This Article is From May 22, 2021

प्रधानमंत्री के आंसू सच्चे हैं तो क्या हुआ?

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Priyadarshan

मैं फिर दुहरा रहा हूं कि मैं उन लोगों में नहीं हूं जो प्रधानमंत्री के आंसुओं को बिल्कुल घड़ियाली आंसू मानते हैं. मुझे यह मानने में ज़रा भी गुरेज नहीं कि प्रधानमंत्री के आंसू सच्चे होंगे, वे दिल से निकले होंगे. कुछ दिन पहले राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के दौरान भी गुजराती पर्यटकों पर श्रीनगर में आतंकी हमले की ख़बर साझा करते-करते वे रो पड़े थे. तब भी बहुत सारे लोगों ने कहा कि ये आंसू नकली हैं. तब भी मैंने लिखा था कि वे असली आंसू होंगे.

लेकिन आंसू असली भी हों तो क्या? क्या आंसू बहाना संवेदनशील होने की निशानी है? यह भावुकता की निशानी है और भावुकता बहुत अच्छी चीज़ नहीं होती. भावुक लोग अक्सर तर्क का सााथ छोड़ देते हैं. वे भावनाओं में बह जाते हैं. 1984 में जो लोग इंदिरा गांधी की हत्या पर आंसू बहा रहे थे, वही लोग बाद में सिखों को बिल्कुल राक्षसों की तरह मार रहे थे. 2002 में जिन लोगों के आंसू गोधरा में जलती हुई ट्रेन के भीतर मारे गए कारसेवकों को लेकर रुक नहीं रहे थे, उन्हें अगले तीन महीने तक अट्टहास करते देखा जा सकता था जब पूरा गुजरात एक जलती हुई ट्रेन बना हुआ था.

भावुकता बहुत एकांगी चीज़ होती है. वह बहुत तात्कालिक चीज़ भी होती है. हम नकली कहानियों पर भावुक हो उठते हैं. हम घटिया फिल्मों पर आंसू बहाने लगते हैं. जीवन में जो लोग अपनी बहनों को प्रेम करने पर गोली मार दें, वे भी सिनेमा में नायिका का संघर्ष देख रो सकते हैं. बहुत सारे लोग अपने कुत्ते-बिल्लियों की मौत पर दुखी होते हैं, लेकिन गली के कोने पर आधी रात को ठंड में भीख मांगते बच्चों को देखकर वे नहीं पसीजते.

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भावुकता प्राकृतिक तौर पर आ जाती है. जिन लोगों से हम जुड़े होते हैं, उनके प्रति एक तरह की अतिरिक्त उदारता और आवेग का अनुभव करते हैं. लेकिन संवेदनशीलता विकसित करनी पड़ती है. संवेदनशील होने के बाद अपने दिए हुए संसार को और बड़ा करना, और ज़्यादा फैलाना है. संवेदनशील होने का मतलब वास्तविक दुखों और तकलीफ़ों के प्रति सजग होना होता है. संवेदनशील होने का मतलब तर्क और विवेक के साथ ममत्व को जोड़ना होता है.

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प्रधानमंत्री सिर्फ़ भावुक हैं या संवेदनशील भी हैं? इसमें सीधे-सीधे कोई लकीर खींच देना- या प्रधानमंत्री को किसी एक ओर खड़ा कर देना भी वैसी ही असंवेदनशीलता या भावुकता होगी जो हमारे बहुत सारे साथी मोदी विरोध में दिखाते हैं. लेकिन इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री अगर संवेदनशील हैं भी तो कई अवसरों पर उन्होंने इस संवेदनशीलता का परिचय नहीं दिया है. अगर वे संवेदनशील होते तो बंगाल की चुनावी रैली में उमड़ी भारी भीड़ पर खुशी जताने की जगह चिंता जताते- लोगों से अपील करते कि वे घर जाएं और कोरोना से दूर रहे. लेकिन उन्हें एक बात भी इस आशंका ने नहीं घेरा कि इतनी भारी भीड़ के बीच कहीं कोरोना भी टहल रहा है. वे संवेदनशील होते तो नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुछ सम्मान के साथ देखते, उनसे संवाद करते और उनको आश्वस्त करने की कोशिश करते कि उनकी नागरिकता ख़तरे में नहीं पड़ेगी.

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बल्कि प्रधानमंत्री संवेदनशील होते तो देश के भीतर एक बड़े तबके में फैली असुरक्षा की भावना को ठीक से पहचानते और उसे अपने साथ लेने की कोशिश करते हुए अपने उद्धत बहुसंख्यक समर्थकों से अपील करते कि वे ऐसी कोई हरकत न करें जिससे इस देश के दूसरे समुदायों के भीतर यह डर या शिकायत हो कि उनको दूसरे दर्जे का नागरिक न बना दिया जाए.
एक बात और, आंसू बहाना हमेशा संवेदनशील होने की निशानी नहीं होता. कई बार आंसू रोकना भी संवेदनशीलता की पहचान होती है. दुखों का सार्वजनिक प्रदर्शन संवेदनशीलता नहीं होती, दुखों को अपने भीतर दबा कर रखना भी संवेदनशीलता की निशानी है.

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1980 में जब इंदिरा गांधी के जवान बेटे संजय गांधी की मौत हवाई हादसे में हुई थी तब उन्हें चाहे जितना दुख रहा हो, इसका उन्होंने सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया. तब पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी एक तस्वीर अब भी सबकी स्मृति में टंगी हुई है जिसमें वे काला चश्मा लगाए अपने बेटे का शव निर्निमेष भाव से देख रही हैं. वे एक मज़बूत और संवेदनशील नेता थीं- सार्वजनिक विलाप उनको पसंद नहीं था.

सच यह है कि यह देश दुखों से भरा है. इन दुखों पर हमारे नेता वाकई रो दें तो उनके आंसुओं से ही एक समंदर बन जाए लेकिन वे अपने आंसुओं को जैसे चुनावों के लिए या भाषणों के लिए संभाल कर रखते हैं. शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री का भी गला रुंधता है तो बहुत सारे लोगों को घड़ियाल की याद आती है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...


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