This Article is From May 31, 2023

महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार से तुर्की की जनता थी नाराज़, तो क्यों एर्दोगन को फिर सौंपा ताज

विज्ञापन
Rajan Jha

तमाम चुनावी भविष्यवाणी को ग़लत ठहराते हुए एर्दोआन तुर्की चुनाव में 27.1 मिलियन यानी 49.5% मत प्राप्त कर विजयी हुए हैं. जबकि उनके प्रतिद्वंदी किलिकदारोग्लू को 24.6 मिलियन यानी 44.8% मत प्राप्त हुए. संसद में एर्दोआन के गठबंधन को 323 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि किलिकदारोग्लू के गठबंधन को 213 सीटें  मिली.  हालांकि, तुर्की के चुनाव में प्रमुख मुद्दे ऐसे थे जिससे ऐसा क़यास लगाया जा रहा था कि एर्दोआन के लिए यह चुनाव मुश्किल भरा होगा. 

अर्थव्यवस्था
तुर्की चुनाव में मतदाताओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत थी. तुर्की की अधिकांश जनता आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लम्बे समय से वृद्धि से परेशान थी. तुर्की की करेन्सी लीरा के गिरते मूल्य ने लोगों के जीवन यापन के संकट को और गम्भीर बना दिया. मुद्रास्फीति वर्तमान में लगभग 44% है. पिछले वर्ष तो मुद्रास्फीति 85% से अधिक थी जो 24 साल के अपने उच्च स्तर पर पहुंच गयी थी.

न्यूनतम मजदूरी दर बढ़ाने की मांग 
एर्दोगन सरकार ट्रेड यूनियनों और वामपंथी दलों द्वारा न्यूनतम मज़दूरी दर की मांग पर समय से ध्यान देने में विफल रही. हालांकि, चुनावों को ध्यान में रखते हुए एर्दोगन ने न्यूनतम वेतन में वृद्धि की घोषणा की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

Advertisement

भ्रष्टाचार
तुर्की के मतदाता आर्थिक समस्याओं के अलावा सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार को लेकर भी चिंतित थे.

शरणार्थी समस्या 
तुर्की में चालीस लाख से अधिक शरणार्थियों की उपस्थिति (जिनमें से अधिकांश सीरिया से हैं) के मुद्दे पर स्थानीय स्तरों पर दक्षिणपंथी दलों द्वारा लामबंद करने की कोशिश की गयी. इस मुद्दे पर सभी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को अपनी स्थिति स्पष्ट करने को मज़बूर किया गया. फलस्वरूप, किलिकदारोग्लू  और एर्दोगन ने प्रत्यावर्तन का वादा तक चुनाव में कर डाला.

Advertisement

इसके अलावा फरवरी में आए भूकम्प के कारण लाखों पीड़ितों के बचाव और पुनर्वास में अक्षमता का आरोप भी एक प्रमुख चुनावी मुद्दा था. भूकम्प ने तुर्की और सीरिया दोनों को प्रभावित किया और केवल तुर्की में 50,000 से अधिक लोग मारे गए.

Advertisement

संवैधानिक संशोधन और तानाशाही का आरोप 
छह-पक्षीय राष्ट्रीय गठबंधन द्वारा उठाया एक अन्य मुद्दा 2018 में लाए गए संवैधानिक संशोधनों के कारण राष्ट्रपति पद में सत्ता के केंद्रीकरण का सवाल था. विपक्षी गठबंधन ने यह चुनावी वादा किया कि यदि वो सत्ता में आती है तो राष्ट्रपति प्रणाली को पूर्ववत और संसद को पहले की तरह शक्तिशाली बनाएगी. विपक्ष द्वारा एर्दोगन की तानाशाही और विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ उत्पीड़न का मुद्दा भी जोर शोर से उठाया गया.

Advertisement

इतने गम्भीर मुद्दों के बावजूद एर्दोआन की जीत के क्या कारण हैं? 

एर्दोआन को चुनावी लाभ पिछली सरकारों के अभिजात्य चरित्र के कारण मिला. दो दशक पहले, एर्दोआन वर्किंग क्लास और धार्मिक रूढ़िवादियों के चैम्पियन के तौर पर सत्ता में आए. यह वर्ग पिछली धर्मनिरपेक्ष सरकारों द्वारा उपेक्षित और दमित महसूस करते थे. इन सरकारों द्वारा कई वर्षों तक हेड्स्कर्व पहनने वाली महिलाओं को स्कूलों में जाने या नौकरियों में काम करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. एर्दोआन ने उन क़ानूनों को बदल दिया. फलस्वरूप, रूढ़िवादी और ख़ासकर महिलाएं एर्दोआन को एक मसीहा के रूप में देखती हैं.

