This Article is From Nov 15, 2021

मन्नू भंडारी: परंपरा की देह और आधुनिकता की आत्मा

विज्ञापन
Priyadarshan

मन्नू भंडारी का उपन्यास 'आपका बंटी' मैंने लगभग छलछलाती आंखों से पढ़ा था. ये मेरे किशोर दिनों की बात है. मां-पिता के टकराव के बीच फंसे बंटी की कथा बहुत सारे लोगों को रुलाने वाली थी. बाद के वर्षों में कई बार यह पढ़ने को मिला कि इस उपन्यास ने कई घरों को टूटने से बचाया, दंपतियों के बीच के तलाक़ स्थगित कराए. यह अनायास नहीं था कि 'आपका बंटी' हिंदी के सर्वाधिक बिकने वाले उपन्यासों में रहा. इत्तिफ़ाक़ से उसी के आसपास मैंने राजेंद्र यादव का 'सारा आकाश' भी पढ़ा. यह भी वैसी ही लोकप्रिय कृति साबित हुई. लेकिन 'आपका बंटी' ने मुझे जितना जोड़ा या तोड़ा, 'सारा आकाश' ने नहीं. शायद इसलिए भी कि मूलतः मेरी कच्ची-किशोर संवेदनाएं बंटी की छटपटाहट से कहीं ज़्यादा जुड़ती थीं, सारा आकाश के संवादहीन पति-पत्नी की विकलता-व्याकुलता से नहीं.

इसके बाद कभी मैंने 'एक इंच मुस्कान' पढ़ी- राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी की साझा औपन्यासिक कृति. इस उपन्यास में भी मुझे मन्नू भंडारी का हिस्सा ज़्यादा सहज, तरल और प्रवाहपूर्ण लगता रहा. बल्कि इस उपन्यास की भूमिका में राजेंद्र यादव ने माना कि उनको अपना हिस्सा लिखने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती थी जबकि मन्नू भंडारी बड़ी सहजता से अपना अंश पूरा कर लेती थीं. शायद राजेंद्र यादव की किस्सागोई की राह में उनकी अध्ययनशीलता और उनका वैचारिक चौकन्नापन आड़े आते होंगे (हालांकि जिस दौर में यह कथाएं लिखी जा रही थीं, उस दौर में राजेंद्र यादव का वह मूर्तिभंजक व्यक्तित्व सामने नहीं आया था जो बाद के वर्षों में 'हंस' के संपादक के तौर पर उनमें दिखता रहा और जिसकी वजह से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को उन्होंने लगभग हिंदी साहित्य के केंद्र में ला दिया.) 

हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि मन्नू भंडारी अध्ययनशील नहीं रहीं या उनमें वैचारिक चौकन्नापन नहीं रहा. उनका कथा-लेखन दरअसल यह बताता था कि मन्नू भंडारी अध्ययन से ज्यादा अनुभव को महत्व देती थीं और वैचारिक चौकन्नापन उनके लिए कहीं से उधार लिया हुआ अभ्यास नहीं था, बल्कि अपने अनुभव संसार से परखा गया एक निष्कर्ष था जो उनकी कहानियों में बड़ी खूबसूरती से खुलता था.

Advertisement

यह भी एक वजह है कि वे सहज और लोकप्रिय कथाकार रहीं. उनको जितने पाठक मिले, उतने आलोचक नहीं मिले. इस ढंग से देखें तो लगता है कि हिंदी आलोचना ने एक कथाकार के तौर पर उनकी उपेक्षा की. उनकी लगभग समकालीन कृष्णा सोबती को उनसे कहीं ज़्यादा पुरस्कार मिले और आलोचकों का प्यार भी. शायद इसलिए भी कि कृष्णा सोबती के भीतर एक आक्रामक स्त्रीवाद दिखाई पड़ता था जो मुखर भी था और अपनी मुखरता में लुभावना भी. उन पर वैचारिक तौर पर रीझना आसान था. 'मित्रो मरजानी' या 'डार से बिछुड़ी' की नायिकाओं में जो विद्रोही तेवर हैं (यह बहसतलब है कि सिर्फ़ तेवर हैं या वास्तविक विद्रोह भी) वे बहुत आसानी से कृष्णा सोबती को स्त्रीवाद के प्रतिनिधि लेखक के रूप में पढ़े जाने में मददगार होते हैं.

