बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गठबंधन की राजनीति और विधानसभा के अंदर अपने फैसलों के कारण आजकल चर्चा में हैं. नीतीश शायद देश के ऐसे गिने चुने नेताओं में से होंगे जिन्होंने अपने सहयोगी से रूठकर, सहयोगियों के साथ जहां संयुक्त विधायक दल की बैठक ना बुलाने की ज़रूरत समझी, बल्कि मंगलवार को तो विधानसभा अध्यक्ष से रूठकर अपनी पार्टी के मंत्रियों और विधायकों के साथ सदन में अनुपस्थित रहे. जबकि इसी मानसून सत्र के लिए जनता दल विधायक दल की बैठक में उन्होंने न केवल उपस्थिति बल्कि सतर्क और मुस्तैद रहने का मंत्र दिया था, जो कि अख़बारों में छपा भी था.
ये तो सदन की बात रही, अब तो नीतीश कुमार, जो बिहारी उपराष्ट्रवाद की बात अपने शासन के शुरू के सालों में करते थे, अब उनकी हालत यह हो गई है कि इस बार राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने महिला और आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू के समर्थन का फ़ैसला किया है. इस निर्णय में किसी बहस की गुंजाइश तो नहीं है.
लेकिन जब अपने बिहार से पिछले चुनाव में मीरा कुमार इसी पद के लिए उम्मीदवार थीं तब? अब आम लोग सवाल कर रहे हैं कि आख़िर उन्होंने बिहार की बेटी, जो दलित समुदाय से आती थीं, उनका क्यों विरोध किया था? क्या अगर उनका समर्थन करते तो महिला सशक्तिकरण का जो उनका प्रयास अब तक के शासन काल में रहा है, उसमें एक और कड़ी न जुड़ती? साफ था कि नीतीश उस समय भाजपा की शरण में जाने के लिए बहाना ढूंढ रहे थे और रामनाथ कोविंद को तुरंत समर्थन कर उन्होंने उस वापसी की ज़मीन को मजबूत किया था.
इस बार भी बिहारी यशवंत सिन्हा मैदान में हैं, लेकिन फ़िलहाल उन्हें ये याद नहीं रहा, ये बात अलग है कि वे अविभाजित बिहार से दो बार लोकसभा के और एक बार राज्यसभा के सांसद भी रहे हैं. यशवंत सिन्हा बिहार में नेता विपक्ष भी रहे हैं. लेकिन चूंकि उन्होंने नीतीश के प्रति पिछले विधानसभा चुनाव में अभियान चलाया तो नीतीश कुमार को उनकी उम्मीदवारी पसंद नहीं और इस तरह आज़ादी के बाद नीतीश कुमार बिहार के पहले मुख्यमंत्री होंगे, जिन्होंने लगातार दो चुनावों में बिहारी उम्मीदवारों को पराजित करने में एक अहम भूमिका निभाई. हालांकि गठबंधन के ख़िलाफ उन्होंने भाजपा के साथ रहकर 2012 में यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के समर्थन में वोट इस आधार पर दिया था कि उनके निजी संबंध अच्छे रहे हैं. लेकिन उस समय वो भाजपा का साथ छोड़ने का मन बना रहे थे और उन्होंने एक आदिवासी समाज से आने वाले पीए संगमा के ख़िलाफ़ वोटिंग की थी.
बात केवल बिहारी उप राष्ट्रवाद को तिलांजलि देने की नहीं है, जिस विशेष राज्य के दर्जा को नीतीश कुमार ने अपने पहले शासन काल से लेकर भाजपा से हाथ मिलाने तक एक मुख्य मुद्दा बनाया था उस पर अब सवाल उठ रहा है कि गाहे बगाहे नीतीश कुछ बोल तो जाते हैं लेकिन आख़िर दुनिया की किस शक्ति का दबाव है कि उन्होंने आज तक न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ना वित्त मंत्री से कभी मिलकर अपने स्मरण पत्र देने की हिम्मत जुटाई. केंद्रीय मंत्रियों को छोड़िए, इस मुद्दे पर नीतीश अपने मंत्रिमंडल में भाजपा के मंत्रियों को आज तक समझा नहीं पाए. इसका असर साफ़ दिखता है कि हमेशा भाजपा के मंत्री विशेष राज्य के दर्जे की मांग की सार्वजनिक रूप से ये कहकर हवा निकाल देते हैं कि केंद्र इतना दे रहा है तो इसकी अब क्या ज़रूरत है. हालांकि नीतीश कुमार की पार्टी द्वारा सोशल मीडिया पर इस सम्बंध में एक अभियान "देश के प्रधान, बिहार पर दें ध्यान" कभी कभार दिखता है, लेकिन जिस अनमने ढंग से इस पर बात करते हैं, उससे साफ़ हो जाता है कि फ़िलहाल कुर्सी के लिए नीतीश इसको अधिक तूल ना देने की नीति पर चल रहे हैं.
