दो अलग-अलग कहानी उपन्यास का अंत होते जब एक दूसरे से जुड़ जाती हैं तो इससे पाठकों को पहाड़ों में पलायन की समस्या से कहीं बड़ी जातिवाद की समस्या लगने लगती है.
भूतगांव: पहाड़ के खालीपन और पलायन की सामूहिक दास्तां
नवीन जोशी का उपन्यास 'भूतगांव' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, जिसका आवरण चित्र अनूप चंद ने डरावने अंदाज में बनाया है. कहानी की शुरुआत 'लच्छु कोठारी की सन्तानों का पुनर्जन्म' से होती है, जहां गांव के खालीपन को दर्शाने के लिए मुख्य पात्र के साथ एक कुत्ते को साथी बनाया गया है. यह कुत्ता पहाड़ से हो रहे पलायन और खत्म होती संस्कृति के दर्द का प्रतीक बन जाता है क्योंकि उसके जरिए लेखक ने पाठकों तक संदेश छोड़ा है कि पहाड़ों में अब इंसानों के पास बात करने को इंसान भी नहीं बचे.
मुख्य पात्र रिटायर फौजी ढहते घरों और सूने गांव का वर्णन करते हुए 'भूतगांव' की तस्वीर पाठक के मन में उकेर देता है. उसका यह कथन 'इन धुर-जंगलों को पता चलना चाहिए कि अभी हमारा गाँव जिंदा है. एक फौजी अभी हारा नही है' पहाड़ के प्रति लेखक की अदम्य आशा को दर्शाता है, मानो इसके जरिए लेखक कह रहे हैं कि वह भी अपनी कलम के जरिए सूने पड़ रहे इन पहाड़ों की कहानी दुनिया तक पहुंचाएंगे.
उपन्यास में कुत्ते का साथ होना पहाड़ के बुरे हालात की तस्वीर है. यह दिखाता है कि गांव सिर्फ घरों से खाली नहीं हुए, बल्कि वहां के लोगों के दिलों का रिश्ता और समाज की जान भी खो गई है.
ग्रामीण जीवन की सरल भाषा और मर्मस्पर्शी संवाद
उपन्यास की भाषा सीधी-साधी, आम बोलचाल के शब्दों में है, पर उसमें गहरा पैनापन छिपा है. पात्रों के संवाद जैसे पहाड़ की धरती से ही निकले हैं, 'जब पड़ता है बाघ के हाथ. तेरा बाप, तेरी महतारी, तेरे भाई-बहन कहाँ गए, कुछ पता है?' जानवरों का वर्णन भी इतना जीवंत है कि वे किताब से उतरकर सामने खड़े नज़र आते हैं 'तेरा बाप ससुरा, था बड़ा प्यारा. सफ़ेद तन पर काले बूट ऐसे, जैसे किसी ने बराबर छाप रखे हों.'
किताब के तीसरे किस्से में मुख्य पात्र जब अपने कुत्ते से बात करते हुए गांव को याद करता है, तो पंक्तियां भावुक कर देती हैं 'असली सूबेदारनी सुनती तो बहुत गाली देती. मगर गांव में होती तो सुनती. कबके चले गए ठहरे गांव छोड़कर.' लेखक ने जिस तरह से दो अलग अलग कहानियों को उपन्यास का अंत होते जोड़ दिया है, वह वाकई रोचक है और पाठक इस किताब को बिना बोरियत महसूस करते हुए एक बार में ही पूरा पढ़ सकते हैं.
जब यह दो कहानियां आखिर में जुड़ती हैं, तो पलायन, जाति के नाम पर भेदभाव और औरतों का संघर्ष, जैसी पहाड़ की बड़ी समस्याएं एक साथ सामने आ जाती हैं.