Advertisement

लेकिन मन्नू भंडारी की कहानियां ऊपर से जितनी सरल हैं, भीतर से उतनी ही जटिल भी. उनको पढ़ते हुए भ्रम होता है कि वे परंपरा का पोषण कर रही हैं, जबकि सही बात यह है कि पारंपरिक दिखने वाली उनकी नायिकाएं अपनी आधुनिकता का अपने ढंग से संधान करती हैं. इसकी मिसाल उनकी बहुत प्रसिद्ध कहानी 'यही सच है' जिस पर 'रजनीगंधा' जैसी फिल्म बनी. इस कहानी में पहली बार हमारे सामने एक लड़की है जिसे दो लड़कों के बीच अपने प्रेम को लेकर चयन की दुविधा है. इसके पहले हिंदी साहित्य और सिनेमा दो लड़कियों के बीच नायकों के चुनाव की कशमकश पर तो कहानियां बुनते हैं, लेकिन पहली बार मन्नू भंडारी अपनी नायिका को यह आज़ादी देती हैं कि वह अपने वर्तमान और पूर्व प्रेमियों में किसी एक को चुन सके. अच्छी बात यह है कि मन्नू भंडारी की कहानी में यह बात किसी आरोपित विचार की तरह नहीं आती, वह उनके भीतर की कशमकश से, उनके भीतर के द्वंद्व से उभरती हैं. मन्नू भंडारी के यहां पहली बार वे कामकाजी स्त्रियां दिखती हैं जो अपने स्त्रीत्व का मोल भी समझती हैं और उसको लेकर चले आ रहे पूर्वग्रहों को तोड़ने की अहमियत भी. साहित्य में दैहिक शुचिता की बहस पुरानी है और देह को अपनी संपत्ति मानने या यौन मुक्ति को स्त्री मुक्ति बताने तक का विचार भी लगातार सुर्खियों में रहा है- इस थीम पर लिखने वाले लेखक विद्रोही माने जाते रहे हैं और बाद के वर्षों में राजेंद्र यादव अपने इस विचार को लेकर कुछ बदनाम भी हुए, लेकिन दिलचस्प यह है कि यह मन्नू भंडारी हैं जो बिना किसी क्रांतिकारी मुद्रा के इस दैहिक शुचिता की अवधारणा की धज्जियां उड़ा देती हैं. उनकी कहानी 'गीत का चुंबन' की नायिका कणिका एक कवि निखिल के करीब आती है. किसी भावावेश के क्षण में निखिल कणिका को चूम लेता है. तिलमिलाई कणिका उसे थप्पड़ मार देती है. निखिल शर्मिंदा सा लौट जाता है. यह पश्चाताप उसका पीछा नहीं छोड़ता और एक हफ़्ते बाद वह कणिका को चिट्ठी लिखकर अपने कृत्य के लिए माफ़ी मांगता है. उसके शब्द हैं- 'मुझे अफ़सोस है कि मैंने तुम्हें भी उन साधारण लड़कियों की कोटि में ही समझ लिया, पर तुमने अपने व्यवहार से सचमुच ही बता दिया कि तुम ऐसी-वैसी लड़की नहीं हो. साधारण लड़कियों से भिन्न हो, उनसे उच्च, उनसे श्रेष्ठ.' 

