'सैयारा' तू तो बदला नहीं है, मौसम जरा सा रूठा हुआ है

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मेधा

अध्यात्मिक नेता श्री एम ने कहा है,''मनुष्य के महानतम गुणों में से एक है- प्रेम करने की क्षमता, एक ऐसी शक्ति जो तर्क से परे होती है. प्रेम लोगों से असंभव को संभव करवा देता है. यह कोई हिसाब-किताब नहीं है, इसमें कोई गणित नहीं होता; यह गहरे स्तर की अनुभूति है और अक्सर कंपल्सिव होता है. यह पवित्र, रूपान्तरणकारी अनुभूति ही जीवन की धड़कन है, एक अदृश्य धागा जिसके जरिए यह संसार आगे बढ़ता और नया रूप लेता है. जब प्रेम अपनी चरमावस्था में पहुंचता है, स्वार्थ से परे चला जाता है, तब वह भक्ति बन जाता है. भक्ति में माशूक और आशिक एक हो जाते हैं. उनके बीच का भेद मिट जाता है. केवल समर्पण ही शेष रह जाता है.'' 

प्रेम में मैं का तू हो जाना

प्रेम को लेकर संसार का सर्वाधिक प्रसिद्ध सूफ़ी किस्सा कुछ इस तरह से है- आशिक माशूक के दरवाजे पर जाता है कि उसके इश्क की फरियाद सुन ली जाए और वह माशूक के दरवाजे पर दस्तक देता है. भीतर से आवाज़ आती है- कौन ? आशिक बोलता है- मैं. दरवाजा नहीं खुलता है. इसी तरह वह बार-बार अपने माशूक के दर पर जाता है, बार-बार दरवाजा खटखटाता है, बार-बार उससे वही सवाल पूछा जाता है और बार-बार वह वही जवाब देता है और बार-बार उसे अपने माशूक के दर से खाली हाथ लौटना पड़ता है. लेकिन आशिक माशूक का दर नहीं छोड़ता, उम्मीद नहीं छोड़ता. और एक दिन जब माशूक वही सवाल फिर से पूछती है- कौन ? तो आशिक बोलता है -तू . तब दरवाजा खुल जाता है और माशूक कहती है- जब तू मैं से तू हुआ तो मेरा हुआ. 

दरअसल प्रेम 'मैं' से 'तू' हो जाने की प्रक्रिया का ही नाम है. दो ही हफ्ते में ढाई सौ करोड़ का व्यवसाय करने वाली 'सैयारा' फिल्म प्रेम में मैं से तू हो जाने की कथा तो नहीं है, लेकिन मैं रहते हुए तेरा हो जाने की कहानी है, जिसे प्रेम के चरमावस्था से पहले की स्थिति कही जा सकती है. प्रेम की वह अवस्था जहां प्रेम और संसार एक साथ सध जाते हैं. अक्सर प्रेम को व्यवहारिक संसार में यह कह कर स्थगित कर दिया जाता है कि सांसारिक दुनिया में प्रेम संभव नहीं है. ऊपर कही गई सूफ़ी कहानी में एक जरूरी बात ये है कि न तो इश्क और न ही माशूक ही प्रेम में हार मानता है. जब तक आशिक प्रेम के मर्म को समझ कर अपने 'मैं' से मुक्त होकर 'तू' यानि प्रेम नहीं हो जाता, तब तक माशूक उसकी प्रतिक्षा करती है. यह कहानी प्रेम की की तैयारी को रेखांकित करती है. सूफ़ी किस्सा का ये तार सीधे जाकर जुड़़ जाता है जेन जी (z) पीढ़ी के लिए बनाई गई बालीवुड ब्लाक बस्टर फिल्म 'सैयारा' से. जीवन में प्रेम घटित हो जाने के बाद चाहे जितनी मुश्किले आईं, लेकिन न तो नायक न ही नायिका ने हार मानी. बल्कि दोनों ही प्रेम में पूर्ण समर्पण की प्रक्रिया से गुजरे और एक मनुष्य के रूप में अपनी कमजोरियों से पार जाकर वह कर सके जो सामान्य तौर पर जीवन में कर पाना संभव नहीं हो पाता. आज की जेन जी (z) पीढ़ी का रिश्तों और प्रेम का व्याकरण बहुत अलग है. आज तो प्रेम से ज्यादा ब्रेक अप शब्द प्रचलित है. 