एर्दोआन ने देश की राजनीतिक स्थिरता को केन्द्र में रखकर अपना चुनावी अभियान चलाया. 2016 के तख्तापलट के प्रयास से उत्पन्न अस्थिरता की याद जनता को दिलाई. मतदाताओं के मन में इस भय का असर हुआ और उन्होंने एर्दोआन की बातों पर विश्वास करना अधिक उचित समझा. एर्दोआन ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर कुर्द आतंकवादियों से संबंध का आरोप लगाया, जो दक्षिण पूर्व में तुर्की सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हमले करते हैं. एर्दोआन ने सीरिया में चल रहे गृह युद्ध की चर्चा अपने कैम्पेन में बार-बार की और राजनीतिक स्थिरता के लिए वोट मांगा. तुर्की को एक सैन्य और औद्योगिक शक्ति बनाने का वाद किया. ऐसा वादा करते समय उन्होंने धार्मिक और राष्ट्रवादी बयान से परहेज नहीं किया. ऐसा करने से इन्हें आर्थिक संकट से उत्पन्न असंतोष का सामना करने में मदद मिली.  

यदि भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह चुनाव मतदाताओं के बीच तीन-तरफ़ा विभाजन प्रकट करते हैं. सेंट्रल अनातोलिया के अधिकतर तुर्की क्षेत्र ने एर्दोआन को वोट किया. इस जगह से उन्हें 72% मत मिले. वहीं, पूरब में कुर्द क्षेत्रों, पश्चिम और दक्षिण में अधिक आधुनिक और बेहतर विकसित प्रमुख शहरों में किलिकदारोग्लू को अधिक मत मिले. एर्दोआन ने इस क्षेत्र की सुन्नी धार्मिक पहचान और राष्ट्रवादी मूल्यों को चिन्हित कर उसे अपने से जोड़ने का काम किया. एर्दोआन ने खुद को ओटोमन विरासत के उत्तराधिकारी के रूप में भी प्रस्तुत किया. अपनी राजनीतिक और सैन्य उपलब्धियों का महिमामंडन भी किया. किलिकदारोग्लू  को अपने उदार व्यक्तित्व और अलेवी पहचान के करण इस क्षेत्र में चुनावी नुकसान का सामना करना पड़ा. हालांकि, देश के कुर्द इलाक़ों  और आधुनिक क्षेत्रों में उनकी स्वीकार्यता दिखी. इसके अलावा संसदीय प्रणाली में लौटने का उनका एजेंडा भी काफी हद तक सफल माना जा सकता है. उनकी मुख्यधारा की आर्थिक नीति और पश्चिम के साथ बेहतर सम्बंध भी इस इलाक़े में पसंद किए गए. तुर्की के राष्ट्रपति  और संसदीय चुनाव परिणाम शहरी - ग्रामीण विभाजन को भी दर्शाते हैं. प्रमुख  शहरी क्षेत्रों आंकरा, इस्तांबुल आदि  में मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क की विचारधारा से प्रेरित अभिजात्य वर्ग ने  किलिकदारोग्लू  को अपना समर्थन दिया. दूसरी तरफ़ एर्दोआन को ग्रामीण क्षेत्र में अधिक समर्थन मिला जो कि रूढ़िवादी है. मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क की विचारधारा पश्चिमी उन्मुख ( वेस्टर्न ओरीएंटेड) थी, जबकि  एर्दोआन पूर्व की ( ईस्टर्न ओरीएंटेड) ओर उन्मुख हैं . शायद यही कारण है कि वेस्टर्न मीडिया का समर्थन  किलिकदारोग्लू की तरफ़ है.

यानी एक तरीक़े से यह चुनाव तुर्की के वैचारिक विभाजन को भी दर्शाता है. अब चूंकि एर्दोआन की जीत हुई है तो यह देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिमी एशिया में तेजी से बदल रही राजनीति में तुर्की का क्या रुख़ रहता है, ख़ासकर सीरिया के मसले पर. 

राजन झा दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफ़ेसर हैं, और इन्होंने 'भारत की अफ़ग़ानिस्तान नीति में ईरान फ़ैक्टर' विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, JNU, नई दिल्ली से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Topics mentioned in this article