This Article is From May 04, 2022

अपनी ही प्रेस से दूर होते प्रधानमंत्री, अपने ही शब्दों से अनजान होती जनता

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Ravish Kumar

आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है. आज के दिन प्रधानमंत्री मोदी जर्मनी की राजधानी बर्लिन में हैं. भारत और जर्मनी के बीच 14 समझौतों पर दस्तख़त हुए हैं. इनकी घोषणा के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जर्मनी के चांसलर श्कोल्ज़ प्रेस के सामने हाज़िर हुए. दुनिया भर के पत्रकार इन समझौतों और यूक्रेन युद्ध को लेकर सवाल जवाब का इंतजार कर रहे थे लेकिन उन्हें बताया गया कि प्रेस कान्फ्रेंस में सवाल जवाब नहीं होगा. 

समाचार एजेंसी रायटर ने इस घटना पर अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में एक भी प्रेस कान्फ्रेंस नहीं की है, आज उन्होंने लिखित बयान पढ़ने के बाद कोई सवाल नहीं लिया. हम आपको बता दें कि प्रेस की स्वतंत्रता की रैकिंग में जर्मनी का स्थान 16 वां है और यहां से प्रधानमंत्री डेनमार्क गए हैं जिसका स्थान दुनिया में दूसरा है. क्या वहां भी प्रेस कान्फ्रेंस नहीं करेंगे? जर्मन विदेश प्रसारण सेवा डोएचे वेले के चीफ इंटरनेशनल एडिटर रिचर्ड वाल्कर ने एक तस्वीर के साथ ट्वीट किया है और लिखा है कि - मोदी और स्कोल्ज़ बर्लिन में प्रेस के सामने हाज़िर होने वाले हैं. दोनों 14 समझौतों की घोषणा करेंगे. भारतीय पक्ष के आग्रह पर दोनों ज़ीरो सवाल लेंगे. उन्होंने एक और ट्वीट किया जिसमें लिखा कि RSF प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत आज 142 नंबर से फिसल कर 150 वें नंबर पर आ गया है. 

इस रैकिंग पर भारत सरकार का आधिकारिक जवाब है कि वह इसे नहीं मानती है. इस रैकिंग को लेकर 2013 और 2022 में भारत की संसद में सवाल पूछे गए थे. कांग्रेस और बीजेपी की सरकारों के मंत्रियों के जवाब में बहुत अंतर नहीं है. दोनों ने स्वीकार नहीं किया कि प्रेस की स्वतंत्रता का इतना बुरा हाल है. डोएचे वेले के इंटरनेशनल एडिटर लिख रहे हैं कि भारत के आग्रह पर तय हुआ कि प्रेस कान्फ्रेंस में एक भी सवाल नहीं लिया जाएगा. आज वैसे विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है. जब सवाल जवाब का सामना ही नहीं करना था तब प्रेस के सामने हाज़िर होने की औपचारिकता भी छोड़ी ही जा सकती थी. ऐसा लग रहा है कि लोकतंत्र की परिभाषा से प्रेस और प्रेस का सवाल करना दोनों बाहर कर दिया गया है. सितंबर 2021 में प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका के दौरे पर थे. अमेरिकी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मोदी प्रेस के सामने हाज़िर होते हैं लेकिन वहां भी सवाल-जवाब से मना कर दिया जाता है.अगर बाइडेन ने कहा भी कि सवालों के जवाब नहीं दिए जाएंगे तब प्रधानमंत्री मोदी को क्यों कहना था कि वे इस बात से सहमत हैं.

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इस बात को लेकर अमेरिकी प्रेस में हंगामा मच गया. व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव जेन साकी को काफी सफाई देनी पड़ी. अमरिकी पत्रकारों ने पूछा कि अमेरिकी प्रेस की तुलना भारतीय प्रेस से क्यों की गई. तब प्रेस सचिव ने कहा कि राष्ट्रपति बाइडेन ने अमरिकी प्रेस का अपमान नहीं किया है. इतना कहा है कि कभी सही बिन्दु पर सवाल नहीं करता. एक अमरिकी पत्रकार ने प्रेस सचिव जेन साकी से पूछा कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस स्वतंत्रता रैकिंग में भारत 142 वें नंबर पर है. उसकी तुलना अमरिकी प्रेस से कैसे हो सकती है. तब जेन साकी के जवाब लड़खड़ाने लगे. वे अपनी सफाई में और उलझती चली गईं.

