अयोध्या में इस दिवाली पर 12 लाख दीये जलाने की तैयारी है. नौ लाख दीये राम की पैडी पर जलेंगे और तीन लाख बाक़ी अयोध्या में. यह बीजेपी और सरकार का दीपोत्सव है. वह विश्व रिकॉर्ड बनाने निकली है. उसे दुनिया को दिखाना है कि वह कितनी रोशनी कर सकती है. लेकिन जब इतनी ज़्यादा रोशनी होती है तो क्या होता है? आंखें चुंधिया जाती हैं, कुछ और दिखना बंद हो जाता है. रोशनी जब बहुत तेज़ होती है तो अंधेरे में बदल जाती है. श्रीलंका बहुत ज़्यादा रोशन नगरी थी. वहां सोने के महल होते थे. दूर से दमकती थी. उसके मुक़ाबले अयोध्या बहुत सादगी भरी नगरी थी. राम जब रावण के वध के बाद अयोध्या लौटे तो कहते हैं कि अयोध्यावासियों ने घरों में दीप जलाए. तब किसी आतिशबाज़ी का ज़िक्र नहीं मिलता है. दीपोत्सव में आतिशबाज़ी बाद में जुड़ी.
लेकिन इस दिवाली अयोध्या में 12 लाख दीये जलाने का जो विश्व कीर्तिमान बनाया जाएगा, उसके साथ लेज़र शो, हॉलोग्राफिक शो और आतिशबाज़ी तक का इंतज़ाम होगा. यानी यह मनाने वाली नहीं, दिखाने वाली दिवाली होगी. तड़क-भड़क से भरी ऐसी दिवाली, जिसमें चमक-दमक का दर्प होगा, उजाले की विनम्रता नहीं.
निस्संदेह ऐसी दिवाली के पक्ष में भी तर्क गढ़े जा सकते हैं. जब सारे त्योहार तड़क-भड़क के साथ मनाए जा रहे हैं तो दिवाली पर ही आपत्ति क्यों? क्या क्रिसमस पर या कुछ अन्य त्योहारों पर इतनी तड़क-भड़क नहीं दिखती? फिर इस महाविराट आयोजन के लिए 12 लाख दीये बनाने वाले कुंभकारों को पैसे मिलेंगे जिनकी हालत अन्यथा बहुत अच्छी नहीं रह गई है.
लेकिन इन सारे तर्कों से बड़ा एक और तर्क है- उस आस्था का जिसने राम को गढ़ा, जिसने अयोध्या को बसाया, जिसने सदियों तक रामकथा को आकार दिया और हमारे लिए बचाए रखा. अन्यथा राम, रावण, अयोध्या, दिवाली यह सब सिर्फ़ हमारी स्मृति में बसी परंपरा का हिस्सा हैं, किसी ठोस इतिहास का अंश नहीं, जिन पर आप बहस करें.फिर राम से आपकी चाहे जितनी शिकायतें हों, इसमें संदेह नहीं कि विनम्रता में उनका कोई सानी नहीं था. उनको मालूम था कि रोशनी बाहर से नहीं आती, अपने भीतर होती है.
तुलसीदास के रामचरितमानस का बहुत बार उद्धृत किया जाने वाला प्रसंग है. युद्ध के मैदान में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्रों से लदे रथ पर सवार रावण के सामने राम बिना रथ के मौजूद हैं. व्याकुल विभीषण कहते हैं- ‘रावण रथी विरथ रघुवीरा.‘ इस पर राम उन्हें समझाते हैं. वे कहते हैं कि उनका जो रथ है उसमें शौर्य और धीरज के चक्के हैं, बल विवेक और दृढ़ता की पताकाएं हैं, सत्य, शील, बस और परहित के चार घोड़े हैं, क्षमा, दया, कृपा इस रथ की वल्गाएं हैं. इस रथ का वर्णन और आगे जाता है.