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जेन जी के जमाने में प्यार

जेन जी (z) के लिए बनी इस फिल्म के बारे में विमर्श को आगे बढ़ाने से पहले प्रेम और रिश्तों के बारे में उनकी समझ पर थोड़ा विचार कर लेते हैं- आखिर ये जेनरेशन जेन जी (z) पीढ़ी कौन हैं?  दरअसल 1997 से 2012 के बीच जन्में लोगों को जेन जी (z) पीढ़ी कहा जाता है. ये पीढ़ी एक ऐसी दुनिया में बड़ी हुई है, जहां डिजिटल टेक्नोलॉजी, सोशल मीडिया, मानसिक स्वास्थ्य की जागरूकता और सामाजिक बदलावों का गहरा प्रभाव है. प्रेम और रिश्ते के बारे में उनके विचार पारंपरिक विचारों से बिल्कुल अलहदा हैं. ये पीढ़ी रिश्ते या प्रेम को संयोग नहीं मानती बल्कि इसके लिए योजना बनाकर डीजिटल ऐप का सहारा लेती हैं. यहां दिल धड़कने से प्रेम घटित नहीं होता, बल्कि डेटिंग ऐप पर विभिन्न विकल्पों में से एक चुनकर उसके साथ डेट करने को प्रेम मान लिया जाता है. और दिल की भाषा और आत्मा की गहराई में प्रेम की गूंज महसूस करने के बजाय फिजिकल कैमेस्ट्री को प्राथमिकता दी जाती है. और जाहिर है कि देह का व्याकरण बिना दिल के धड़के प्रेम का भार वहन नहीं कर पाता और बहुत जल्दी ब्रेक अप हो जाता है. थोड़े दिन उसका दुख मनाने और 'सुबह सइयां जी से ब्रेकअप और शाम में पार्लर में मेकअप के' आदर्श वाली पीढ़ी में रिश्तों को लेकर विकल्प की तो कमी नहीं है. जैसे हर मॉल , सड़क और नुक्कड़ पर भोजन और वस्त्र के मल्टीनेशनल विकल्प मौजूद हैं, वैसे ही डीजिटल बाजार में रिश्तों के मल्टीनेशनल विकल्प मजबूत हैं. ऐसे में प्रेम के एकांतिक भाव और समर्पण की प्रक्रिया तक पहुंचने का अवसर इस पीढ़ी को कामना आधारित अर्थ व्यवस्था नहीं देती. दरअसल प्रेम बाज़ार के विरोध की कीमिया भी है. प्रेम में पड़ा मनुष्य अपनी जरूरतों के लिए बाजार पर निर्भर नहीं रहता. प्रेम में पड़ा व्यक्ति उपभोग की मशीन नहीं रह जाता, बल्कि उसका जीवन उच्चतम मूल्यों से प्रेरित हो जाता है. इसीलिए बाज़ार की यह सर्वथा कोशिश है कि व्यक्ति प्रेम में पड़कर पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सके. वह हमेशा टूटा- बिखरा और अधूरा रहे और ऐसे में बाज़ार उसकी शरणास्थली बने.

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जेन जी (z) पीढ़ी ऐसे ही घोर बाजारू समय में पैदा हुई और पली-बढ़ी है. तभी उनके लिए कमीटमेंट, सरेंडर, प्रेम आदि बोझ लगते हैं. उसकी जगह पर घोस्टिंग, गैसलाइटिंग, ब्रेक अप ज्यादा आसान विकल्प लगते हैं. रिश्तों का स्वरूप भी बहुत बदल गया है, इस पीढ़ी में. सिचुएशनशिप, पॉलीअमरस (एक साथ कई रिश्तों में होना), ओपेन रिलेशनशिप आदि इस पीढ़ी के रिश्तों का स्वरूप है. ऐसे में प्रेम असंभव लगे तो इसमें आश्चर्य क्या? लेकिन इसमें इस पीढ़ी का दोष नहीं है. बिजली की रफ्तार से बदलती इस दुनिया और डेढ़ मिनट वाले रील के एटेन्शन स्पैन, टूटे हुए परिवारों और समाज में बड़ी होती पीढ़ी ने तो प्रेम के स्थायी और शाश्वत भाव का स्वाद अपने परिवार और समाज में शाय ही चखा हो इसलिए उनके भाव -संसार में प्रेम का अनुभव मौजूद ही नहीं है.बल्कि ये पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा ईमानदार और सच्ची है कि उसने कभी मुखौटा नहीं पहना. उनका जितना सच है उसे अपनी कमजोरियों के साथ जग के सामने रखा. इसीलिए इस पीढ़ी से प्रेम को लेकर ज्यादा उम्मीद रखी जा सकती है.