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यह सब बातें हैं. अमेरिकी प्रेस में भी स्वतंत्रता को लेकर अलग स्तर पर संघर्ष चल रहा है. जेन साकी ने भले कह दिया कि जो बाइडेन दुनिया भर में प्रेस की स्वतंत्रता के हिमायती हैं लेकिन उन्होंने भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ पत्रकारों से सवाल जवाब न लेने की बात की. यही नहीं जून 2020 में जो बाइडेन प्रेस कान्फ्रेंस कर रहे थे. फॉक्स न्यूज़ के पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या वे भूलने लगे हैं तब इसके जवाब में जो बाइडेन ने कह दिया कि कुत्ते के जैसी शक्ल है. 

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यह सही है कि इसके बाद भी उसी अमेरिका में देखने को मिलता है कि राष्ट्रपति जो बाइडेन पत्रकारों के साथ रात्रि भोज में हैं. वहां पर कमेडियन ट्रेवर नोवा उन्हीं का मज़ाक उड़ा रहे हैं. हमने प्राइम टाइम में कहा था कि अगर भारत होता तो कमेडियन के घर पर बुलडोज़र चल गया होता या केस हो गया होता. ट्रेवर नोवा ने ट्वीट किया है कि मैं आज की रात यहां खड़ा हूं, राष्ट्रपति का मज़ाक उड़ा रहा हूं और मुझे कुछ नहीं होगा. यह बिल्कुल सही है लेकिन पूरा सच नहीं है. अमेरिकी पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने ट्वीट किया है कि नोवा को कोई बताए कि अमेरिकी सुरक्षा संस्थानों को लेकर असरी खबर करने पर पत्रकार जूलियन असांज की क्या हालत कर दी गई है. जूलियन असांज को जान बचाने के लिए अलग-अलग देशों में शरण लेनी पड़ी है.अमेरिका में यह भी विवाद चल रहा है कि जब बाइडेन राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे तब उनके बेटे हंटर बाइडेन के ईमेल सामने आए थे. चुनाव के दौरान अमेरिकी प्रेस और ट्विटर फेसबुक ने इस खबर को दबा दिया. अब जाकर इसे सही माना जा रहा है क्योंकि FBI जांच कर रही है. तो हम हर जगह प्रेस का पतन देख रहे हैं. 
अरबपतियों के कब्ज़े में प्रेस जाने से सूचनाओं का गला सूखता जा रहा है. प्रेस को चलाने के लिए पैसा चाहिए लेकिन उस पैसे के दम पर प्रेस की टांग ही तोड़ दी जा रही है. भारत में कई मुख्यमंत्री प्रेस कान्फ्रेंस से कतराने लगे हैं. कोई डिजिटल प्रेस कान्फ्रेंस के बहाने सवाल जवाब से बचने लगा है तो कोई एजेंसी से बात कर मीडिया में होने का दायित्व पूरा कर लेता है. 

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जनता के बीच यह बात सामान्य होने लगी कि प्रधानमंत्री प्रेस कान्फ्रेंस नहीं करते. भारत में भी नहीं, भारत के बाहर भी नहीं. फैसला आपको करना है कि प्रेस चाहिए भी या नहीं. एक समय आप नेताओं को इस बात से भी परखा करते थे कि वह पत्रकारों के सवालों का सामना कैसे कर रहा है और पत्रकारों को परखा करते थे कि वह किस तरह के सवाल कर रहा है. तब जाकर आप अपनी समझ बनाते थे. लेकिन अब जनता भी बदल गई है. या हो  सकता है कि यह बात भी पूरी तरह सही न हो. यह भी हो सकता है कि जनता को ऐसे न्यूज़ चैनलों के बीच घेर लिया गया है जिसमें डिबेट हैं, हंगामा है. मगर न्यूज़ के नाम पर कोई सूचना और सवाल नहीं है. अगर ऐसा नहीं होता तब आम लोग अपनी कमाई के दो सौ पांच सौ रुपये से नए-नए मीडिया संस्थानों का सब्सक्रिप्शन क्यों लेते? ये वो लोग हैं जो अपनी जेब से पत्रकारों को मदद कर रहे हैं ताकि भले समंदर माफियों के कब्ज़े में चला गया है कम से कम तालाब तो बचा लें. विश्व प्रेस स्वतंत्रता के दिन दुनिया भर में पत्रकारों को सपोर्ट करने वाले लोगों को सलामी दी जानी चाहिए.

