This Article is From May 04, 2023

भारत में जनसंख्या प्रबंधन और नियंत्रण दोनों की जरूरत

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Dheeraj Kumar

भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए जनसंख्या के मामले में आगे निकल गया. भारत सहित दुनिया में इसपर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं हुई. भारत में समाज से लेकर सरकारों तक ने इसपर अपनी-अपनी चिंताए दर्ज की. और आश्चर्य नहीं कि आनेवाले समय में इसपर कोई बड़ी नीति भी सामने लाई जाए. जनसंख्या का विमर्श आधुनिक सदी का विमर्श है. प्राचीन समय से लेकर मध्य-काल तक जनसंख्या को लेकर कोई ऐसा विमर्श नहीं देखा गया जिसे तत्कालीन समय के एक संकट के रूप में देखा गया हो. यह मुख्य रूप से 19 वीं सदी से व्यापक विमर्श में आया. इसे दो सन्दर्भों में देखा जा सकता है- पहला, एक ‘संसाधन' के रूप में, और दूसरा, एक ‘खतरे' के रूप में.

‘खतरे' के रूप में देखने का अर्थ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या ने राज्य के सामने अनगिनत समस्याओं को पैदा किया. इसमें शामिल था भूमि की कमी, भोजन और अन्य खाद्य सामग्री की कमी, अनगिनत महामारियां, नियोजन की दिक्कतें, आवास की कमी, और अनगिनत अन्य समस्याएं. इसपर नीति नियंताओं ने अलग-अलग तरह के प्रस्ताव दिए. एक समय में फैमिली प्लानिंग के तहत ‘हम दो हमारे दो' का नारा भी दिया गया. लेकिन इसके बावजूद इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा. भारत में कुछ दशक पहले जनसंख्या नियंत्रण के लिए कठोर कानूनों का भी सहारा लिया गया. जिसमें बलपूर्वक नसबंदी तक शामिल थी. और जिसका जोरदार विरोध भी किया गया था. जिसका परिणाम तत्कालीन सरकार की 1977 के चुनावी हारों में भी देखा गया. 1975 में जब राज्य प्रायोजित सामूहिक बंध्याकरण(नसबंदी) प्रोग्राम चलाया गया था तो उसके भयावह नतीजें सामने आये थे. केवल एक वर्ष के भीतर करीब 6.2 मिलियन पुरुषों का बंध्याकरण कर दिया गया था. जिसमें से अनेकों की लापरवाही में हुए ऑपरेशन की वजह से मौतें भी हो गई थी. विज्ञान की पत्रकार मारा हीव्स टेएनडीह्ल के अनुसार, इस एक वर्ष में जितने पुरुषों के बंध्याकरण किये गए थे वह जर्मनी में नाजियों द्वारा करवाए गए बंध्याकरण से पंद्रह गुणा अधिक था.

इनके अलावा ऐसे भी विचार सामने आये जिसने जनसंख्या को एक सकारात्मक रूप में देखा. उन्होंने इसे एक ‘संसाधन' के रूप में विचार करने पर बल दिया. यह माना गया कि यह आधुनिक पूंजी के युग में एक ‘संसाधन' की तरह है.  इसके  समुचित प्रबंधन से राज्य की आर्थिक और सामरिक शक्ति को बढ़ाया जा सकता है. हालांकि, ऐसे मतों को बहुत अधिक मान्यता तीसरी दुनिया में नहीं मिली. 

सिक्योरिटी, टेरीटरी एंड पॉपुलेसन (1977-78) के व्याख्यान श्रृंखला में उत्तर के प्रख्यात चिन्तक मिशेल फूको इसपर बड़ा विमर्श लाते हैं. उन्होंने अपने विमर्श में ‘भौगोलिक-राज्य' को ‘जनसंख्या-राज्य' के अंदर समाहित करने की विचारधारा का मूल्यांकन किया. जनसंख्या आंकड़ों से संबंधित विमर्श को अधिक स्पष्ट तरह से राष्ट्रीय ताकत के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा. और इसे चिकित्साविज्ञान, पुलिस, राजनीति तथा अर्थशास्त्र के साथ जोड़ा गया. जनसंख्या वाले आंकड़ों ने जनसंख्या नियमितताओं और संसाधनों की उपलब्धता को उजागर किया. और फिर संसाधनों की राजनीति, राज्य की नीतियों के केंद्र में आ गया. जिसे भारत में आरक्षण आदि के मामलों में आसानी से समझा जा सकता है. 

