This Article is From Aug 06, 2021

बीजेपी नाम बदलती है तो क्यों बदलती है

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Priyadarshan

शुक्रवार को सरकार ने खिलाड़ियो को दिए जाने वाले राजीव गांधी खेल रत्न का नाम बदल कर मेजर ध्यानचंद के नाम पर कर दिया. यह एक स्वागत योग्य फ़ैसला है. सच तो यह है कि नेताओं के नाम पर स्टेडियम, पार्क, चौराहे, प्रेक्षागृह इतने हो चुके हैं कि अब वे श्रद्धा कम, वितृष्णा ज़्यादा जगाते हैं. इसलिए केंद्र सरकार ने चाहे जिस मक़सद से किया हो, सही किया है. देश का सर्वोच्च खेल सम्मान देश के सबसे बड़े खिलाड़ी के नाम पर कर दिया है.

लेकिन अगर यह अपनी विरासत के सम्मान की नई नीति है तो इसे राजीव गांधी तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए. इत्तिफ़ाक़ से हाल ही में दो स्टेडियम दो नेताओं के नाम समर्पित किए गए हैं. अहमदाबाद का क्रिकेट स्टेडियम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर किया गया है जबकि दिल्ली का फिरोजशाह कोटला स्टेडियम अरुण जेटली के नाम कर दिया गया है. जबकि कम से कम अरुण जेटली के नामकरण का देश के महानतम क्रिकेटरों में एक- बिशन सिंह बेदी ने बहुत तीखा विरोध किया था. लेकिन इतने बड़े खिलाड़ी के इतने खुले विरोध का सरकार ने कोई जवाब तक देना जरूरी नहीं समझा. अगर कांग्रेसमुक्त भारत बनाने का मतलब कांग्रेसी नेताओं की जगह बीजेपी के नेताओं की मूर्तियां और उनके नामपट्ट लगाना है तो यह भी एक तरह का कांग्रेसीकरण है जो बीजेपी को लगातार कांग्रेसयुक्त बना रहा है.

बहरहाल, इस बात पर गंभीरता से विचार होना चाहिए कि इस देश में किसी को याद रखने का, किसी को सम्मानित करने का, क्या तरीक़ा हो. कांग्रेस के समय यह फूहड़ता वाकई आसमान पर दिखी कि उसने हर बोर्ड नेहरू-गांधी परिवार का लगा डाला. लेकिन क्या बीजेपी के पास अपनी विरासत को समझने और संजोने का कोई सुविचारित नजरिया है और अगर वह है तो हमें कहां ले जाता है? इसमें संदेह नहीं कि उसने शहरों, सड़कों और अब स्टेडियम का नाम बदलने में बहुत उत्साह दिखाया है. लेकिन इस उत्साह के पीछे तीन तरह के तत्व सक्रिय दिखते हैं.

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पहला उसका वही संकीर्ण नज़रिया है जिसमें उर्दू या देशज नाम वाले प्रचलित शहरों को उनका कोई पौराणिक-ऐतिहासिक नाम दिया जाए- बनारस को काशी कहा जाए और इलाहाबाद को प्रयागराज. दिल्ली में उसने दिल्ली पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले बादशाह औरंगज़ेब का नाम एक सड़क से हटा डाला और उसे एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग कर दिया. क्योंकि उसके मुताबिक औरंगज़ेब तंगनज़री का प्रतीक है और एपीजे अब्दुल कलाम वैसे मुसलमान हैं जैसे बीजेपी चाहती है. लेकिन दिल्ली में सड़कों के नाम रखने के पीछे जो दृष्टि काम कर रही थी, वह यह कि जिसका भी दिल्ली से कोई वास्ता हो, उसे दिल्ली में सड़कों के नामकरण में जगह दी जाए. औरंगज़ेब जैसा भी रहा हो, लेकिन हिंदुस्तान का शासक था और दिल्ली के इतिहास का अभिन्न हिस्सा. वैसे औरंगज़ेब की प्रचलित छवि एक चीज़ है और इतिहासकारों के बीच उसकी वास्तविकता एक दूसरी चीज़- जिसमें कहीं-कहीं उसकी ख़ासियतें भी नज़र आती हैं. दिल्ली को दुत्कारती अपनी कविता में दिनकर जैसे कवि ने औरंगज़ेब को याद किया है- 'बाबर है, औरंग यहीं है / मदिरा औ' कुलटा का द्रोही / बक्सर पर मत भूल, यहीं है/ विजयी शेरशाह निर्मोही.' वैसे बीजेपी को दरअसल औरंगज़ेब की कट्टरता से ही नहीं, अकबर की उदारता से भी परेशानी थी. बीच में यह मुहिम चलाने की कोशिश हुई कि अकबर रोड का नाम भी बदला जाए.