संयुक्त राष्ट्र का ट्विट है - बिना पत्रकारों के, कोई पत्रकारिता नहीं हो सकती, बिना पत्रकारिता के लोकतंत्र नहीं हो सकता. किसी पत्रकार को हर ख़तरा आपकी आज़ादी को ख़तरा है. प्रेस की स्वंतत्रता के लिए खड़े होईए. 

सब मतलब समझ रहे हैं लेकिन ऐसा लग रहा है कि उपदेश की तरह इन अच्छी बातों को केवल सुना जा रहा है. मंत्रियों से सवाल कीजिए तो जवाब नहीं आता है, ट्वीटर पर आए दिन लोग लिखते रहते हैं लेकिन वही मंत्री हर दिन किसी न किसी महापुरुष की जयंती के बहाने जनता के बीच बने रहते हैं. महापुरुषों की जयंती और पुण्यतिथि एक तरह की ढाल बन गई है. इससे आपको लगता है कि मंत्री जी पब्लिक के बीच दिन-रात रहते हैं लेकिन ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि पब्लिक की किसी बात का जवाब तो देते नहीं. इसलिए कहता हूं कि न्यूज़ के नाम पर न्यूज़ आध्यात्मिकता का दौर आ गया है. जिसमें भेंट मुलाकात, भाषण उदघाटन का वीडियो ही दिखाया जाएगा और बताया जाएगा कि यही न्यूज़ है. बेहतर है चांद तारों और सितारों की बातें की जाएं या नेताजी को ही प्रभु मान कर उनका गुणगान. लेकिन गर्मी इतनी है कि उससे ध्यान हटता ही नहीं.  A time outside this time के लेखक अमितावा कुमार ने एक सवाल किया कि हिन्दी में गर्मी के कितने शब्द हैं. तो हमने सोचा कि न्यूज़ आध्यात्मिकता के लिए यह बेस्ट रहेगा कि गर्मी के शब्दों पर बात की जाए, इससे टाइम भी कट जाएगा और टेंशन भी नहीं होगा. 

गर्मी प्रचंड रूप धारण कर चुकी है. आपने देखा होगा कि अब गर्मी और लू की जगह हीट वेव का चलन बढ़ चुका है. गर्मी को शब्दों से कम 44, 46, 48 डिग्री सेल्सियस के नंबर से बयान किया जाने लगा है. लेकिन आम जनजीवन में अब भी गर्मी के अलग-अलग शब्द बचे हुए हैं. हिन्दी में गर्मी, ताप, धाह, धधकना, दाघ, जेठ और घाम जैसे शब्द मिले तो मराठी में उकाडा वाढणे,उष्णता वाढणे, तापमानात वाढ होणे, काहिली, उन्हाळा जाणवणे, गरम होणे का प्रयोग होता है. गुजराती में कठारो, घाम, आंच, उष्मा, तड़फो और ताप है. बुंदेलखंडी में जब गर्मी असहनीय हो जाती है तब आगी बरसत है का इस्तेमाल होता है. कुमाऊ में गर्मी के मौसम को रूड़ कहते हैं. राजस्थानी में ताड़वा शब्द का इस्तेमाल होता है. राजस्थान में जब धरती नौ दिन तपती है तो उसे नौतपा कहते हैं. वर्षा से पहले की जो गर्मी होती है उसे ओघमो कहते हैं.

