केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन पिछले साल हाथरस में हुए बलात्कार और हत्या के एक केस को कवर करने जा रहे थे. पिछले साल अक्टूबर में सिद्दीक कप्पन और तीन अन्य को शांति भंग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और बाद में उन पर UAPA की दो धाराएं लगा दी गईं. राजद्रोह की भी धारा लगाई गई है. इस केस में अतीक उर्र रहमान, मसूद अहमद और आलम को भी गिरफ्तार किया गया है. सिद्दीक कप्पन की मां 18 जून को गुजर गईं. सिद्दीक ने मथुरा कोर्ट में जमानत याचिका लगाई है जिसकी सुनवाई 5 जुलाई को होगी. अपने आवेदन में कप्पन ने कहा है कि मैं पत्रकार हूं. मैंने भारतीय प्रेस परिषद के परिभाषित दायरे से बाहर जाकर कुछ भी गलत नहीं किया है, मैं निर्दोष हूं.
सिद्दीक कप्पन 8 महीने 22 दिन से जेल में बंद हैं. इन पर शांति भंग करने का भी आरोप लगा था कि कप्पन, अतीक-उर-रहमान, मसूद अहमद, और आलम, दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे. छह महीने में भी पुलिस ये नहीं बता पाई कि ये लोग किस तरह शांति भंग कर रहे थे. सबूत न होने पर मथुरा कोर्ट ने इस आरोप को रद्द कर दिया. क्या अब भी आपको प्रमाण की जरूरत है कि किस तरह से UAPA का इस्तेमाल लोगों को बिना जमानत के जेल में सड़ाने के लिए किया जा रहा है. असम में भी अखिल गोगोई को इसी तरह के आरोप से NIA कोर्ट ने बरी कर दिया है.
इस कहानी को समझने के लिए पहले फ्लैशबैक में जाना होगा. 2019 के नवंबर-दिसंबर और 2020 की जनवरी-फरवरी में. असम की यूनिवर्सिटी में आक्रोश फैल गया कि नागरिकता कानून के ज़रिए बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को नागरिकता दी जा रही है जबकि उनकी लड़ाई इस बात को लेकर थी कि सभी विदेशी नागरिक चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान हों, असम से जाएं. असम के मूल निवासियों को लगा कि यह कानून सांप्रदायिक है. असम का प्रदर्शन अलग कारणों से हिंसक हो उठा. मंत्रियों के घर पर भी हमले हुए. इस कारण प्रधानमंत्री मोदी और जापान के प्रधानमंत्री के बीच होने वाला शिखर सम्मेलन तक रद्द हो गया. लंबे समय तक गृह मंत्री भी असम का दौरा नहीं कर सके थे. देश के दूसरे हिस्सों में नागरिकता कानून के प्रदर्शन को उकसाने की बहुत कोशिश हुई, गोलियां चलवाई गईं लेकिन आंदोलन शांतिपूर्ण रहा. उत्तर भारत और शेष भारत में यह आंदोलन संवैधानिक प्रदर्शन का नायाब उदाहरण बनता जा रहा था. भारत के किसी भी आंदोलन में इतने व्यापक पैमाने पर संविधान की प्रस्तावना का पाठ नहीं किया गया होगा. उत्तर भारत का गोदी मीडिया इस आंदोलन को केवल मुसलमानों का बता रहा था जबकि असम के आंदोलन के कारणों पर चुप्पी लगा गया. दिल्ली में चल रहे आंदोलन को भड़काने की कितनी कोशिश हुई, शाहीन बाग के आंदोलन पर गोली चलाने की कोशिश हुई, उसे लेकर तरह-तरह की भड़काऊ बातें हुईं लेकिन हिंसा नहीं हुई.आंदोलनकारी जानते थे कि हिंसा से उनका मकसद पूरा नहीं होता है इसलिए वे संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे थे. उनके आंदोलन का प्रतीक संविधान की किताब थी. वहां से कई किलोमीटर दूर पूर्वी दिल्ली के इलाके में दंगा होता है. दिल्ली में जो दंगा हुआ उससे किसका मकसद पूरा हुआ आप समझ सकते हैं और उस दंगे के बहाने जो गिरफ्तारियां हुईं उससे किसका मकसद पूरा हुआ. इस आंदोलन के खिलाफ गोली मारो के नारे लगाने वाले भी थे जिनकी न तो गिरफ्तारी हुई और न UAPA लगा. लेकिन हिंसा के बहाने उन छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया जो इस आंदोलन के समर्थक थे और प्रदर्शन में शामिल थे. उनमें से कइयों पर UAPA लगा दिया गया.
