This Article is From Dec 24, 2020

बिशन सिंह बेदी को इसकी सज़ा ज़रूर मिलेगी

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Priyadarshan

हैरानी की बात है कि अभी तक किसी ने बिशन सिंह बेदी को आतंकवादी या देशद्रोही नहीं कहा है, क्योंकि यह कहलाने की पात्रता बेदी ने पूरी तरह अर्जित कर ली है. वह अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं, खुलकर अपनी बात रखते हैं और अब वह उस नेता की मूर्ति के ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं, जिसने BJP के भीतर अपनी बौद्धिक क्षमता और राजनीतिक समझ के नाम पर बहुत प्रतिष्ठा और शक्ति अर्जित की. बिशन सिंह बेदी का कहना है कि अगर दिल्ली के फ़िरोज़शाह कोटला स्टेडियम में अरुण जेटली की प्रतिमा लगाई जा रही है, तो उनके नाम का स्टैंड हटा दिया जाए. उनके मुताबिक, दिल्ली जिला क्रिकेट संघ ने जिस क्रिकेट की हत्या की है, उसके ताबूत की आख़िरी कील यह मूर्ति लगाने का फ़ैसला है.

मोदी के सबसे भरोसेमंद सिपहसालारों में रहते हुए अरुण जेटली ने BJP का हर मोर्चे पर भरपूर बचाव किया - यहां तक कि पूरे-पूरे सत्र संसद की कार्यवाही न चलने देने को भी लोकतांत्रिक बताया, कोई बिल राज्यसभा में रुक गया, तो राज्यसभा के औचित्य पर भी सवाल खड़े कर दिए. आज रिटायर्ड जजों की नियुक्ति का मामला हो या किसान कानूनों का - जेटली के अपने ही पुराने बयान जैसे मौजूदा सरकार का मुंह चिढ़ाते हैं.

बहरहाल, बिशन सिंह बेदी ने नेता अरुण जेटली को लेकर कुछ नहीं कहा है. बेशक, उन्होंने DDCA या दिल्ली जिला क्रिकेट संघ में जेटली के कार्यकाल की अकुशलता और उस दौरान हुए भ्रष्टाचार का सवाल उठाया है. लेकिन उनकी नाराज़गी का मूल मुद्दा दूसरा है. उनका कहना है कि किसी क्रिकेट स्टेडियम में किसी नेता की मूर्ति लगाना शोभा की बात नहीं है, उससे आने वाली पीढ़ियों को कोई प्रेरणा नहीं मिलने वाली. उन्होंने याद दिलाया है कि लॉर्ड्स में डब्ल्यूजी ग्रेस, ओवल में जैक हॉब्स, बारबाडोस में गारफ़ील्ड सोबर्स और मेलबर्न में शेन वॉर्न जैसे दिग्गज क्रिकेटरों की मूर्तियां हैं, जिन्हें देखकर स्टेडियम में दाख़िल होने वाले बच्चे अपनी विरासत से परिचित होते हैं, इस पर गर्व करते हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि खेल प्रशासकों की जगह उनके शीशे के केबिनों में होनी चाहिए, स्टेडियम खिलाड़ियों के लिए होते हैं.

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अरुण जेटली अच्छे नेता थे या बुरे, उनके समय दिल्ली में क्रिकेट संघ भ्रष्टाचार में डूबा रहा या उनके रहते क्रिकेट को बढ़ावा मिला - इस बहस में अभी न पड़ें. यह देखें कि बिशन सिंह बेदी जो कह रहे हैं, उसका सार क्या है. उनके मुताबिक किसी स्टेडियम में किसी नेता की मूर्ति लगना क्रिकेट की परंपरा का अपमान है, उसकी विरासत का मज़ाक है. बेशक, जेटली की मूर्ति के संदर्भ में उनकी यह पीड़ा इस बात से कुछ गहरी हो जाती है कि वह मानते हैं कि जेटली के समय DDCA में भरपूर भ्रष्टाचार हुआ, जिसकी जांच भी जारी है.

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खतरा वही है, जहां से इस लेख की शुरुआत हुई थी. मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान और अरुण जेटली के समर्थकों की भीड़ - जिसकी तादाद इस वक़्त बिल्कुल डरावनी है - बिशन सिंह बेदी पर टूट पड़ सकती है. वह कितने बड़े स्पिनर रहे और साठ और सत्तर के दशकों में भारत की बहुत मुश्किल से हासिल होने वाली जीतों में उनका कितना बड़ा हिस्सा रहा, इस बात को भुलाकर उन पर तरह-तरह से हमले किए जा सकते हैं. यह भी साबित किया जा सकता है कि वह तो बहुत मामूली स्पिनर थे - और इसे साबित करने के लिए बहुत सारे आंकड़े पेश किए जा सकते हैं. यह अलग बात है कि जिन लोगों ने क्रिकेट का वह दौर देखा है, वही जानते हैं कि मैदान पर गेंदबाज़ी के वक़्त बिशन सिंह बेदी की बादशाहत दुनियाभर में कैसी चलती थी, कैसे उनके क़िस्से बनते थे.