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फूको बताते है कि जनसंख्या अंतिम लक्ष्य के रूप में सरकार के सभी अन्य लक्ष्यों से अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती है. संप्रभुता के विपरीत, सरकार का उद्देश्य स्वयं सरकार के कार्य का नहीं होता है, बल्कि जनसंख्या के कल्याण, उसकी स्थिति को सुधारना, उसकी समृद्धि, लंबी आयु, स्वास्थ्य आदि का होता है. और सरकार द्वारा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के उपाय खुद जनसंख्या एवं उससे सम्बंधित पहलू में समाहित होते हैं. जनसंख्या पर विमर्श  पोलिटिकल-इकॉनमी के साथ-साथ राज्य की नीतिगत संप्रभुता से जुड़ा मसला भी है. सुरक्षा, संसाधन का उचित वितरण, जनसंख्या में क्षेत्रीय संतुलन, रोजगार की उपलब्धता से सरे मसले शासन से जुड़े है एवं जिसे ‘गवर्नमेंटालिटी' के सन्दर्भ में समझा जा सकता है. 

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इस अवधारणा को शासनव्यवस्था की अवधारणा के रूप में पहली बार फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको द्वारा 1978 और 1979 में कॉलेज डे फ्रांस में रखी गई व्याख्यानों की एक श्रृंखला में पेश की गई थी. इसे फ्रेंच शब्द 'गवर्नमेंटल' से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है ‘सरकार के संबंध में'. हालांकि, फूको इसे ‘व्यवहार की व्यवस्था' कहता है - जिसका अर्थ पश्चिमी उदार राज्य के नागरिकों पर नियंत्रण रखने के एक सेट के माध्यम से होता है, जैसे स्वतंत्रता, आत्म-पूर्ति, आत्म-विकास और आत्म-सम्मान. संक्षेप में, फूको सरकार की व्यवस्था के रूप में या ‘व्यवहार की व्यवस्था' या ‘शासन कला' के रूप में इसे परिभाषित करते हैं, जहां ‘सरकार' एक विस्तृत नियंत्रण तकनीकों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करती है जो विषयों को शासनयोग्य बनाती है. जनसंख्या का बढ़ना, उसका प्रबंधन, बुनियादी सुविधाओं का आवंटन के साथ साथ जनसंख्या को नागरिक के तौर में देखते हुए इसे समुचित रूप से राष्ट्र निर्माण में प्रयुक्त करना, ये सभी राज्य का विषय बन जाता है. 

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भारत में यह पिछले कई दशकों से ‘संसाधन' से अधिक एक बड़े ‘संकट' के रूप में देखा जा रहा है. हालिया रिपोर्ट इस तथ्य की और इशारा कर रहा है कि भारत में जनसंख्या दर घट रही है. वर्ष 2021 में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 0.68% तक गिर गई थी और अगर पाकिस्तान से तुलना करें तो, 2017 में जनसंख्या वृद्धि दर 2% से ऊपर थी . साथ ही लेकिन आबादी का बढ़ना लगातार जारी है जो चिंताजनक है. भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह सच में एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि अन्य अनगिनत देशों की तुलना में इसके संसाधनों के अनुपात में जनसंख्या को देखे तो यह सुखद नहीं माना जा सकता है. पश्चिम के कई देश संसाधनों के मामले में जहाँ भारत से बहुत आगे हैं तो दूसरी तरफ जनसंख्या के मामले में बहुत पीछे. 

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ऐसी स्थिति में सरकार के पास कम से कम दो तरह से इसपर विचार करने के तरीके है- पहला इसके प्रबंधन से और दूसरा इसके नियंत्रण से. भारत में अबतक जो अधिकांश नीतियां रही है वह इसके नियंत्रण से सम्बंधित थी, लेकिन अनुभव से यह सामने आया कि इसका व्यापक जनविरोध हो सकता है. प्रबंधन का मतलब यहाँ जनसंख्या को संसाधनों के न्यायोचित वितरण से जोड़ना है. हालांकि, भारत जैसे विविध और संसाधन के अभाव वाले समाज में यह भी आसान कार्य नहीं है. ऐसे में प्रबंधन के साथ-साथ नियंत्रण की नीतियों से भी परहेज नहीं किया जा सकता. 

(धीरज कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्‍टेंट प्रोफेसर हैं. इन्होंने अनेक अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर शोध पत्र लिखा है.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण):इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.