दशकों हिंसक संघर्ष के बाद जिस असम के लिए नागरिकता कानून लाया गया उस कानून के आने के बाद जब असम में पहला विधानसभा चुनाव हुआ तो कानून लाने वाली बीजेपी ने घोषणा पत्र में इसका ज़िक्र तक नहीं किया. चुनावी भाषणों में इससे दूर ही रही. चुनावी मजबूरी आई तो तमिलनाडु में नागरिकता कानून का विरोध करने वाले लोगों को मुकदमे दर्ज करने वाली बीजेपी की सहयोगी एआईडीएमके के मुख्यमंत्री ने 1500 केस वापस ले लिए. ऐसा तो बाकी राज्यों में हो ही सकता है लेकिन नहीं हो रहा है. बहरहाल असम में हुई हिंसा के बहाने कई ऐसे लोगों पर UAPA लगा दिया गया जिन्हें बाद में सबूतों के अभाव में बरी करना पड़ रहा है.
अखिल गोगोई के मामले में NIA कोर्ट के जज प्रांजल दास ने अपने फैसले में कहा है कि रिकार्ड पर जो दस्तावेज़ पेश किए गए हैं और जिन पर चर्चा हुई है, मैं सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इन सभी साक्ष्यों के आधार पर नहीं कहा जा सकता कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को ख़तरा पहुंचाने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई या लोगों को आतंकित करने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई. इसलिए अखिल गोगोई के खिलाफ आरोप तय करने का कोई मामला नहीं बनता है.
पूरे देश को पता था कि नागरिकता कानून का विरोध हो रहा है. प्रदर्शन हो रहे हैं, फिर भी आतंक से जोड़ा गया ताकि इसके बहाने गोदी मीडिया आपको डिबेट में उलझाए रखे और आयोजकों को लंबे समय तक जेल में रखकर आंदोलन को खत्म कर दिया जाए. अखिल गोगोई पर छाबुआ थाना और चांदमारी थाना में केस दर्ज हुआ था. दोनों में UAPA के तहत आरोप लगाए गए थे. छाबुआ थाना केस में NIA कोर्ट ने अखिल गोगोई, जगजीत गोहेन और भूपेन गोगोई को बरी कर दिया है. 12 दिसंबर 2019 से लेकर आज तक इन लोगों को ऐसे आरोपों के तहत जेल में रखा गया जिसे साबित करने के लिए NIA जैसी पेशेवर एजेंसी भी सबूत पेश नहीं कर पाई. शिबसागर विधानसभा की जनता अखिल गोगोई को अपना विधायक चुन लेती है.
NIA कोर्ट ने कहा कि अखिल गोगोई के भाषणों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे लगता हो कि वे हिंसा फैलाने की कोशिश कर रहे थे. इसी तरह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के बाहर इसी कानून के खिलाफ भाषण देने पर डॉ कफील ख़ान के खिलाफ NSA लगा दिया जाता है जिसके कारण सात महीने दस दिन जेल में रहना पड़ा. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने डॉ कफील खान के केस में भी यही कहा कि उनके भाषण में भड़काने वाली बात कुछ नहीं है. नताशा नरवाल, देवांगाना कालिता और आसिफ तन्हा को ज़मानत देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन करना ग़ैर कानूनी नहीं है और न ही आतंकी कार्रवाई है. भड़काऊ भाषण और चक्का जाम करना ऐसे अपराध नहीं हैं कि Unlawful activities prevention act UAPA की संगीन धाराएं लगा दी जाएं. दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि UAPA के तहत आतंक की परिभाषा इतनी भी व्यापक नहीं होनी चाहिए कि सामान्य अपराध को भी आप आतंकी धाराओं में डाल दें. देश की अदालत कह रही है कि आतंक की परिभाषा व्यापक की जगह स्पष्ट होनी चाहिए. सरकार को याद नहीं कि प्रधानमंत्री भी यही बात कहते हैं. यहां नहीं, दुनिया के मंच पर.
