फ़्रांस के क़ानून महकमे के अधिकारियों ने पेगासस के माध्यम से अपने यहां हो रही जासूसी की जांच के आदेश दे दिए हैं. वहां मीडियापार्ट नाम के संस्थान ने शिकायत की थी कि उसके दो पत्रकारों की जासूसी की जा रही थी. हालांकि मीडियापार्ट ने इसके लिए सरकार को नहीं, मोरक्को की एजेंसियों को ज़िम्मेदार ठहराया. बेशक, जांच का जो आदेश दिया गया है, उसमें मोरक्को की एजेंसी का ज़िक्र नहीं है.
मीडियापार्ट वही संस्थान है जिसने रफ़ाल सौदे में दलाली लिए जाने का दावा किया. इसी संस्थान ने फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद का यह बयान प्रकाशित किया कि भारत सरकार के कहने पर अनिल अंबानी की कंपनी को दसॉ ने ऑफ़सेट पार्टनर बनाया था. हालांकि फ्रांस सरकार ने इस बात का खंडन कर दिया. जाहिर है, मीडियापार्ट के रुख़ ने रफ़ाल सौदे के लिए बेक़रार फ्रांस सरकार के लिए दुविधा और संकट की स्थिति पैदा की. लेकिन जब मीडियापार्ट ने अपने पत्रकारों की जासूसी की शिकायत की तो फ्रांस सरकार ने इसे साज़िश न बताते हुए इसकी जांच के आदेश दिए.
लेकिन भारत में क्या हो रहा है? कुछ देर के लिए मान लें कि पेगासस जासूसी का वास्ता सरकार या उसकी एजेंसियों से नहीं है. लेकिन अगर नहीं है तो सरकार को क्या इस बात की चिंता नहीं होनी चाहिए कि कौन लोग इस देश के बेहद महत्वपूर्ण नागरिकों के जीवन में ऐसी डरावनी घुसपैठ कर रहे हैं? वह कौन सी एजेंसी है जो राहुल गांधी की ही नहीं, उसके अपने मंत्रियों की भी जासूसी करा रही है? क्या वाकई इसके लिए कोई संजीदा जांच नहीं होनी चाहिए.
मगर इस बेहद संगीन मामले में भारत सरकार का रुख़ आपराधिक तौर पर लापरवाही भरा है. गृह मंत्री अमित शाह फिर क्रोनोलॉजी समझाने में लग गए हैं. यह सवाल उठा रहे हैं कि मॉनसून सत्र के ठीक पहले ये विवाद कहां से पैदा किया गया? बीजेपी के सबसे कद्दावर मुख्यमंत्रियों की फ़ौज पेगासस जासूसी के आरोपों का जवाब देने में लगा दी गई है. साफ़ है कि सरकार को पेगासस के सच की चिंता नहीं है- बस अपनी छवि की फ़िक्र है- बस यह ख़याल है कि लोगों तक यह संदेश न जाए कि वह जासूसी करा रही है.
लेकिन इस रवैये से सरकार अपनी जगहंसाई ही करा रही है. सारी दुनिया को मालूम है कि सत्रह मीडिया समूहों की एक साझा टीम जो जांच कर रही है, वह दरअसल किसी एक देश के ख़िलाफ़ साज़िश का मामला नहीं है, बल्कि कई सरकारों की अपनी ही जनता के प्रति साज़िश का पर्दाफ़ाश करने का मामला है. इस टीम में वे मीडिया समूह हैं जो अक्सर अपने मुल्कों में अपनी सरकारों के निशाने पर रहते हैं- क्योंकि वे पत्रकारिता का बुनियादी काम करते हुए लोकतंत्र के वाचडॉग की भूमिका निभा रहे होते हैं.
पत्रकारिता के साझा प्रयत्नों का यह प्रयोग नया नहीं है. इसके पहले पनामा पेेपर्स के लिए दुनिया के 70 देशों के पत्रकारों ने मिलकर कंसोर्टियम बनाया. दरअसल यह महसूस किया जाता रहा है कि आज की दुनिया में तरह-तरह के आर्थिक-राजनीतिक अपराधों का दायरा इतना विराट है कि वह देशों और महादेशों की सरहदें पार करता है. इसकी जांच-पड़ताल किसी एक पत्रकार या समूह के बूते की चीज़ नहीं है. तो ऐसे कंसोर्टियम दरअसल चुपचाप काम करते हैं और धीरे-धीरे उनके नतीजे आते रहते हैं. दुनिया के कई देशों में भारतीयों के जमा पैसे का सुराग भारत को ऐसे ही जनर्लिस्ट कंसोर्टियम के माध्यम से ही मिला था.
इसलिए कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी यह नहीं मानेगा कि इज़राइल की एक कंपनी पेगासस के ज़रिए हो रही जासूसी का मामला सामने लाना किसी साज़िश को अंजाम देना है. बल्कि ख़तरा यह है कि इस ख़ुलासे की मार्फत दूसरों द्वारा की जा रही साज़िशें न खुल जाएं. क्या बीजेपी के नेता और भारत सरकार के मंत्री इसीलिए बौखलाए हुए हैं? अगर नहीं तो किसी जांच से पहले उन्हें नतीजे क्यों घोषित कर देने चाहिए? क्या यह राजनीतिक प्रचार-दुष्प्रचार का मामला है? क्या ऐसे मामलों को आइटी सेल की मूर्खतापूर्ण प्रचार-सामग्री की तरह इस्तेमाल करके छोड़ा जा सकता है?
सच तो यह है कि संसद का मॉनसून सत्र इस बात के लिए बड़ा अवसर हो सकता था कि इस बड़े खतरे पर हमारी पूरी संसद विचार करे. लेकिन सरकार संसद में इस पर बहस करने को तैयार नहीं. वह विपक्ष की यह मांग भी मानने को तैयार नहीं कि इस मामले में संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए या सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में एसआइटी गठित की जाए. जबकि ऐसे मामलों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति से बेहतर कोई दूसरा उपाय नहीं है. जब स्वीडिश रेडियो के हवाले से बोफोर्स का मामला सामने आया था तो तत्कालीन रक्षा मंत्री केसी पंत की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति बनी थी. हाल के वर्षों में भी संयुक्त संसदीय समितियां बनती रही हैं. नागरिकता संशोधन विधेयक पर भी बनीं और पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पर भी.
दरअसल संदेह और सवाल यहीं से पैदा होते हैं. ऐसा लग रहा है जैसे सरकार जांच तो चाहती ही नहीं, इसको लेकर चल रही राजनीति को भी हतोत्साहित करना चाहती है. क्योंकि इस जासूसी कांड में आ रही सूची धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही है. अब पता चल रहा है कि कर्नाटक के भी कुछ नेताओं के फोन नंबर इस दौरान हैक किए जा रहे थे. ऐसा इत्तिफ़ाक क्यों है कि जिन तमाम मामलों में फोन नंबर हैक होने की बात सामने आ रही है, उन सबका वास्ता पिछले दो-तीन साल की राजनीति और उसके विवादों से निकल रहा है? अब तक बीजेपी ऐसे खुलासों के राजनीतिक लाभ उठाती रही है- यह पहला अवसर है जब एक खुलासा उसके गले में पड़ता दिख रहा है. तो इसकी काट के लिए वह साजिश के आरोप का अपना जाना-पहचाना तरीक़ा अख़्तियार कर रही है. ख़तरा यह है कि पेगासस जासूसी का सच जानने निकले पत्रकार धीरे-धीरे दूसरे मामलों में फंसाए न जाएं. भीमा कोरेगांव और दिल्ली दंगे इसकी डरावनी मिसाल हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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