इस सूची में ओम थानवी ने भी राजस्थान के कुछ शब्द जोड़ दिए हैं. उन्होंने बताया कि तावड़ो के अलावा राजस्थानी में लाय, बायरो, तपत, बळत, सिळगत, उनाळौ और भक्खड का भी इस्तेमाल होता है. वृंदा ने भी कुछ शब्दों की खोज की तो पता चला कि राजस्थानी में गर्मी के संदर्भ में बलबलती, तातो, अंगार, बास्ते, झल बरसे, बायदी पड़े, भोभल, लू बाजे, बल रियो है और तापे का इस्तेमाल होता है. 

मेरे मकसद इतना है कि जब आप गर्मी के अलग-अलग रूपों के लिए अलग-अलग शब्दों का इस्तेमाल करेंगे तो जीवन में बोलने-लिखने का रोमांच बना रहेगा. हर चीज़ के लिए एक ही शब्दों के प्रयोग से दिमाग़ हैवान की मशीन में बदल जाता है जिसे हर बात में पथराव से टकराव के लिए अवसर नज़र आने लगता है.जोधपुर हो या करौली हो या किसी भी राज्य का कोई भी शहर हो, हर जगह वही कारण, वही बयान. एक समाज हिंसा को सही ठहराने के लिए कितनी मेहनत कर रहा है. आप कब तक ऐसी घटनाओं की रिपोर्टिंग करते रहेंगे. जब लोग गर्मी के शब्दों को भूल सकते हैं तो मुमकिन है कि अपने पड़ोसी को भूल जाएं, भूल जाएं कि किस तरह दो मज़हब के लोग आपस में साथ रहा करते थे.पूरा महीना ही ऐसी घटनाओं और बयानों से भरा रहा. आप समझ नहीं रहे कि आप क्या क्या भूलते जा रहे हैं.

हम सभी बादलों के नाम भूल गए हैं लेकिन हमारे ही पूर्वजों ने बादलों के अनगिनत नाम रचे ताकि हम जीवन का उल्लास न भूलें. आसमान में उड़ते अलग-अलग आकार-प्रकार के बादलों के नाम को गढ़ने वाला यह समाज अपने पड़ोसी का जलता और ढहता घर देखकर कैसे खुश हो सकता है. अनुपम मिश्र ने अपनी किताब राजस्थान की रजत बूंदों में बादलों के ही चालीस से अधिक नाम लिखे हैं. किस कोण पर, किस ऊंचाई पर, किस आकार का बादल उड़ रहा है उन सबके नाम है. वादल, वादली, जलहर, जलधर, जीमृत, जलवाद, जलधरण, जलद, घटा, क्षर, सारग, व्योम, व्योमचर. मेघ, मेघाडवर, मेघमाला, मुदिर, महीमडल. भरणनद, पाथोद, धरमडल, दादर, डबर, दलबादल, धन, घणमड, जलजाल, कालीकाठल, कालाहरण, कारायण, कद, हब्र, मैमट, मेहाजल, मेघाण, महाघण, रामइयो, सेहर, बादलों के 38 नाम गिना दिए हैं और अभी खत्म नहीं हुए हैं. बादलों के नाम उनकी चालढाल और आकार के हिसाब से भी है. बड़े बादलों को सिखर कहते हैं. छोटे-छोटे बादलों के दल के छीतरी कहते हैं. आपने देखा होगा कि बादल का एक टुकड़ा बादलों के झुंड से छिटक गया है, इसे चूखो कहते हैं. ठंडी हवा के साथ उड़ कर जो बादल आता है उसे कोलायण कहते हैं. काले-काले बादलों के आगे श्वेत पताका उठाए सफेद बादल के हिस्से को कोरण या कागोलड़ कहते हैं. और अगर श्वेत पताका जैसे बादल नहीं है तो वैसे काले बादलों को काठल या कलायण कहते हैं. क्या आपको याद भी है कि बादल का एक नामा कलायण है. दिन भर घटा छाई रहे और बूंदा-बांदी होती रहे तो उसे सहाड़ कहते हैं.