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ख़तरा यह भी है कि जेटली विरोधी बेदी की इस बात को लेकर दूसरे ढंग से जेटली पर टूट पड़ें और सारा मामला निजी विरोध और समर्थन की बहस में निबटकर रह जाए.

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जबकि बेदी की बात की असली स्पिन यह है कि दरअसल हम इस देश में नेताओं और नौकरशाहों के ऐसे गुलाम हो गए हैं कि समाज और संस्कृति के बाक़ी सारे उपादानों को - चाहे वह साहित्य हो, खेल हो, विज्ञान हो, संगीत हो, अभिनय हो, नृत्य हो, या सहज सामाजिक संवाद हो - सबको इनके आगे तुच्छ मानने लगे हैं. जहां क्रिकेटरों की मूर्ति होनी चाहिए, वहां नेताओं की मूर्ति लगाने लगे हैं. बेशक, यह आज पैदा हुई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन इसका विस्तार हो रहा है और विकृत ढंग से हो रहा है - यह बात क्रिकेट के मैदान में एक नेता की प्रतिमा लगाने की योजना ही बताती है. ख़ुद को 'पार्टी विद अ डिफरेंस' बताने वाली और भारतीय संस्कृति का झंडा उठाने वाली BJP और उसकी सरकार के भीतर अगर थोड़ी-सी भी शर्म हो, तो वह यह फ़ैसला पलट सकती है.

लेकिन वह ऐसा करेगी नहीं. इन तमाम वर्षों ने बताया है कि BJP में सत्ता का अहंकार बहुत प्रबल है - फ़ैसले वापस लेना उसे अपनी 'मर्दानगी' के ख़िलाफ़ लगता है. दिल्ली की सरहद पर चल रहे किसानों के आंदोलन के साथ उसका रुख इसकी एक और मिसाल है. दयनीयता यह है कि इस अहंकार के बावजूद समय-समय पर उसे फ़ैसले पलटने पड़े हैं.

अरुण जेटली पर लौटें. इसमें शक नहीं कि वह BJP के दूसरे नेताओं के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, खुले थे और शालीन भी. इस मामले में उनकी कुछ बराबरी शायद सुषमा स्वराज ही कर सकती थीं. दुर्भाग्य से BJP के सबसे तेजस्वी समय में उसके ये दो तेजस्वी नेता उसे छोड़कर चले गए. जेटली का परिहास बोध भी बढ़िया था, यह उन्हें करीब से जानने वाले भी बताते थे और कई बार उनके अपने वक्तव्य भी इसकी पुष्टि करते थे. इन दिनों जेटली के जूतों में समाने की कोशिश करते नज़र आने वाले रविशंकर प्रसाद उनकी दयनीय प्रतिच्छाया भी नहीं बन पाते. जेटली के परिहास-बोध में यह भी शामिल था कि किस बात पर न हंसा जाए. लोकसभा में जब रेणुका चौधरी की हंसी पर प्रधानमंत्री के किंचित अशालीन परिहास की प्रतिक्रिया में पूरा सत्तापक्ष ठठाकर हंस रहा था, तब की तस्वीर देखिए - अकेले जेटली थे, जो प्रधानमंत्री के बगल के बैठकर भी मुस्कुरा नहीं पा रहे थे. हालांकि बेशक, शायद अपनों के दबाव में, कुछ सेकंड बाद वह मुस्कुराते दिखाई पड़ते हैं.

अब उस अरुण जेटली की मूर्ति उनके चेले और भक्त बनवा रहे हैं. अगर यह फ़िरोजशाह कोटला स्टेडियम में बन जाती है, तो वह मूर्ति ही जेटली पर हंसेगी. जेटली भी शायद होते, तो ऐसे प्रयत्न पर खुश नहीं होते. उनमें कम से कम इतना सांस्कृतिक बोध तो था ही. निश्चय ही यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व के सांस्कृतिक बोध का हिस्सा होना चाहिए कि किसकी मूर्ति कहां लगाए जाने योग्य है, कि कला और खेल और साहित्य की विभूतियां जहां शोभा देती हैं, वहां नेताओं की मूर्तियां अश्लील लगती हैं.

वैसे बिशन सिंह बेदी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इस खूंखार समय में मुंह खोलने की हिम्मत दिखाई है. वरना यह चुप रहने का दौर है. समझना मुश्किल नहीं है कि इसके बाद बेदी हटेंगे या मूर्ति हटेगी. ख़तरा यह है कि बेदी को उनके इस साहस की सज़ा भी भुगतनी पड़ सकती है. आख़िर इसी साहस की परिणति समझते हुए मुक्तिबोध ने लिखा था - 'हाय-हाय, मैंने उन्हें देख लिया नंगा / इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी.'

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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