This Article is From Feb 14, 2022

क्या जालंधर की राजनीतिक रैली में प्रधानमंत्री को सिख पहचान वाली पगड़ी पहननी चाहिए थी? 

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Priyadarshan

जालंधर की रैली (Jalandhar political rally) में प्रधानमंत्री एक नई धज में नज़र आए. उन्होंने सिखों वाली पगड़ी लगा रखी थी. जाहिर है, यह 20 फरवरी को होने वाले चुनाव से पहले सिखों को लुभाने की कोशिश है- उन जैसा दिखने का यत्न. यह अलग बात है कि जालंधर की उस रैली में पगड़ी पहनने वाले  लोग गिनती भर के थे.  लेकिन क्या पगड़ी बस शोभा की वस्तु है? एक दिखावे की चीज़? बहुत सारी पगड़ियां शोभा की वस्तु होती हैं, बहुत सारे साफ़े ऐसे होते हैं जो आप शौक से बांधते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री ने जो पगड़ी बांध रखी थी वह ऐसे शौकीनी से पैदा हुई पगड़ी नहीं है. उसका एक धार्मिक महत्व है. उसके साथ करोड़ों सिखों की आस्था जुड़ी हुई है. यह एक परंपरा है जिसे गुरु गोविंद सिंह ने शुरू किया था.  

क्या यह ठीक है कि चुनाव से पहले प्रधानमंत्री (Prime Minister Narendra Modi ) इस पग़ड़ी का राजनीतिक इस्तेमाल करते? सिख धर्म या सिख गुरुओं से उनकी श्रद्धा में कोई संदेह नहीं हो सकता. वे इस देश के सबसे बड़े नेता हैं और सभी परंपराओं के सम्मान का दावा करते हैं. संभव है, वे यही मान कर आए हों कि सिख उनको पगड़ी में देखकर खुश होंगे और अपने बीच का मानेंगे. वे जहां भी जाते हैं, वहां की स्थानीय पोशाक धारण करते हैं, वहां से अपनी पुरानी पहचान खोज निकालते हैं और संभव हो तो वहां की भाषा भी बोलने की कोशिश करते हैं. यह इस देश की विविधता को जज़्ब करने की कोशिश का हिस्सा हो सकता है. 

लेकिन फिर दोहराना होगा, पगड़ी का मामला अलग है. सिख पंथ अपने समय के धार्मिक पाखंडों, और कठमुल्लेपन के ख़िलाफ़ एक सात्विक विद्रोह के रूप में उभरा था. यह तात्कालिक हिंदुत्व और इस्लाम दोनों के समानांतर एक अलग और साफ़-सुथरी धार्मिक व्यवस्था बनाने की कोशिश का नतीजा था. इसीलिए 1699 की बैसाखी में अनंतपुर में गुरु गोविंद सिंह ने अपने अनुयायियों को खालसा का नाम दिया- ख़ालसा- यानी शुद्ध और पवित्र. तभी गुरु गोविंद सिंह ने उनके पांच पवित्र चिह्न और प्रण निर्धारित भी कर दिए. आजीवन केश न कटाने और पगड़ी पहनने का प्रण इन्हीं में से एक है और यह सिखों की धार्मिक परंपरा का सबसे बड़ा प्रतीक है. जाहिर है, इस प्रतीक के साथ किसी भी तरह का समझौता, उसका किसी और रूप में इस्तेमाल सिखों को अपने लिए अपमानजनक लगता है. 