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प्रेम का मनोविज्ञान

चाहे जीवन की परिस्थितियां कितनी भी प्रेम के प्रतिकूल हो जाएं, लेकिन प्रेम मनुष्य की नैसर्गिक जरूरत है और वही उसकी जादुई शक्ति भी है. प्रेम देशकाल से परे जाकर मनुष्य के भीतर पड़ा हुआ शक्तिबीज है, जो अनुकूल वातावरण में अंकुरित होकर विशाल वटवृक्ष बन जाता है. 'सैयारा' फिल्म, जेन जी (z) पीढ़ी को वही अनुकूलित वातावरण देने की एक कोशिश है. यह कहना गलत नहीं होगा कि सिनेमाघरों में युवाओं की भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के वीडियो वायरल होने के कारण यह फिल्म इतना व्यवसाय कर पाई. ये प्रतिक्रयाएं कितनी प्राकृतिक थीं और कितनी प्रायोजित यह कह पाना मुश्किल है. इन पंक्तियों की लेखिका जब फिल्म देखने कल दिल्ली के एक थियेटर में गईं, तो वहां हर उम्र के लोग मौजूद थे, लेकिन बड़ी संख्या जेन जी (z) पीढ़ी की थी. लेकिन वहां किसी भी तरह का भावनात्मक उद्वेग लोगों में नजर नहीं आया. लेखिका के बगल की सीट पर अमेटी यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की पढ़ाई कर रहा एक जोड़ा बैठा था. युवती ग्रेजुएशन में थी और युवक एमए में. उन्होंने बताया कि वो वायरल हुए वीडियों के कारण ही इस फिल्म को देखने आए हैं. यदि वीडियो का वायरल होना प्रायोजित भी रहा हो, तब भी इसमें कुछ शुभता छुपी हुई है. वह शुभता जेन जी (z) पीढ़ी को प्रेम के मर्म की एक झलक दिखाने की शुभता. प्रेम की चमत्कारिक शक्ति में विश्वास जगाने की शुभता है. 

