी शासनकाल से ही बाढ़ के समाधान के लिए कई आयोग बने और कई प्रयास किए गए, लेकिन यही बात सामने आई कि मिथिला की बाढ़ समस्या के दो ही संभव हल हैं - नेपाल में बांध का निर्माण, और बाढ़ की स्थिति में बिहार प्रशासन द्वारा बाढ़ अलर्ट प्रबंधन में सुधार, ताकि संभावित क्षति को कम से कम किया जा सके.

मिथिला क्षेत्र से होने वाला पलायन और यातायात की समस्या भी बाढ़ की वजह से ही रहती है. अंग्रेज़ी शासन काल में भी ब्रिटिश सरकार की कई रिपोर्टों में यह बात सामने आई थी कि बाढ़ प्रभावित मिथिला में सड़क और रेल यातायात तब तक नहीं सुधर सकता, जब तक बाढ़ की समस्या का समाधान नहीं किया जाएगा.

चूंकि मिथिला में बाढ़ की समस्या का समाधान नेपाल में बांध बनने पर निर्भर है और नेपाल आज़ाद मुल्क है, इसलिए बांध के लिए कोई भी प्रयास सिर्फ़ केंद्र सरकार कर सकती है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार, राज्य सरकारों को अंतरराष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है. इसी तरह, नेपाल और बांग्लादेश से बिहार में होने वाली घुसपैठ को रोकना भी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.

मिथिला की उपरोक्त सभी समस्याओं के समाधान के लिए केंद्र को न सिर्फ़ बिहार सरकार का सहयोगी बनना पड़ेगा, बल्कि प्रमुख भूमिका निभानी पड़ेगी. क्योंकि चाहे बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए नेपाल में बांध बनाना हो, या घुसपैठ से निजात पानी हो, दोनों ही विषयवस्तु पूरी तरह केंद्र के अधीन हैं. राज्य सरकार भी केंद्र सरकार के ज़रिये इन समस्याओं का समाधान करवाने के लिए तभी सक्षम हो सकती है, जब केंद्र की राजनीति में राज्य बेहद मज़बूत ताक़त हो. एक छोटे राज्य के रूप में पृथक मिथिला राज्य की ताक़त केंद्र को किसी प्रकार के समझौते के लिए कमजोर करेगी.

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में पृथक मिथिला राज्य के बजाय विकास-आधारित राजनीति और ईमानदार और सशक्त राजनीतिक नेतृत्व की ज़रूरत है. मिथिला को आज ज़रूरत है ऐसे नेतृत्व और राजनीति की, जो अलगाववाद के बजाय बाढ़, परिवहन, पलायन, रोज़गार और आम लोगों के रोज़मर्रा के मुद्दों को सामने लाए.

संजीव कुमार 'जातिगत जनगणना : सब है राज़ी, फिर क्यूं बयानबाज़ी' पुस्तक के लेखक हैं. डॉ राजन झा दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफ़ेसर हैं, और इन्होंने 'भारत की अफ़ग़ानिस्तान नीति में ईरान फ़ैक्टर' विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, JNU, नई दिल्ली से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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