This Article is From Aug 27, 2021

काबुल और भारतीय विदेश नीति की कशमकश

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Priyadarshan

अफ़ग़ानिस्तान के ताज़ा हालात और तालिबान पर क्या केंद्र सरकार की कोई नीति है? गुरुवार को सभी दलों की बैठक के बीच विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बताया कि नीति है- यह 'वेट ऐंड वॉच'- यानी देखो और इंतज़ार करो- की नीति है. सभी दलों की ये राय थी कि सरकार उचित कर रही है- फिलहाल काबुल में कुछ नहीं किया जा सकता. इंतज़ार करना होगा कि वहां हालात क्या करवट लेते हैं. 

दरअसल यह सर्वानुमति बताती है कि विदेश नीति को लेकर भारतीय राजनीतिक-प्रतिष्ठान ने सोचना छोड़ दिया है. हमारे मौजूदा नेताओं को वैदेशिक मामलों की जानकारी नहीं के बराबर होती है और वे यह काम बाबुओं के भरोसे छोड़ देते हैं. दरअसल एस जयशंकर का विदेश मंत्री बनाया जाना इसी प्रक्रिया का विस्तार है.  

अफ़ग़ानिस्तान में आज वाकई इंतज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है. वहां से अपने लोगों को निकालने के लिए हमें कई मुश्किल पड़ावों से गुज़रना है. काबुल हवाई अड्डा अमेरिका के हवाले है और काबुल की सड़कें तालिबान के क़ब्ज़े में. लेकिन बेबसी की यह नौबत क्यों आई? क्योंकि हम आज से नहीं, अरसे से 'देखो और इंतज़ार करो' पर अमल कर रहे हैं. हम अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के साथ खड़े रहे, अफ़ग़ानिस्तान में अपने निवेश पर इतराते रहे और यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में सत्तापलट होता है तो फिर हमारे हितों और हमारे लोगों का क्या होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन द्वारा क़रीब 1100 करोड़ के ख़र्च पर बनाई गई सड़कों से होते हुए तालिबान जब काबुल पहुंच रहे थे तब भी भारत देख और इंतज़ार कर रहा था. 

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उसके पहले दुनिया तालिबान से बात कर रही थी तब भी भारत देख रहा था. अमेरिका अच्छे और बुरे तालिबान का फ़र्क समझा रहा था तब भी हम यह नहीं समझ पा रहे थे कि अमेरिका की दिलचस्पी बस इतनी है कि तालिबान उसके लोगों को नुक़सान न पहुंचाए- काबुल का जो भी करे. यह संदेह बेजा नहीं है कि भारत ने अमेरिका पर कुछ ज्यादा ही भरोसा किया. वह जैसे अशरफ़ गनी की तरह ही मानता रहा कि अमेरिका सब ठीक करके ही जाएगा. इसी अतिशय भरोसे की वजह से अफ़ग़ानिस्तान में भारत का निवेश, वहां के साथ हुए समझौते- सब ख़तरे में हैं.  

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दरअसल विदेश मंत्री बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि उनकी प्राथमिकता वहां से अपने लोगों को वापस लाने की है. इनमें से बहुत सारे लोग वापस लाए भी जा चुके हैं. इनमें कई वैसे हिंदू-सिख भी हैं जो बरसों से वहां रह रहे थे. दिलचस्प यह है कि इनमें से बहुत सारे लोगों की प्राथमिकता भारत नहीं, अमेरिका जाना थी. वे मांग कर रहे थे कि अमेरिका उन्हें वीज़ा दे और निकाले. लेकिन भारत को उन अफ़ग़ान नागरिकों का भी ख़याल रखना चाहिए जो तालिबान-पूर्व दौर में भारत आते-जाते रहे और यहां अलग-अलग योजनाओं में सक्रिय रहे. मसलन बहुत सारे छात्र हैं जो अफ़ग़ानिस्तान से भारत पढ़ने आए. वे काबुल में फंसे हैं. ये वे अफग़ान नहीं हैं जो तालिबान के डर से भाग कर आना चाहते हैं. इनके पास भारत लौटने की वैध वजह है. क्या भारत सरकार को इनका भी ख़याल नहीं रखना चाहिए? 