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प्रेम के पारंपरिक नैरेटिव के ढांचे के साथ बनी यह फिल्म सलमान खान और रेवती की फिल्म 'लव', रणबीर कपूर की फिल्म 'रॉकस्टार' आदि की याद दिलाती है. फिल्म का पहला भाग बहुत उम्मीद नहीं जगाता. नायक का एल्फा मैन और सत्तर के दशक के बचपन से वंचना और प्रताड़ना झेलते अमिताभ बच्चन के यंग एंगरी मैन के रूप में प्रोजेक्शन एक बारगी निराश कर देता है. लेकिन बाद में नायक के भीतर मस्कुलिन और फेमिनिन उर्जा का संतुलन देखा जा सकता है. नायिका 'मैंने प्यार किया' की भाग्यश्री की तरह पूर्ण समर्पित तो है, लेकिन उसका अपना व्यक्तित्व भी है. दरअसल प्रेम में भी दो के एक होने से पहले, व्यक्तित्व के एक दूसरे में तिरोहित होने के पहले व्यक्तित्व का होना अनिवार्य है. मैं ही न हो तो मैं तिरोहित कैसे होगा प्रेम में! व्यक्तित्व ही न हो तो व्यक्तित्व का विलय कैसे होगा!  यह बालीवुड की पुरानी प्रेम कथाओं से इस मायने में अलग है कि यहां नायक-नायिका दोनों की यात्रा अपने मैं से शुरू  होती है और फिर इस मैं के साथ पूर्णतः तू हो जाना प्रेम की जादूगरी से संभव हो जाता है. यहां व्यक्तिगत दुखों और कमजोरियों पर मास्क चढ़ाने की कोशिश नहीं है और न ही उसे आदर्शीकृत करने का प्रयास है, बल्कि प्रेम में धोखा खाकर पूर्णतः टूट चुकी सहज सरल मना कवि- हृदय नायिका और बचपन में ही मां की मौत और पिता द्वारा पूर्णतः परित्यक्त किए जाने और ज़ख्मी आंतरिक बच्चा (इनर चाइल्ड) के क्रोध, तनाव और रीजेंटमेंट से बना नायक अपनी वनरेलबिटी को स्वीकार करते हैं और वहां से अपने प्रेम की यात्रा शुरु करते हैं. फिल्म के निर्देशक मोहित सूरी ने जेन जी (z) पीढ़ी की जीवन की परिस्थिति और मन की स्थिति को समझते हुए फिल्म में उनकी क्षमताओं और कमजोरियों- दोनों को ईमानदारी से रुपायित करने की कोशिश की है. इसीलिए यह कहानी प्रेम की जादुई शक्ति के जरिए कमजोरियों से प्रस्थान और एकांतिक प्रेम का एक मेटा नैरेटिव बन जाती है अंधे स्वार्थ, दैहिक सुख के बहुविकल्प, प्रेम से ज्यादा कॅरियर और भोगपरायण जीवन को महत्व देने के बजाय प्रेम के मूल्य को जीने का पाठ प्रस्तुत करती है यह फिल्म. इस फिल्म के नायक–नायिका एक बार आत्मा और हृदय द्वारा प्रेम का शाश्वत स्वाद चखने के बाद एकांतिक ढंग से एक दूसरे के प्रति समर्पित हो जाते हैं. न मान- सम्मान, पद- प्रतिष्ठा-पैसा ही उनके प्रेम को डिगा पाता. न ही नायक और नायिका में से कोई मुश्किलों से घबरा कर अपने को चिल करने के लिए किसी तीसरी पार्टी के साथ इनवाल्व होते हैं. आसमान पर सितारे की ऊंचाई और एक सफल गायक के रूप में सारे संसार का प्यार की महत्कांक्षा रखने वाला क्रिश प्रेम के करिश्मा से केवल अपनी प्रियतमा की प्रेम की अकांक्षा भर रखने लगता है. यहां पर अमीर खुसरो की पंक्ति - 'खुसरो दरिया प्रेम का' क्योंकर न याद आए- जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार...

जो डूबा सो पार

क्रिश और वाणी की कहानी प्रेम में डूब कर पार उतरने की कथा है. सच तो यही है कि प्रेम में संसार खो देने के डर से जो प्रेमद्रोही बन जाते हैं, वह संसार में भी असफल ही रह जाते क्योंकि प्रेम में समर्पण और एकांतिकता आपको पूर्ण मनुष्य बनाता है और प्रेम के साथ की हुई दगा आपकी आत्मा और हृदय को ज़ख्मी कर देता है. आप पूर्ण व्यक्तित्व बनने के बजाए पहले से ज्यादा टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं. और जो डूबने का साहस कर पाता है, प्रेम में आई मुश्किलों के आगे घुटने नहीं टकेता तो उसे इश्क हकीकी और इश्क मज़ाजी दोनों मिलता है. संसार और प्यार उस व्यक्ति के जीवन में अपने सर्व-सुंदर रूप में खिलता है. यही क्रिश और वाणी की कहानी में भी होता है. यह फिल्म न केवल जेन जी बल्कि हर पीढ़ी को अपने भीतर की प्रेम की जादुई शक्ति से रूबरू कराने का काम कर सकती है. और जो प्रेम से भयभीत होकर प्रेम से द्रोह कर बैठे हों - हो न हो उन्हें यह फिल्म संसार के प्रपंच को छोड़कर अपने प्रेम तक लौटने की शक्ति दे! नई पी़ढ़ी को प्रेम की एक नई भाषा दे जो उन्हें यौन-स्वेच्छाचार से प्रेम की ओर लौटने का रास्ता दिखा सके. सच की कहा है, ''सैयारा तू तो बदला नहीं है, मौसम जरा सा रूठा हुआ है.'' और इस तरह प्रेम से रूठे इस मौसम को प्रेममयी करके मनुष्य को अपने भीतर मौजूद 'सत्यम शिवम् सुंदरम' के उपहार को लौटाने की कथा बन जाती है यह फिल्म.

अस्‍वीकरण: लेखिका मेधा दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में पढ़ाती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी हैं और उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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