पलायन का विडंबनापूर्ण सच 'सड़कें और सूनी बस्तियां'
लेखक पलायन के बाद के विकास पर तीखा सवाल खड़ा करते हैं 'और अब तो सड़क भी आ रही सुना, अब आने जाने वाला कोई नही बचा. क्या लेने आ रही होगी अब वो सड़क?' यहाँ पहाड़ के खाली होते घरों और टूटते सामाजिक ताने-बाने का दर्द शब्द-दर-शब्द महसूस होता है. 'अंधे प्रेम का अजूबा किस्सा' अध्याय में 1963 के पलायन का जिक्र करते हुए लेखक लिखते हैं 'पहाड़ के लड़कों का भाग भागकर शहरों की तरफ जाना कोई नई बात नही थी.' यह दर्द आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जब शहरों में बसे पहाड़ी समाज की जड़ें आज भी कमजोर होना जारी हैं.
जातिवाद और स्त्री-जीवन का कड़वा सच
हीरा का पात्र जाति व्यवस्था पर करारी चोट करता है 'कैसा और कितना भी कायान्तरण हो गया हो, वह स्वयं जानती थी कि जन्म से ही 'शिल्पकार' का जो ठप्पा उसके अस्तित्व पर लगा हुआ है, उसे मृत्यु भी मिटा नही सकती.'
पृष्ठ 71-72 पर जातिगत भेदभाव को विस्तार से दर्शाया गया है. साथ ही, चुन्नी जैसी पात्र के माध्यम से पहाड़ी महिलाओं के संघर्ष को उकेरा गया है 'संजोग की बात, उस साल भैंस ने कटड़ा जना तो उसने पाल लिया... सयानों ने समझाया, अरे चुन्नी ब्वारी तू ये क्या कर रही? कोई औरतों वाला काम हुआ ये? मगर उसने किसी की परवाह नहीं की.'
वीरेंद्र और हीरा के किरदार पूरी कहानी में पाठक को अपने साथ बांधे रखते हैं. वीरेंद्र पर कभी गुस्सा आता है, तो कभी उसकी मजबूरियों पर दया भी आती है. हीरा का जीवन उसकी जाति की वजह से बर्बाद हो जाता है और कहानी का मुख्य पात्र रिटायर फौजी, फौज के अनुभवों से जब इस जातिवाद से ऊपर उठ जाता है तो वह पूरे समाज के लिए एक उदाहरण की तरह पेश किया गया है. इन सब किरदारों को लेखक ने इन बिल्कुल असली बनाया है, जैसे ये लोग हमारे बीच के ही हैं.
प्रवासी का टीसता दिल और साथ पहाड़ की न भूलने वाली सुंदरता
उपन्यास में शहरों में फंसे पहाड़ी की विरह-वेदना को शब्द दिए गए हैं 'गर्मियों में जब धूप और लू के थपेड़ों के बीच साइकिल चलानी पड़ती थी... उसे पहाड़ बेतरह याद आने लगता था.'
लेखक पर्यटकों की सतही दृष्टि पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं 'शहर के लोग दौड़ कर जाते हैं शिमला, मसूरी, नैनीताल. स्नो फॉल देखने का बड़ा शौक हुआ उनको. मगर बाबू, यहां रह के देखो स्नो फॉल में.' उपन्यास में पहाड़ की सुंदरता का चित्रण भी मन मोह लेता है 'देख नहाए धोए, तरोताजा, कितने खुश हो रखे पहाड़! कुहरा ऐसे लपेट लिया पश्मीना!'
ढहते घरों के साथ खत्म होती पहाड़ की अमिट विरासत
उपन्यास पहाड़ के खंडहर होते मकानों की पीड़ा को बयान करता है, यह उन मकानों को बचाने समाधान भी है 'मकान में सुबह शाम चूल्हा जला, धुंआ उठा तो मकान की उमर बढ़ जाती है. अब कौन जलाए यहां चूल्हा!'
लेखक ने गांव के हलवाहों के चार घरों का जिक्र कर पहाड़ के समाज की विषमताओं को दर्शाया है 'वहां हलवाहों के कुल चार घर थे. बामणों- ठाकुरों के गुलाम जैसे ठहरे वे.'
कहानी का अंत पाठक को पलायन और जातिवाद के साथ पहाड़ की मिटती पहचान के प्रति भी सचेत करता है.
(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.