Advertisement

लेकिन निखिल को पता नहीं है कि जैसे पश्चाताप उसका पीछा नहीं छोड़ रहा, वैसे चुंबन की स्मृति भी कणिका का पीछा नहीं छोड़ रही. उसके भीतर कहीं फिर से उस अनुभव को दुहराने की चाहत है. कहानी जहां ख़त्म होती है वहां कनिका गुस्से में उस पत्र को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक रही है- ‘साधारण लड़कियों से श्रेष्ठ, उच्च! बेवकूफ़ कहीं का- वह बुदबुदाई और उन टुकड़ों को झटके के साथ फेंक कर तकिए से मुंह छुपा कर सिसकती रही, सिसकती रही...“ अगर ठीक से देखें तो यह कहानी उसी दौर में बेहद प्रसिद्ध हुए धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता' के सुधा और चंदर के प्रेम को कहीं ज़्यादा ठोस धरातल देती है, उससे आगे चली जाती है. मन्नू भंडारी की कहानियां गुनाहों के देवताओं की नहीं, पश्चाताप करते इंसानों की कहानियां हैं.

Advertisement

बेशक, मन्नू भंडारी की अपनी सीमाएं रही होंगी- आलोचकों को कई ढंग से वे अनाकर्षक और अनुपयुक्त लगती रही होंगी. मूलतः मध्यवर्गीय जीवन के अभ्यास और विन्यास से निकला उनका कथा संसार न मार्क्सवादी आलोचकों के काम का था जो इसे बूर्जुवा मुहावरे की हिकारत के साथ देखते होंगे और न उन आधुनिकतावादियों की समझ में समाता था जिनके लिए विद्रोह बिल्कुल जीवन शैली का हिस्सा लगे, जो परिधानों में, संवादों में और आदतों में दिखे.

लेकिन क्या मन्नू भंडारी ने इस मध्यवर्गीयता का अतिक्रमण नहीं किया? मन्नू भंडारी ‘महाभोज' जैसा उपन्यास लिखकर अपने समय के कई लेखकों से आगे दिखाई पड़ती हैं. उपन्यास के एक दलित नायक को ज़हर देकर मार दिया जाता है तो दूसरे नायक को जेल में डाल दिया जाता है. निस्संदेह यह उपन्यास दलित अनुभव को नहीं रखता, लेकिन इस उपन्यास में लगभग गिद्धवत होती भारतीय राजनीति में दलितों के इस्तेमाल और उत्पीड़न का जो आख्यान वह रचती हैं, वह उन्हें अपनी तरह की अचूक समकालीनता देता है. यह अनायास नहीं है कि बाद के वर्षों में भारतीय रंगमंच पर इसे बार-बार एक उत्तेजक अनुभव की तरह खेला जाता रहा.

इस बात को भी याद करना जरूरी है कि मन्नू भंडारी अपने समकालीन लेखकों को प्रसिद्धि और रचनात्मकता में लगभग बराबर की टक्कर देती रहीं. अपने पति राजेंद्र यादव के अलावा मोहन राकेश, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा और भीष्म साहनी जैसे कथाकारों के बीच संभवतः वे अकेली थीं जो इनके पाये में मानी जाती थीं और यह पात्रता उन्होंने बस अपनी कहानियों और पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता के बूते हासिल की थी.

क्या इत्तिफ़ाक है कि बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशकों के बीच भारतीय भाषाओं की कई बड़ी लेखिकाएं सामने आती हैं. उर्दू की इस्मत चुगतई, पंजाबी की अमृता प्रीतम, बांग्ला की महाश्वेता देवी, उर्दू की ही कुर्तुलऐन हैदर और हिंदी की कृष्णा सोबती- सब जैसे एक ही दशक के आसपास की संतानें हैं. निस्संदेह इस सूची में उम्र में सबसे छोटी मन्नू भंडारी सबके बीच और सबसे अलग दिखती हैं. उनका जाना याद दिलाता है कि अब बीसवीं सदी के लेखकों की वह पीढ़ी चली गई जिस पर भारतीय भाषाएं गुमान करती थीं और जिसकी विपुल संपदा हमारे लिए अब भी एक थाती है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.