अयोध्या में कुछ भी ग़लत नहीं होता है, क्योंकि यहां एक सिस्टम है. जिस पर आरोप लगता है वही जांच करता है और फैसला देता है कि कुछ भी ग़लत नहीं हुआ है. इस सिस्टम के कुछ डिपार्टमेंट की जानकारी बुधवार के इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट से मिलती है जिसमें बताया गया है कि जिस ट्रस्ट के खिलाफ ज़मीन के मामले की जांच हो रही है उसी ट्रस्ट की दूसरी ग़ैर विवादित ज़मीन उन अधिकारियों के रिश्तेदारों ने खरीदे हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पर आने से पहले जून की रिपोर्ट को याद करना ज़रूरी है जिसे हमारे सहयोगी आलोक, कमाल और प्रमोद ने की थी और मीडिया में कुछ जगहों पर इसकी रिपोर्टिंग हुई थी.
यही वह ज़मीन है जिसे लेकर इस साल जून के महीने में सवाल उठा था. इस ज़मीन के एक हिस्से को हरीश पाठक और उनकी पत्नी ने सरकारी दर से दोगुने कम दाम पर श्रीराम जन्भभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को आठ करोड़ में बेच दिया. इसी ज़मीन के दूसरे हिस्से को हरीश पाठक रवि तिवारी और सुल्तान अंसारी नाम के बिचौलिए को बेचा दो करोड़ में. इन बिचौलियों ने पंद्रह मिनट के भीतर दो करोड़ की ज़मीन साढ़े अठारह करोड़ रुपये में मंदिर ट्रस्ट को बेच दी. इस सौदे में गवाह के रूप में बीजेपी नेता और अयोध्या के मेयर हैं. एक ही ज़मीन का एक हिस्सा सरकारी दर से दोगुने से भी कम दाम पर बिकता है, उसी से लगा दूसरा हिस्सा सरकारी दर से तीन गुने से अधिक दाम पर बेचा जाता है. पंद्रह मिनट में बिचौलियों को साढ़े सोलह करोड़ का मुनाफा होता है. अब इसमें एक दूसरा एंगल यह जुड़ता है कि वाहीद अहमद दावा करते हैं कि यह ज़मीन बेची नहीं जा सकती है क्योंकि 1924 में उनके परदादा ने इसे वक्फ के नाम कर दिया था. बाद में किसी रिश्तेदार ने इस ज़मीन को हरीश पाठक को बेच दिया. वक्फ से लिखवा लिया कि ज़मीन बेची जा सकती है. बहरहाल वाहीद अहमद ने तब कहा था कि वे हाईकोर्ट में इसे चैलेंज करेंगे. मंदिर ट्रस्ट के लोग गलत नहीं कर सकते हैं, उन्हें सही जानकारी नहीं दी गई है.
जून के महीने में यह विवाद उठा. तब श्रीराम जन्भभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने कहा कि उन्होंने वकीलों और लेखपाल से इसकी जांच कराई है और कुछ भी ग़लत नहीं हुआ है और इस मामले को लेकर मीडिया ट्रायल में नहीं उलझेंगे. अगर कोई लीगल अथॉरिटी पूछेगी तो उसे जवाब देंगे. क्या किसी लीगल अथॉरिटी को नहीं पूछना चाहिए कि एक ही ज़मीन है, बेचने वाला एक ही है. बेचने वाले पर फ्रॉड के आरोप हैं. ट्र्स्ट उससे एक हिस्सा सीधे खरीदता है और दूसरा हिस्सा बिचौलिये के मार्फत खरीदता है. बिचौलिया दो करोड़ में ख़रीद कर पंद्रह मिनट में ट्रस्ट को साढ़े अठारह करोड़ में. क्या यह सवाल शुचिता का नहीं है? अगर इसी तरह की डील सपा के नेता ने की होती तो आज कौन कौन सी जांच एजेंसी उसके घर पहुंच गई होती बताने की ज़रूरत नहीं है.
लीगल अथॉरिटी भी कमाल की है. क्या वाकई किसी लीगल अथॉरिटी को इस डील में कोई संदेह नहीं हुआ? क्या इसे हर तरह के संदेह से मुक्त करने के लिए ज़रूरी नहीं था कि कोई लीगल अथॉरिटी उतनी ही जल्दी जांच करके रिपोर्ट दे देती है जितनी जल्दी मंदिर ट्रस्ट ने जांच कर दी.
