अब हिंदी में आई यह दलित-कथा ज़रूर देखी जानी चाहिए

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प्रियदर्शन

2018 में एक तमिल फिल्म आई थी- पेरियरम पेरुमल. यह एक दलित लड़के की कहानी है, जो वकील बनने निकला है- इस भरोसे से कि यह पढ़ाई दमन और उत्पीड़न की उसकी दुनिया बदल देगी. अब उसका रीमेक हिन्दी में धड़क-2 के नाम से सामने आया है.  हिंदी के सिने-संसार को इस लिहाज से तमिल का कृतज्ञ होना चाहिए कि उसके माध्यम से एक अच्छी, सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत बताती फिल्म हिंदी में भी आ गई.

'धड़क 2' को देखना भारत में जातिगत उत्पीड़न के उन प्रत्यक्ष और परोक्ष अनुभवों से आंख मिलाना है, जिसे वृहत्तर भारतीय समाज पहचानने से भी इनकार करता है- यह कहता हुआ कि यह तो किसी पुराने ज़माने या पिछड़े इलाक़े की बात लगती है. ऐसी फिल्म अब हिंदी के मुख्यधारा सिनेमा के बीच बनाई और दिखाई जा सकती है- यह तथ्य भी बताता है कि बहुत धीरे-धीरे ही सही, समाज उन तबकों के प्रति संवेदनशील हो रहा है, जिन्हें वह पहले देखने को तैयार नहीं होता था. इसका दूसरा पक्ष यह है कि जिसे दलित या पिछड़ी चेतना कहते हैं, उसका उभार अब इतना मज़बूत हो चुका है कि उसके भरोसे एक फिल्म बनाई जा सकती है. इसके पहले जो 'धड़क' बनी थी, वह भी मराठी की मशहूर फिल्म 'सैराट' की तर्ज पर बनी थी, इससे यह समझ में आता है कि सिनेमा में दलित-पिछड़े आंदोलनों की नुमाइंदगी के लिहाज से तमिल-मराठी जैसी क्षेत्रीय कहलाने वाली भाषाएं हिंदी से आगे हैं.

बहरहाल, 'धड़क 2' की शुरुआत एक छोटे से कमरे में ख़ुद को 'भीम' से जोड़ने वाले एक दलित युवा और उसकी दोस्त के बीच संवाद से होती है. उस कमरे से लड़की के निकलते ही एक मनोरोगी क़िस्म का शख़्स डिलीवरी ब्वॉय बन कर आता है और इस दलित युवा को मार डालता है. यह ध्यान आता है कि भारत में जातिवाद भी एक मनोरोग ही है. आने वाले समय में फिल्म एक लॉ कॉलेज के परिसर में चलती है, जहां एक दलित युवक इस उम्मीद और ख़्वाब के साथ पढ़ने आया है कि यह पढ़ाई उसके उन संकटों से उसे निजात दिलाएगी जो अपनी जातिगत पहचान की वजह से उसे झेलने पड़ते हैं. यहां फिर उसे एक दोस्त मिलती है, जो वकीलों के कुलीन परिवार से है, लेकिन इस दोस्त के समानांतर वह दुनिया भी है जो इस लड़के को ज़रा भी भूलने नहीं देती कि वह किन बस्तियों से आया है, उसकी जातिगत हैसियत क्या है और उसे ऊंचे ख़्वाब देखने की कैसी सज़ा दी जा सकती है.

पूरी फिल्म जैसे तनाव के तार पर चलती है. बेशक, यह तनाव उसकी अंतर्वस्तु से निकला है- यानी उस मूल कथ्य से, जिसमें कहानी की कल्पना की गई है, लेकिन कहानी जिस तरह बुनी गई है, उसमें हल्के-फुल्के हास्य के लम्हे भी हैं. वैसे इस हास्य के भीतर भी दर्द और विडंबना की कई लकीरें महसूस की जा सकती हैं. यह एक प्रेम कथा हो सकती थी, लेकिन जातीय गुमान और नफ़रत की मारी दुनिया इसे लगभग असंभव करने की कोशिश में लगी रहती है.