दरअसल राम को ईश्वर मानें या एक बहुत प्रेरणास्पद साहित्यिक चरित्र- उनकी सारी गरिमा उनकी साधारणता में निहित है- मनुष्य बने रहने की उस कोशिश में, जिसमें वे रो भी सकते हैं. वे कृष्ण की तरह अतिमानवीय करिश्मे करते नहीं दिखते हैं, वे शिव की तरह औघड़ नहीं हैं, वे दुर्गा की तरह बहुत सारी शक्तियों से संपन्न नहीं हैं, वे कई दूसरे अवतारों की तरह दैवी शक्तियों का प्रदर्शन करते नज़र नहीं आते. बस अहिल्या को छू लेने का एक प्रसंग है जिसमें राम चमत्कार करते दिखते हैं. हालांकि अब अहिल्या के पत्थर से मनुष्य बनने की उस कथा की बहुत सारी नई व्याख्याएं मौजूद हैं. एक सुंदर व्याख्या यह है कि अपने साथ हुए अन्याय से बिल्कुल पत्थर बन गई अहिल्या राम के संवेदना भरे स्पर्श से फिर जैसे जी उठी थी.
बहरहाल, राम रोते भी हैं, कातर भी होते हैं, रावण का बल देखकर घबराते भी हैं. ‘राम की शक्ति पूजा' में निराला कहते हैं- ‘जानकी हाय, उद्धार प्रिया का हो न सका, वह एक और मन रहा राम का जो न थका.‘ लेकिन ये वे राम हैं जो शक्ति का आराधना करते हुए एक सौ आठवें कमल के खो जाने पर अपने नयन चढ़ा देने को भी तत्पर हैं- आत्मत्याग के इस चरम पर देवी उनके हाथ पकड़ लेती हैं और शक्ति की पूजा पूर्ण होती है.
यह वह राम है जिसे हमारी स्मृति ने बनाया है. मैथिलीशरण गुप्त की कृति ‘साकेत' में भी राम की यह विनयशीलता दिखती है. भारत भूषण के अनूठे गीत ‘राम की जल समाधि' में इस मनुष्यता का एक और रूप दिखता है-
‘पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूं, धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहां खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहां,
मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू कांपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब सांस-सांस संग्राम हुई।‘
लेकिन पिछले कई वर्षों और दशकों से एक और राम ही बनाया जा रहा है, एक और अयोध्या बनाई जा रही है. यह अयोध्या जैसे लंका को टक्कर देती दिखाई पड़ती है. इस अयोध्या में कारसेवा के नाम पर 400 साल पुरानी मस्जिद ढहा दी जाती है. इस अयोध्या में लाखों-लाख दीये जलाने का एक उद्धत अभियान दिखाई पड़ता है जिसमें रोशनी की कामना नहीं, रोशनी को प्रदर्शन की तरह प्रस्तुत करने का अहंकार है. सरयू वह नहीं रही, जहां राम अपने पांव धोते थे. बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कैफ़ी आज़मी ने बहुत दुखी होकर ‘दूसरा बनवास जैसी नज़्म लिखी थी- ‘पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे/कि नज़र आए वहां ख़ून के गहरे धब्बे पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे / राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे / राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे / छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे.'
इसी छह दिसंबर पर कुंवर नारायण ने भी किंचित क्षोभ, किंचित क्रोध और किंचित व्यंग्य के साथ लिखी थी यह मारक कविता-
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक....
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !
दिवाली पर लौटें. हम सब जानते हैं कि दिवाली अंधकार पर प्रकाश की विजय का त्योहार है. लेकिन ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय का मतलब अंधकार पर प्रकाश की विजय नहीं है, अंधकार से प्रकाश की ओर बढना है. अंधकार को ख़त्म करने से प्रकाश नहीं आता, अंधकार से आगे बढ़ जाने से रोशनी पैदा होती है. लेकिन अमावस्या की रात एक टिमटिमाते दीये का सच कुछ और होता है और बहुत सारी रोशनियों से लबरेज़ एक रात में 12 लाख दीये जलाने का यथार्थ कुछ और. एक में विनयशील वीरता है और दूसरे में शक्ति का अहंकारी प्रदर्शन. बहुत ज़्यादा प्रकाश दूसरे प्रकाश स्रोतों को छुपा भी लेता है. सूर्य की उपस्थिति में दिन में चांद और तारे नज़र नहीं आते. रात आती है और अंधेरे का चादर फैलाती है तो टिमटिमाते हुए तारे निकलते हैं, मुस्कुराता हुआ चांद निकलता है. यानी कभी-कभी प्रकाश को सामने लाने के लिए अंधेरा भी ज़रूरी होता है और विराट अंधेरे को मिटाने के लिए एक दीपक भी काफ़ी होता है.
मगर 12 लाख दीये जलते हैं तो जो प्रकाश फैलता है, वह अट्टहास करता हुआ प्रकाश होता है, बहुत सारे दुखों और अंधेरों से बेपरवाह प्रकाश. वह अपने होने पर गुमान करने वाला प्रकाश होता है.
कायदे से इस दिवाली को कुछ और विनम्र और उदास होना चाहिए था. इस बरस हमने अपने बहुत सारे लोग खोए हैं. बहुत सारे घरों में इस साल अंधेरा रहेगा. हमने नदियों में बहती लाशें देखी हैं, हमने गंगा किनारे बनी क़ब्रें देखी हैं, हमने अस्पतालों के बाहर दम तोड़ते अपने देखे हैं.
कम से कम इन लोगों के लिए, इनके दुख में शरीक होने के लिए इस दिवाली को कुछ सादगी से मनाते तो मर्यादा पुरुषोत्तम कुछ ज़्यादा खुश होते. लेकिन इतने सारे घरों के अंधेरों के बीच जब 12 लाख दीए जलाए जाएंगे तो वे उजाला नहीं फैलाएंगे, कुछ लोगों के लिए अंधेरों को कुछ और गाढ़ा कर देंगे.
अंत में रोशनी और अंधेरे से जुड़ी एक बहुत पुरानी कहानी जो इस लेखक को बहुत प्रिय है और जिसे वह बार-बार दुहराता है. शिष्य ने गुरु से पूछा, प्रकाश कहां से आता है? गुरु ने बताया, सूरज से. शिष्य ने पूछा, रात को प्रकाश कहां से आता है. गुरु ने बताया, चांद से. शिष्य ने फिर पूछा, अमावस्या की रात प्रकाश कहां से आता है. गुरु ने धीरज से कहा कि तारों से. शिष्य़ ने प्रश्न और आगे बढ़ाया- जब अमावस्या की रात हो, घनघोर बादल छाए हुए हों, हाथ को हाथ न सूझ रहा हो तो प्रकाश कहां से आता है? गुरु ने बताया कि तब प्रकाश ध्वनि से आता है, तुम पुकारते हो, कोई है? उधर से आवाज़ आती है- इस ओर चले आओ. तुम उस ध्वनि की उंगली पकड़ कर आगे बढ़ते हो- यह प्रकाश है. शिष्य फिर पूछता है, जब घना अंधकार हो, हाथ को हाथ न सूझ रहा हो और कोई आवाज़ देने वाला भी न हो, तब प्रकाश कहां से आता है. गुरु ने कहा, तब प्रकाश अपने भीतर से आता है. तुम टटोलते हो कि किस तरफ चला जाए, और फिर चल पड़ते हो.
लेकिन जब प्रकाश का हमला इतना ज़ोरदार हो कि आंख चुंधिया जाए तो दिल के भीतर से निकलने वाली रोशनी भी अंधेरे में डूब जाती है. अयोध्या में अगले हफ़्ते क्या ऐसी ही रोशनी हमारा स्वागत करने वाली है?
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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