क्या आपको कुछ संदेह नहीं हो रहा है कि पुलिस के अनुसार भगोड़ा और कई मामलों का फ्रॉड हरीश पाठक ज़मीन बेच रहा है. वह एक हिस्सा सीधे बेचता है और दूसरा हिस्सा किसी के मार्फत ट्रस्ट को बेचता है. क्या हरीश पाठक इस मामले में नैतिकता के साथ सौदा कर रहा है? इस हरीश पाठक पर पैसा दोगुना करने के नाम पर लोगों के ठगने के आरोप हैं. जो पुलिस का भगोड़ा है वह ज़मीन का सौदा कैसे कर गया? क्या किसी लीगल अथॉरिटी को यह नहीं पूछना चाहिए था? पता नहीं लगाना चाहिए था कि जो भगोड़ा है उसका कौन सा अकाउंट चल रहा है जिसमें दस करोड़ की राशि ट्रांसफर हुई है? यह कैसा भगोड़ा है जिसका खाता चालू है? हरीश पाठक अभी तक गिरफ्तार नहीं हुआ है.
जून में उठा विवाद समाप्त मान लिया गया. लोगों ने राहत की सांस ली. उन लोगों ने राहत की सांस ली जिन्होंने जांच की और इस मामले को क्लीन चिट दिया और जनता भूल गई. ये राहत की तो बात है ही. मेरे ख़्याल से भगोड़ा हरीश पाठक भी जहां है ख़ुश ही होगा और राहत की सांस ले रहा होगा.
न्यूज़लौंड्री में बसंत और आयुष की यह रिपोर्ट भी तब आई थी कि बीजेपी के मेयर के भांजे और खुद को बीजेपी का कार्यकर्ता बताने वाले दीप नारायण ने मंदिर क्षेत्र के करीब की एक ज़मीन 20 फरवरी 2021 को 20 लाख में खरीदते हैं और तीन महीने के बाद उस ज़मीन को ढाई करोड़ में मंदिर ट्रस्ट को बेच देते हैं. तीन महीने में 12 गुना का मुनाफा. लोग मंदिरों को अपनी ज़मीन मुफ्त में दान कर देते हैं, यहां 12 गुना मुनाफा कमाया जा रहा है. न्यूज़लौंड्री की रिपोर्ट के अनुसार दीप नारायण कथित रूप से सर्किल रेट से कम दाम पर ज़मीन खरीदते हैं लेकिन मंदिर ट्रस्ट को जब बेचते हैं तो सर्किल रेट से अधिक पर. क्या उन्होंने इस लाभ पर टैक्स दिया है, इसका जवाब वही दे सकते हैं और आयकर विभाग बता सकता है.
साफ दिख रहा है कि फायदा किसे हो रहा है. किन लोगों को हो रहा है. अभी तक आपने मंदिर ट्रस्ट के साथ ज़मीन के सौदे से जुड़ी कुछ खबरों का हाल जाना लेकिन सोचिए पुलिस का भगोड़ा हरीश पाठक जब ज़मीन बेचता है तो मंदिर ट्रस्ट के सदस्य और बीजेपी के मेयर ऋषिकेश उपाध्याय गवाह बनते हैं. और इसमें कुछ भी गलत नहीं पाया जाता है.
मेयर की ऋषिकेश उपाध्याय ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि मेरा मानना है कि भक्ति और राष्ट्रवाद के साथ भारत का युवा दुनिया के लिए बदलाव का केंद्र बन सकता है. ये उस सौदे के गवाह हैं जिसमें पंद्रह मिनट में दो करोड़ की ज़मीन साढ़े अठारह करोड़ की हो जाती है. फिर उन्हीं के भांजे बीस लाख की ज़मीन राष्ट्रवाद के प्रतीक राम मंदिर को ढाई करोड़ में बेचते हैं. इसमें उन्हें और किसी को गलत नहीं लगता है. यह राष्ट्रवाद का ही कमाल हो सकता है.