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लेकिन दरअसल भारत सरकार अभी बस इंतज़ार कर रही है. इस इंतज़ार का एक नतीजा यह हुआ कि इस्तांबुल से भारत आई अफ़गान राजनयिक रंगीना कारगर को दिल्ली हवाई अड्डे से ही वापस लौटा दिया गया. उस राजनयिक ने टिप्पणी की कि उसके साथ अपराधियों जैसा सलूक हुआ. भारत सरकार ने माना है कि इस मामले में उससे बेख़बरी में चूक हुई है और वह फिर उसे ई वीज़ा देने को तैयार है. 

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लेकिन संकेत क्या जा रहा है? अपने पड़ोस के जिन बदलावों में भारत एक समय सक्रिय साझेदार था, उनका दौर पलटते ही वह बिल्कुल उसी तरह अप्रासंगिक हो गया जिस तरह अशरफ़ ग़नी हो गए हैं. क्या भारत मान कर चल रहा था कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थायी शांति आ चुकी है और वहां किसी तालिबान के दाख़िल होने का अंदेशा हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो गया है? हमारा विदेश मंत्रालय और हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार उस दौर में क्या कर रहे थे? 

हालत ये है कि अब तालिबान ज्ञान दे रहा है कि भारत और पाकिस्तान आपस में बैठ कर अपनी समस्याएं सुलझाएं. वह वादा कर रहा है कि वह अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा. वह दावा कर रहा है कि वह भारत के साथ अच्छे संबंध चाहता है. 

भारत क्या कर रहा है? भारतीय सूत्र अंदेशा भर जता रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान आतंक का नया अड्डा न बन जाए, कि लश्कर-जैश, आइएस वहां से बैठकर भारत में जेहादियों का निर्यात न करने लगें. या फिर भारत शायद इस बात का इंतज़ार कर रहा है कि तालिबान को कौन-कौन मान्यता देता है. अमेरिका और यूरोप के कुछ देश अगर मान्यता दे देते हैं तो क्या भारत भी इस कतार में खड़ा हो जाएगा? क्या रूस-चीन-पाकिस्तान भी तालिबान को मान्यता दे दें तो फिर भारत की मजबूरी नहीं हो जाएगी कि अपने पड़ोस में वह एक मुल्क को अपना दुश्मन न बनाए रखे? 

सच है कि इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं. लेकिन यह काबुल में ही भारतीय नीति की नाकामी का मामला नहीं है. अमेरिकी पिछलग्गूपन ने हमें कई मोर्चों पर मारा है. ईरान से हमारे जो सहज संबंध थे, वे हमने अमेरिकी दबाव में कमज़ोर कर लिए. 90 लाख की आबादी वाले छोटे से देश इज़राइल के इतने क़रीब दिखने लगे कि पश्चिम एशिया के देश हैरान रह गए. जबकि अपने पास-पड़ोस से हमारे संबंध सहज नहीं हो पा रहे. चीन-पाकिस्तान अब पड़ोसी नहीं, दुश्मन हैं. नेपाल-श्रीलंका जैसे भरोसेमंद दोस्त फिसलते दिखाई पड़ते हैं. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि अरसे से भारत की विदेशनीति गड्डमड्ड रही है. पाकिस्तान के क़रीब जाते-जाते हम उससे दूर दिखने लगते हैं. चीनी राष्ट्रपति के साथ हमारे प्रधानमंत्री झूला झूलते देखे जाते हैं और फिर सीधे गलवान घाटी का दृश्य नज़र आता है. गुटनिरपेक्षता को हम नेहरू-इंदिरा युग की विरासत मान कर भुला चुके हैं.  

कुल मिलाकर एक विकल्पहीनता की स्थिति हमारे सामने है जिसमें 'वेट ऐंड वॉच" को हम अपनी नीति बता रहे हैं. बस दुआ ही की जा सकती है कि जब तक भारत इंतज़ार कर रहा है तब तक काबुल में फंसे उसके नागरिक या उससे जुड़े दूसरे देशों के नागरिक सुरक्षित रहें और देर-सबेर उनके वहां से निकल जाने का रास्ता बने.  

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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