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बेशक, सिखों के भीतर अपनी तरह की उदारता भी है. उनके गुरुद्वारे हर किसी के लिए जैसे खुले हैं. जहां भी वे किसी समुदाय को संकट में देखते हैं, वहां मदद के लिए पहुंच जाते हैं. कोविड काल में कई गुरुद्वारे लोगों की सेवा में अस्पतालों से ज़्यादा लगे दिख रहे थे.उनकी पगड़ी जो चाहे वह पहन सकता है. प्रधानमंत्री भी चाहें तो आस्था से यह पगड़ी बांध सकते हैं.  
लेकिन खलने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषण के लिए यह पगड़ी बांधी. यह पगड़ी से जुड़ी सिख आस्था का अपमान तो है ही, भारतीय लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्षता का भी अपमान है. आप एक चुनावी रैली के लिए जाते हैं तो आपको किसी धार्मिक पहचान को धारण करने से बचना चाहिए. संकट यह है कि भारतीय राजनीति के मौजूदा माहौल में यह वाक्य आदर्शवादी कम, हास्यास्पद ज़्यादा लगता है. फिलहाल तो धर्म के आधार पर चुनाव हो रहे हैं. राम मंदिर की याद दिलाई जा रही है, मथुरा-काशी के नारे लगाए जा रहे हैं, 80 बनाम 20 का समीकरण बताया जा रहा है. इस घनघोर सांप्रदायिक माहौल में राजनीति को, और वह भी- बीजेपी की चुनावी राजनीति को- धर्म और धार्मिक पहचान से अलग रखने की चाहत ऐसी सदिच्छा है जिसका कोई मोल नहीं है. 

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बेशक, भारतीय प्रजातंत्र को भारतीय विविधता को भी अपने में समाहित करना चाहिए. कोई नेता पंजाब में पंजाबी पोशाक पहने, हिमाचल में हिमाचली, कश्मीर में कश्मीरी, बिहार में भोजपुरी बोलने की कोशिश करे, दक्षिण भारत में तमिल, कन्नड़, मलयालम बोले- यह प्यारी सी बात है. लेकिन इसे बस दिखावा नहीं होना चाहिए. बस सजावट से आप दिल नहीं जीत सकते. वेल्लारी से सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने पहुंचीं सुषमा स्वराज के कन्नड़ वाले भाषण ख़ूब चर्चा में रहे. लेकिन वे हार गईं. दरअसल समझने की बात यह है कि विविधता का मतलब किसी क्षेत्र में जाकर वहां की बोली-बानी की नकल करना नहीं है, वहां अपने लिए स्वीकृति का एक माहौल बनाना है. कन्नड़ बेल्लारी अगर हिंदीभाषी नेता को जीत दिलाती है तो यह विविधता का सम्मान है. कर्नाटक में सिर्फ़ कन्नड़ बोलने का आग्रह इस विविधता के विरुद्ध है. 

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पगड़ी और प्रधानमंत्री पर लौटें. ज़्यादा दिन नहीं हुए, इसी पंजाब में अपनी रैली न कर पाए प्रधानमंत्री ने लौटते हुए बठिंडा हवाई अड्डे पर खड़े अफ़सरों से व्यंग्य पूर्वक कहा था कि अपने मुख्यमंत्री को धन्यवाद देना कि मैं ज़िंदा लौट आया. यह घनघोर राजनीतिक बयान था. हुआ बस इतना था कि एक फ़्लाई ओवर पर प्रधानमंत्री के काफ़िले के आगे कुछ किसान अपनी गाड़ियों के साथ जुट गए थे. वे पूरी तरह अहिंसक थे और बस उन्हें कुछ मिनट में हटाया जा सकता था. लेकिन प्रधानमंत्री ने लौटने का फ़ैसला किया और अपनी हताशा में यह कड़वाहट भी शामिल कर दी कि इसी पंजाब के किसानों की वजह से उन्हें तीन कृषि क़ानून वापस लेने पड़े हैं.  

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अब उस पंजाब को प्रधानमंत्री पगड़ी बांध कर लुभाना चाहते थे. यह देश पिछले सात साल में प्रधानमंत्री को तरह-तरह की पोशाकों में देख रहा है. बंगाल का चुनाव होता है तो वे टैगोर जैसे दिखने लगते हैं, उत्तराखंड में वे कुछ और नजर आते हैं. फिर दोहराना चाहिए कि यह उनका अधिकार है. लेकिन सिख आस्था की पगड़ी पहन कर उन्होंने इस अधिकार का एक हद तक अतिक्रमण किया है. यह राजनीति में पिछले दरवाज़े से धार्मिक आस्था की घुसपैठ की कोशिश है जिसके लिए उन्हें खेद जताना चाहिए- सिखों से भी और भारतीय नागरिकों से भी.