हो सके तो यू ट्यूब में प्राइम टाइम के इस अंक को जाकर देखिएगा और गिनने का अभ्यास कीजिएगा, हमने बादलों के कितने नाम बताए. ये सारे शब्द हमने अनुपम मिश्र की किताब राजस्थान की रजत बूंदों से लिए हैं. इसलिए ताकि आप हर चुनाव में हिन्दू मुसलमान के अलावा दूसरे मुद्दों पर बात करना सीखें.आप भी जानते हैं चुनाव से पहले ऐसी घटनाएं इसलिए होती हैं ताकि गोदी मीडिया और व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के लिए डिबेट पैदा हो और आप सब कुछ भूलकर उसी डिबेट में फंस जाएं. इसलिए उस समाज को याद कीजिए जिसने बादलों को लेकर शानदार शब्दों की रचना की. उन शब्दों को भूल, दंगों की दलीलों की रचना हो रही है, एक बार सोचिएगा कि किस राजस्थान और किस हिन्दुस्तान की रचना हो रहा है. 

राजस्थान में समंदर नहीं है लेकिन वहां समंदर के ही अनेक शब्द हैं. कुछ संस्कृत से लिए गए हैं तो कुछ की रचना स्थानीय लोगों ने की है. सिंधु, सरितापति, वारहर, आच, उअह,वडनीर, सफरा भडार, देधाण और हेल. हाकड़ो भी समंदर के लिए इस्तेमाल होता है. अनुपम मिश्र ने लिखा है कि जिनके पूर्वजों ने समंदर नहीं देखा वे समंदर के लिए हाकड़ो का इस्तेमाल करते हैं. आज अजीब हालात है. केवल वही बात, हिन्दू बनाम मुसलमान. संविधान की शपथ लेकर विधायक बनने वाले हिन्दू राष्ट्र की शपथ ले रहे हैं. हरियाणा में बीजेपी के विधायक असीम गोयल हिन्दू राष्ट्र बनाने की शपथ लेते दिखाई दे रहे हैं. जिन्होंने संविधान के प्रति निष्ठा रखने की शपथ ली है.  

हम भूल गए हैं कि आज़ादी किस लिए हासिल की, नागरिकता का क्या मतलब है, ठीक उसी तरह से जैसे हम गर्मी, बादल, वर्षा के नाम भूल चुके हैं. अंबाला की इस घटना को अपवाद या अनौपचारिक मत समझिए. देखिए कि किस तरह से समानांतर रूप से औपचारिक आंदोलन चलाया जा रहा है. 

इसी जनता के बीच बहुत से लोग हैं जो नफरत की आंधी को मौज समझ रहे हैं और इसी जनता के बीच थोड़े बहुत ऐसे भी हैं जो मोहब्बत की हवा का मतलब जानते हैं. दिल्ली के जहांगीरपुरी में ईद के मौके पर दोनों समुदाय ऐसे मिले कि झगड़े की बात आंधियों में उड़ गई. 

क्या आप जानते हैं बारिश का एक नाम झपटो भी है. अनुपम मिश्र ने लिखा है कि जब एक झटके में बारिश आकर खत्म हो जाती है तो उसके लिए राजस्थान में झपटो का इस्तेमाल होता है. धरहरणों भी एक शब्द है लेकिन इसका इस्तेमाल किस तरह की बारिश के लिए होता है आप भी पता लगाइये. नफरत का तापमान बढ़ाया जा रहा है ताकि आप सब भूल जाएं और एक हैवान की मशीन में बदल जाएं. शादियों में शामिल होकर दस बीस लोगों के बीच पढ़े लिखे लोग नरसंहार की वकालत करने लगे हैं. उन्हे इस तरह की बात करने में शर्म नहीं आती है. ऐसे लोगों को एक काम दीजिए, बूंदों के लिए इस्तेमाल शब्दों का पता लगाएं. कुछ नहीं तो उन्हें बारिश से प्यार हो जाएगा. ये नफरत इसलिए फैला रहे हैं क्योंकि इनके जीवन में प्यार नहीं है.

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