केंद्र में यूपीए के शासन में या महागठबंधन के नेता के रूप में नीतीश बाढ़ की समस्या को लेकर केंद्र में मुखर और आक्रामक रहते थे.अब इन मुद्दों पर उनका मौन रहना साफ़-साफ एक आत्मसमर्पण का भाव दिखाता है. नीतीश सालों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर राज्य की समस्या पर ना बात करते हैं ना कोई मांग रखते हैं जबकि मनमोहन सिंह के समय साल में दो से चार बार मुलाकात के अलावा केंद्रीय मंत्रियों से दिल्ली यात्रा के समय मुलाक़ात आम बात थी. उसका असर था कि एक साथ दो केंद्रीय विश्वविद्यालय गया और मोतिहारी में बने. नीतीश मोतिहारी में चाहते थे जबकि उस समय केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल गया में और आख़िरकार दोनों ज़िलों को मिल गए.
नीतीश के समर्थकों के अनुसार अगर राज्य के मुद्दों पर नीतीश का रुख़ इतना ढीला ढाला लगता है तो उसका कारण है केंद्र का कठोर रुख़, जो उनके अनुसार या मांग पर कुछ देने के बजाय अपने राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान को देखकर घोषणा करता है. इन नेताओं का कहना है कि नीतीश कुमार को उनकी हैसियत का अंदाज़ा 2017 में ही हो गया था, जब पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की उनकी मांग को ना केवल प्रधानमंत्री ने भरी सभा में ख़ारिज कर दिया था बल्कि उसके बदले जो भी घोषणा की वो आज तक पूरी नहीं हो पाई. और एनडीए या यूपीए शासन काल की तुलना में अब नितिन गडकरी के अलावा केंद्रीय मंत्रियों के पास ना तो वो क्षमता है, ना इच्छाशक्ति. और डबल इंजन की सरकार की आप बात करेंगे तो नीतीश चिढ़ जाते हैं कि आख़िर मिलता तो कुछ है नहीं, तो ये तमगा क्यों?
हालांकि जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर भाजपा के विरोध के बावजूद नीतीश अपने स्टैंड पर कायम रहे लेकिन यहां उन्हें पूरे विपक्ष का ज़ोरदार समर्थन मिला और भाजपा अलग थलग पड़ गई थी. लेकिन विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने जैसे जब भी वो दबाव में दिखे, अपने बयानों से उनको राहत दी. ये बात अलग है कि इस चक्कर में सीबीआई छापे भी लालू यादव और तेजस्वी के घर पर डाले गए. लेकिन देखना यह है कि नीतीश क्या इस मुद्दे को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाएंगे?
लेकिन कुछ मुद्दों पर भाजपा के समक्ष समर्पण करने वाले नीतीश कुमार ने कई मुद्दों पर भाजपा के साथ कदम ताल भी किया है. जैसे विधानसभा में पिछले वर्ष पुलिस को बुलाकर विधायकों की पिटाई. इसके पक्ष में कोई भी तर्क दिया जाए लेकिन नीतीश कुमार के शासन काल की जब भी चर्चा होगी तब इस दिन के वीडियो फ़ुटेज उनके विधायक और विधायिका का कितना सम्मान करते हैं उसकी गवाही देगा. उसी तरीक़े से मीडिया पर नियंत्रण रखने और अघोषित सेन्सरशिप भी नीतीश ने केंद्र की तर्ज़ पर लगा रखा है. संवाददाता सम्मेलन को उन्होंने तीन पत्रकारों की उपस्थिति तक सीमित रखा हुआ है. निश्चित रूप से नीतीश कुमार के पास भाजपा की संगत में अपनी राजनीतिक जीवन की पूंजी गंवाने का नशा चढ़ा हुआ है.
(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.