पहाड़ से जुड़े हर विषय को अपनी यात्रा से समेटते शेखर पाठक

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Himanshu Joshi

पहाड़ों से जुड़े हर गंभीर प्रश्न इस किताब में पढ़ने को मिलते हैं, मनुष्यों द्वारा वहां छोड़ी गई गंदगी, पहाड़ों में हो रहे अतिक्रमण, बेतरतीब निर्माण को जानना इस यात्रा की देन है.

पहाड़ों की तरफ पड़ता पहला कदम ही रोमांचित करता है

प्रदीप पांडे की खींची तस्वीरों के साथ पहाड़ों की दुनिया में ले जाती 'हिमांक और क्वथनांक के बीच' किताब 'बब्बन कार्बोनेट' जैसी लोकप्रिय किताब प्रकाशित करने वाले नवारुण प्रकाशन से छप कर आई है. उत्तराखंड के 'इनसाइक्लोपीडिया' कहे जाने वाले इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक इस किताब के लेखक हैं.

गंगोत्री-कालिंदीखाल-बद्रीनाथ में की गई यात्रा के बारे में पढ़ने की उत्सुकता किताब के कवर पेज से ही होने लगती है, लेखक ने इसको 13 हिस्सों में बांटा है. लेखक ने अपनी अस्कोट आराकोट यात्राओं का लाभ इस यात्रा में पूरी तरह से लिया है. किताब लिखते वह उस यात्रा के साथियों को याद करते रहते हैं.

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इतिहास की परतों के साथ प्रकृति का जीवंत दस्तावेज

यात्रा करते लेखक प्रकृति का स्वरूप ठीक वैसे ही लिखते हैं, जैसा वह देख रहे हैं, उनकी लिखी यह पंक्ति भागीरथी का प्रवाह पाठकों के मन में करवा देती है 'उत्तरकाशी में भागीरथी जरा सा उत्तर पश्चिम दिशा में वरुणावत पर्वत की जड़ पर आधा वृत बनाकर बहती है.'

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लेखक इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं और यात्राओं से उत्तराखंड को लेकर उनकी गहरी समझ किताब में जगह-जगह पढ़ने को मिलती है. '1960 में जिला मुख्यालय बनने से पहले यह छोटी बस्ती बाड़ाहाट कहलाती थी और मुख्यतः विश्वनाथ मंदिर, बुद्ध प्रतिमा और धातु त्रिशूल स्तंभ के लिए प्रख्यात थी.'

पेड़ के साथ संवाद से झलकती है पर्यावरण की चिंता

लेखक का प्रकृति से जुड़ाव कितना गहरा है यह हम पृष्ठ संख्या 42 में देख सकते हैं 'जड़ से दो और ऊपर चार शाखाओं में फैला यह पेड़ शायद हमसे अपनी दास्तान कहना चाहता था कि हमारा भी ख्याल करो. हमें चूल्हे में जलने से बचाओ. हम इंधन में जलने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम यहां रह कर करते हैं.' लिखकर वह उस रास्ते में आने वाले वृक्षों, नदियों की आवाज बने हैं, जो अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में किसी को बता नहीं सकते.

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लेखक ने अपनी इस यात्रा के दौरान पहाड़ों की साफ-सफाई की महत्ता पर भी विचार किया और किताब में इसके बारे में जगह-जगह पढ़ने को मिलता है.  हमारी शिक्षा व्यवस्था में पर्यावरण के संरक्षण को लेकर पढ़ाई-लिखाई न्यूनतम है और किताब के जरिए लेखक ने इस मुद्दे को उठाया है, वह लिखते हैं 'प्रकृति अपनी मरम्मत भी करती रहती है. आधुनिक अभियंता यह सब काम जानते हैं और हमारे संस्थान उन्हें यह सब सिखाते भी नहीं.'

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पहाड़ों के लोगों और व्यक्तित्वों का जीवंत चित्रण

नागार्जुन, राहुल सांकृत्यायन, स्वामी सुंदरानंद जैसी शख्सियतों के बारे में बताते हुए लेखक ने पहाड़ों को लेकर उनके काम पर प्रकाश डाला है, जिसके बारे में जानना महत्वपूर्ण है. इसके साथ 'सेवन ईयर्स इन तिब्बत' जैसी किताब पर भी वह बात करते रहते हैं.