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लेकिन दरअसल इस तरह शहरों या सड़कों के नाम बदलना उनको उनकी ऐतिहासिक निरंतरता से, उनकी स्मृति से वंचित करना है. जब इलाहाबाद को प्रयागराज बुलाते हैं तो बहुत सारी स्मृतियां अपने-आप को जड़ों से उखड़ी हुई पाती हैं- इलाहाबादी अमरूद प्रयागराजीय अमरूद नहीं हो सकते, अकबर इलाहाबादी को अकबर प्रयागराजी नहीं किया जा सकता, इलाहाबाद के लेखकों को प्रयागराज का लेखक नहीं बताया जा सकता. लेकिन यह सच बीजेपी और उसके सांस्कृतिक परिवार को रास नहीं आता. वह अपने गलियों-कूचों, शहरों के 'गौरवशाली मिथकीय' नाम रखना चाहती है जिसमें अनगढ़ता न दिखे, संस्कृतनिष्ठ सौष्ठव नज़र आए. गुड़गांव को गुरुग्राम बनाने के पीछे यही दृष्टि काम करती है. यही दृष्टि चाहती है कि होशंगाबाद को नर्मदानगर पुकारा जाए और अहमदाबाद को कर्णावती के नाम से जाना जाए.

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नामकरण या नाम परिवर्तन या मूर्ति और फोटो लगाने-हटाने के पीछे बीजेपी की दूसरी दृष्टि अपनी इस सांप्रदायिक संकीर्णता के अलावा राजनीतिक प्रतिशोध की नज़र आती है. जब राजीव गांधी खेल रत्न का नाम मेजर ध्यानचंद खेल रत्न करने के फैसले के बाद उसे याद दिलाया जाता है कि उसने मोदी और जेटली के नाम पर स्टेडियमों के नाम रखे हैं तो बीजेपी बाक़ायदा 23 स्टेडियमों की सूची ले आती है जिनके नाम नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक अलग-अलग पूर्व प्रधानमंत्रियों तक हैं. लेकिन ध्यान दें तो बीजेपी अपने शासनकाल में इसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देती दिखाई पड़ती है. अचानक अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री मोदी और दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं के नाम पर योजनाओं, चौराहों और शहरों के नाम रखे जाने लगते हैं. मुगलसराय दीनदयाल उपाध्यायनगर हो जाता है- तर्क यह है कि वहीं के रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल उपाध्याय मृत पाए गए थे. छत्तीसगढ़ में नए रायपुर का नाम अटलनगर रखा गया है.

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सच तो यह है कि कांग्रेस इस देश को एक ढीले-ढाले प्रबंधन के अलावा कुछ और नहीं दे पाई जिसमें उसने स्वाधीनता सेनानियों के नाम गलियों-चौराहों और विकास के नए चिह्नों के नाम रखने के अपने अभ्यास को बिल्कुल इस तरह चापलूसी में बदला कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक आते-आते हर योजना उन्हीं की हो गई. लेकिन बीजेपी जो कर रही है, वह एक सांप्रदायिक वैचारिकी का सूक्ष्म विस्तार है जिसमें तरह-तरह से चीजो़ं को बदला जा रहा है. गनीमत है कि अभी तक इस देश में नाथूराम गोडसे के नाम पर किसी शहर या गली का नाम रखने की मांग नहीं हुई है. उसकी मूर्तियां और मंदिर तो फिर भी दिखने लगे हैं.

बहरहाल, मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पर लौटें. ऐसा नहीं कि इस देश में मेजर ध्यानचंद के नाम पर खेल पुरस्कार नहीं हैं. 10 लाख का लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड मेजर ध्यानचंद के नाम पर है. अब उनके नाम पर दो-दो सम्मान हो जाएंगे. इसमें भी कोई हर्ज नहीं है. लेकिन इससे पता चलता है कि बीजेपी की चिंता ध्यानचंद को सम्मानित करने से ज़्यादा राजीव गांधी को हटाने की रही- उसके सामने उसके लक्ष्य साफ़ हैं. वैसे भी उसके लिए प्रतीकात्मक लड़ाइयां हमेशा ज्यादा अहम रहती हैं. हॉकी या किसी भी खेल के लिए बुनियादी सुविधाओं का इंतज़ाम मुश्किल काम है, एक पुरस्कार किसी खिलाड़ी के नाम करके खेलप्रेमी बन जाना आसान काम है. इस आसान काम की आड़ में फिर अपने मुश्किल लक्ष्य हासिल किए जाएंगे.

इसलिए विरासत की व्याख्या और उसको संजोने का जो सवाल है, उस पर बीजेपी निराश नहीं करती, डराती है. वह जितना कुछ बदलना चाहती है, उतना कुछ बदला तो हिंदुस्तान का नाम भले न बदले, चरित्र बदल जाएगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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