फिल्म की कई परतें हैं. एक परत हिंदी और अंग्रेज़ी के बीच उस भेदभाव की है, जिसमें वकालत जैसा नफ़ीस काम अंग्रेज़ी में ही संभव माना जाता है और हिंदी पढ़ने वाले छात्रों की पृष्ठभूमि अलग से पहचान ली जाती है. दूसरी परत स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव की है जिसके लिए आधार 'इज़्ज़त' को बनाया जाता है. यह इज्जत बचाने के लिए अनचाही शादी से लेकर खुदकुशी क़रार दी जाने वाली हत्याएं तक शामिल हैं. फिल्म में कई सिहराने वाले दृश्य भी हैं. तीसरी परत उस बेईमान मध्यवर्गीय मानसिकता की है, जो आधुनिक तो होना चाहती है, लेकिन कुप्रथाओं में अपने पांव फंसाए रखने को संस्कार मानती है. यहां जाति देखकर शादियां होती हैं और उदारतापूर्वक लड़कियों को काम करने की 'इजाज़त' दी जाती है, लेकिन अपनी मर्ज़ी से जाति या धर्म के कठघरे पार करने या शादी करने की नहीं.

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फिल्म की पटकथा में कई मार्मिक दृश्यों की बुनावट है. ट्रेन की पटरी पर बांधे जाने वाले जीव का दृश्य बिल्कुल हृदय विदारक है. बाद में इसी दृश्य की पुनरावृत्ति होती है तो कलेजा दहल जाता है. नायक के पिता दरअसल नाचने-गाने वाले कलाकार हैं. उनके साथ जो सलूक होता है, वह भी दिल तोड़ देने वाला है. फिल्म के कई संवाद बार-बार याद आते हैं. मसलन, नायक कहता है, 'हम अपनी औकात बदल सकते हैं, लेकिन जात नहीं बदल सकते.' या फिर एक दृश्य में कॉलेज का प्रिंसिपल कहता है,  'मैंने कहा था, यहां लड़ाई नहीं पढ़ाई करनी है, लेकिन अगर लड़ने और मरने के बीच चुनने की नौबत हो तो लड़ना ही पड़ेगा.' ये संवाद और ऐसे कई संवाद शाज़िया इक़बाल द्वारा निर्देशित ये फिल्म देखते हुए किसी तीर की तरह गड़ते हैं.

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बेशक, फिल्म मुख्यधारा की है तो बहुत सारी छूटें ली गई हैं. बिल्कुल अंत में एक शख़्स का हृदय परिवर्तन भी कुछ लोगों को शायद हज़म न हो, लेकिन फिल्म अपना संदेश पहुंचाने में कामयाब रहती है- हम अब भी एक बीमार समाज हैं, जिसमें गहरा भेदभाव, पाखंड, अंधविश्वास सबकुछ जमा है.

'सैयारा' के रोमांस और 'सन ऑफ़ सरदार 2' की कॉमेडी के मुक़ाबले यह फिल्म हमें कहीं ज़्यादा वास्तविक आईना दिखाती है. 'सैयारा' में युवा कई सपने देखते हुए जाते और निकलते हैं,'सन ऑफ़ सरदार' देखने के लिए कुछ देर तर्कशीलता को स्थगित रखना पड़ता है, लेकिन 'धड़क 2' देखते हुए बार-बार एक असुविधाजनक यथार्थ से आंख मिलानी पड़ती है. फिर भी
जिन लोगों को सामाजिक बदलाव का ख़याल कुछ लुभाता है, जिन्हें तमाम भेदभावों से भरी संरचनाएं चुभती हैं, जिन्हें संस्कारों की आड़ में नफ़रत के पोषण का खेल अरुचिकर और अस्वीकार्य लगता है, उन्हें यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए.

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर के पद पर हैं....)

अस्वीकरण: इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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