'अब हम शुद्ध प्रकृति में आ गए, एक बड़ी बड़ी आंखों वाले चूहे ने प्रकट होकर हमारा स्वागत किया. यह भय और गुस्सा प्रकट करना भी हो सकता था.' इस तरह की पंक्तियां लिखते हुए लेखक ने पाठकों को अपना सहयात्री बना लिया है.

'शाम को चांद वाला आसमान भी तो देखना था और भागीरथी शिखरों से चांद का प्रकट होना और उनके ऊपर से गुजरना भी.' यह लिखते हमें लेखक की वह लालसा समझ आती है, जिससे वह खतरा होने के बावजूद इस तरह की यात्रा करते हैं और यह लिखकर वह अपने साथ पाठकों को भी पहाड़ की तरफ खींचते प्रतीत होते हैं.

विकास के नाम पर विनाश की पड़ताल और मानवीय पहलू का मिश्रण

पहाड़ों से जुड़े हर गंभीर प्रश्न इस किताब में पढ़ने को मिलते हैं, मनुष्यों द्वारा वहां छोड़ी गई गंदगी, पहाड़ों में हो रहे अतिक्रमण, बेतरतीब निर्माण (टिहरी झील पर विस्तार से लिखना) को जानना इस यात्रा को देन है. हिमालय में काम करने वाले नेपाली श्रमिकों की समस्या पर बहुत कम बातचीत की जाती है, लेखक ने अपनी यात्रा के दौरान इन्हें करीब से देखा है और पृष्ठ संख्या 198-199 में इस विषय पर विस्तार से लिखा है.

इन सब के बीच पृष्ठ संख्या 191 में पदम् सिंह का किस्सा पाठकों को हंसने का मौका देता है और उन्हें ऊबने से भी बचाता है. पहाड़ की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासतों का वर्णन भी किताब में बड़ी रोचकता के साथ किया है, तस्वीरों ने भी अपनी तरफ ध्यान खींचा है.

शिक्षा, सौंदर्य और साहसिकता का समन्वय है यह यात्रा

किताब की भाषा ऐसी लगती है जैसे हम किसी पाठ्यपुस्तक को पढ़ रहे हैं और उसका पूरा कोर्स शिक्षक हमें पास ही बैठकर समझा रहा है, इसे पढ़ते पाठक पहाड़ की सुंदरता पर मोहित भी होते हैं और पहाड़ का मौसम उन्हें डराता भी है.

'बहुत कम यात्रियों को यह ध्यान रहता है कि गंगोत्री एक प्रयाग (संगम स्थल) भी है.' पहाड़ पर ज्ञान बढ़ाता है तो 'ऊंचाई और अंधकार मिलकर हमारा भ्रम बढ़ा रहे थे. इन दोनों का संयुक्त मोर्चा किसी को भी ध्वस्त कर सकता था. कोई भी निर्णय लेने में देर लगती थी.' इस यात्रा की कठिनाइयों से परिचित करवा देता है.

यात्रा में अपने खोए हुए साथियों के परिवार को तो लेखक याद कर ही रहे हैं, साथ ही वह खुद की मनोदशा को भी पाठकों तक पहुंचा रहे हैं. यह किताब उन पाठकों के लिए हैं जो हमेशा पहाड़ की किसी साहसिक यात्रा का सपना देखते हैं, यह किताब उनके लिए भी है जो कभी पहाड़ नहीं जा पाए.

पहाड़ पर लिखे साहित्य को पढ़ने से लेखक ने इस यात्रा का पूरा आनंद लिया है और उनकी इस किताब को पढ़कर भविष्य में पहाड़ को समझने, उनमें उतरने वाले लोग पहाड़ की यात्रा पर निकलने का अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं. किताब कुछ पाठकों के लिए बोझिल हो सकती है, विशेषतः उन लोगों के लिए जो सरल यात्रा-वृत्तांत पढ़ने के आदी हैं. कई बार ऐतिहासिक संदर्भ और विस्तृत विवरण विषय से थोड़ा भटका देते हैं.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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