मेरी इस बात से राज्यसभा सांसद रंजन गोगोई भी सहमत होंगे कि अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर जो भी ज़मीन ख़रीदी जा रही है उसकी प्रक्रिया में कुछ भी अनैतिक नहीं होना चाहिए. राम की मर्यादा तो होनी ही चाहिए. सुप्रीम कोर्ट को भी संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि मंदिर ट्रस्ट का गठन उसके ही आदेश से हुआ है. केंद्र सरकार को भी लीगल अथॉरिटी से जांच करा कर आश्वस्त करना चाहिए कि मंदिर ट्रस्ट के द्वारा और अन्य के द्वारा ज़मीन के सौदे में किसी प्रकार की अनैतिकता नहीं हो रही है. क्योंकि 9 नवंबर 2019 को राम मंदिर मामले में फैसला आने के बाद अयोध्या और उसके आस-पास ज़मीन के लेन देन की संख्या बढ़ी है. इसे देखते हुए सरकार को यहां ज़मीन की खरीद की व्यवस्था को ईमानदार बनाना चाहिए ताकि किसी को ठगा न जा सके और कोई खरीद के समय राजस्व की चोरी न कर सके. आखिर अयोध्या का सर्किल रेट 2017 के बाद से अभी तक क्यों नहीं बढ़ा है? 2019 में फैसला आने के बाद खरीदार बढ़े हैं तो सर्किल रेट क्यों नहीं बढ़ा है?
जून के महीने में जो संदेह उठा था उसे जल्दी ही रफ़ा-दफा कर दिया गया लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की आज आई एक रिपोर्ट ने इन सारे मामलों की याद ताज़ा कर दी है. श्यामलाल यादव और संदीप सिंह की रिपोर्ट बताती है कि अयोध्या में ज़मीन खरीदने के मामले में क्या हो रहा है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे अयोध्या में विधायक, विधायक से जुड़े ट्रस्ट, उनके रिश्तेदार ज़मीन खरीद रहे हैं. इनमें अयोध्या के उपायुक्त के रिश्तेदार भी हैं. इसके अलावा डीआईजी, सर्किल अफसर, एसडीएम के भी रिश्तेदारों ने ज़मीन खरीदी है. अधिकारियों ने ज़मीन नहीं खरीदी है. श्यामलाल यादव और संदीप सिंह ने ऐसे 14 लोगों के रिश्तेदारों की ज़मीन ख़रीद के दस्तावेज़ों की पड़ताल की है और उनके बयान भी लिए हैं. अधिकारियों ने अपने बयान में यही कहा है कि रिश्तेदारों के लेन-देन में उनकी कोई भूमिका नहीं है. इस रिपोर्ट के आने के बाद विपक्ष ने जांच की मांग की है. कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने ट्वीट किया है कि आस्था, लालच और अवैध ज़मीन ख़रीद सब साथ चल रहे हैं. दिल्ली और यूपी में न कोर्ट को नज़र आ रहा है और न सरकार को. लेकिन भगवान राम अवश्य ही चिन्तित होंगे.
एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक ट्रस्ट का ज़िक्र है. महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट. इस ट्रस्ट ने 90 के दशक में बरहटा गांव में बहुत सारी ज़मीनें ख़रीदी हैं. ट्रस्ट की खरीदी हुई 21 बीघा ज़मीन पर विवाद है. यहां ध्यान रखना ज़रूरी है कि एक्सप्रेस ने जिस ज़मीन की ख़रीद की रिपोर्ट छापी है उसका संबंध उसी ट्रस्ट से तो है मगर विवादित ज़मीन से नहीं है. तत्कालिन ज़िलाधिकारी अनुज कुमार झा ने जांच के बाद आरोप सही पाया और आदेश दे दिया कि इस ज़मीन के स्वामित्व से महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट का नाम हटाकर ज़मीन राज्य सरकार को सौंप दी जाए. इस रिपोर्ट पर उपायुक्त एम पी अग्रवाल ने भी मंज़ूरी दे दी. तो यहां तक नहीं लगता कि किसी अधिकारी ने इस मामले को दबाने का प्रयास किया. सबने शिकायत मिलने पर सही समय पर कार्रवाई की है. बेशक ज़िलाधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के भी आदेश दिए थे. जिसकी जानकारी नहीं है कि क्या कार्रवाई हुई?
महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट ने दलित की ज़मीन ग़लत तरीके अपने नाम करा ली. इस वक्त यह मामला एसिस्टेंट रिकार्ड आफिसर की अदालत में है जहां ट्रस्ट भी एक पक्षकार है और अपने दावे के लिए लड़ रहा है. एक्सप्रेस ने लिखा है कि कोर्ट से जुड़े अफसर के रिश्तेदार ने भी इसी ट्रस्ट से ज़मीन खरीदी है. उम्मीद है आप यहां तक का खेल समझ गए होंगे. यहां तक सवाल नैतिकता और शुचिता का बनता है. एक्सप्रेस की रिपोर्ट में यह साफ नहीं कि ज़मीन खरीदने के बदले अधिकारियों ने ट्रस्ट को किस तरह का लाभ पहुंचाया.
एक्सप्रेस की रिपोर्ट पढ़ने के बाद महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट का मामला ज़्यादा संदिग्ध लगता है. जो ट्रस्ट रामायण के नाम का विश्वविद्यालय बनाने जा रहा हो वह किसी दलित की ज़मीन अपने नाम कराने के मामले में शामिल पाया जाए, यह राम की मर्यादा नहीं हो सकती है. जैसा कि रामायण में हमने पढ़ा है. महर्षि रामायण विद्यापीठ ट्रस्ट सामान्य ट्रस्ट नहीं है. इसी बरहटा गांव में महर्षि महेश योगी रामायण विश्वविद्यालय बनने जा रहा है. 10 अक्तूबर के दैनिक जागरण की रिपोर्ट में इस बात को लकेर सवाल उठाया गया है कि माझा बरहटा में 140 एकड़ भूमि पर महर्षि रामायण विद्यापीठ बनाने के लिए अवास विकास परिषद के साथ करार हुआ है. इसमें से 10 एकड़ की ज़मीन के स्वामित्व पर संकट है क्योंकि ज़िलाधिकारी ने इसके खिलाफ राजस्व कोर्ट में चुनौती दी है. इस ज़मीन को राज्यसात करने कराने के आदेश दिए हैं. यह उसी ज़मीन का मामला है जिसका ज़िक्र इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में किया है. एक्सप्रेस की रिपोर्ट में ट्रस्ट के सदस्य सालीकराम मिश्रा ने कहा है कि रोंघाई हमारे साथ कुछ साल काम कर चुका है. लोग 28 साल बाद इसलिए मामला उठा रहे हैं क्योंकि ज़मीन के दाम बढ़ रहे हैं.
एक्सप्रेस से सालीकराम मिश्रा एक बात कहते हैं कि हमने राजस्व विभाग के सेवानिवृत अधिकारियों को हायर किया है यानी उन्हें पैसे देकर रखा है जिन्होंने ज़मीन का करार करते समय हर तरह की कानूनी प्रक्रिया पूरी की होगी. ठीक इसी टाइप की दलील श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने दी थी कि हमने अपने वकील और लेखपाल से भूमि खरीद की जांच कराई है औऱ कुछ भी गलत नहीं निकला है. प्राइम टाइम के शुरू में पहली लाइन यही है कि अयोघ्या में कुछ भी गलत नहीं होता. जिस पर ग़लत का आरोप लगता है वह खुद से जांच कर बता देता है कि ग़लत नहीं हुआ है.
जमीन का मामला कभी इतना सीधा नहीं होता. अयोध्या में मंदिर के लिए हो या मंदिर के कारण हो, जिन ज़मीनों का सौदा हो रहा है उस पर नज़र रखी जानी चाहिए. राम का मंदिर बन रहा है. कम से कम वहां तो कोई काला धन वाला ज़मीन न खरीदे. इतनी मर्यादा तो रखनी ही चाहिए कि कहीं से किसी भी तरह का पैसा कमा कर वहां कोई ज़मीन खरीद कर पुण्य कमाने की होड़ में आगे न निकल जाए और हम और आप जैसे सामान्य मानवी पुण्य की दौड़ में पीछे रह जाएं. वहां ज़मीन वही खरीदे जिसकी आमदनी का ज़रिया श्वेत हो, व्हाईट हो. बाकी ब्लैंड एंड व्हाईट तो प्राइम टाइम के दर्शक देख ही लेते हैं.