21 जून को कपिल सिब्बल ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता की सुरक्षा वाले विशेष प्रावधानों में आतंकवादी गतिविधियों को परिभाषित किया है. बताया है कि किसी कार्रवाई को आतंकी कार्रवाई कहने के लिए किन बातों का होना ज़रूरी है. घातक हथियार का इस्तेमाल होना चाहिए, लोगों को आतंकित करने का मकसद होना चाहिए, सरकार या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को रोकने के लिए होना चाहिए. कपिल सिब्बल कहते हैं कि UAPA में जो व्यापक परिभाषा दी गई है वह इससे मेल नहीं खाती है.
सिब्बल का लेख इसी संदर्भ में है कि UAPA का इस्तेमाल लोगों को डराने धमकाने और किसी का जीवन बर्बाद करने के लिए किया जा रहा है. आतंक से लड़ने के नाम पर बना यह कानून सरकार के आतंक का हथियार बन गया है. राज्यसभा में कर्नाटक से कांग्रेस सांसद सैय्यद नासिर हुसैन ने सवाल पूछा था कि कितने लोग UAPA के तहत जेल में बंद हैं, इनमें से अनुसूचित जाति, जनजाति पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक कितने हैं. महिलाएं कितनी हैं, ट्रांसजेंडर कितने हैं. पांच साल में कुल कितने लोग गिरफ्तार हुए हैं और कितने लोगों को सज़ा मिली है.
जवाब में गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा कि 2019 में UAPA के तहत 1948 लोग गिरफ्तार किए गए हैं. 2016 से 2019 के बीच 5922 लोग गिरफ्तार हुए और सज़ा केवल 132 लोगों को मिली है. इसका मतलब हुआ कि UAPA के तहत जितने केस दर्ज हुए थे, केवल 2 प्रतिशत मामलों में सज़ा हुई. 9 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट फाइल हुई है. क्या सरकार इस तरह से आतंक से लड़ रही है? इसी पर सिब्बल ने लिखा है कि 91 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट दायर न होना बताता है कि इसका मकसद किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के बाद ज़मानत से रोकना था.
यही नहीं किसी मामले में चार साल तो किसी में आठ साल से आरोप पत्र दायर नहीं हुए हैं. आतंक के नाम पर NIA जैसी पेशेवर एजेंसी का इस्तेमाल धरना प्रदर्शन करने वालों के खिलाफ हो रहा है ठीक उसी तरह जैसे ED का इस्तेमाल चुनाव के समय विरोधी दल के समर्थकों के यहां होता है. हमारे सहयोगी निहाल ने कर्नाटक से एक और रिपोर्ट भेजी है. यहां की जेलों में UAPA के तहत 27 ऐसे आरोपी 8 साल से जेलों में बंद हैं जिनका अभी तक ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ है.
रिलायंस एनर्जी के लिए बीस साल काम करने वाले सैदुलु सिंगापांडा को 2018 में गिरफ्तार किया जाता है और UAPA लगा दिया जाता है. कि वे आतंकी संगठन (CPI-M) के सदस्य हैं. सिंगापांडा को किसी और की जगह गलती से गिरफ्तार कर लिया गया था. लंबे समय तक जेल में रहने के बाद ज़मानत मिली है.
इस कानून को लेकर सवाल उठ रहे हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि आतंक को परिभाषित किया जाए, धरना प्रदर्शन को आंतक की कार्रवाई में नहीं रखा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी पर विचार किया जाएगा. केंद्र सरकार का कहना है कि हाई कोर्ट ने तो इस कानून को उल्टा ही खड़ा कर दिया है. अब सब इस आधार पर बेल मांगेंगे. लेकिन आपने अभी देखा कि अखिल गोगोई को बेल इसलिए मिली कि बिना आधार के UAPA में गिरफ्तार किया गया.