This Article is From Feb 03, 2024

राम मंदिर के लिए संघर्ष से लेकर भारत रत्न मिलने तक....आसान नहीं है भारतीय राजनीति में लालकृष्ण आडवाणी होना

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Sachin Jha Sekhar

लालकृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani) आजाद भारत की राजनीति का ऐसा चेहरा जिसने राजनीति की धारा को बदल दिया, 1970-1980 के दशक तक के कांग्रेस केन्द्रित राजनीति को 90 और 2000 के दशक आते-आते उन्होंने भाजपा केंद्रित बना दिया. 1980 के दशक तक भारत में वामपंथ और दक्षिणपंथ की राजनीति में वामपंथ काफी आगे चल रहा था. 80 के बाद आडवाणी फैक्टर सामने आता है और फर्क की शुरुआत हो जाती है.

90 के बाद के वर्षों में हुए आर्थिक सुधारों की वजह से वामपंथ कमजोर होता गया. वहीं दूसरी तरफ स्वदेशी के नारे के बावजूद भी राष्ट्रवाद मजबूत होता चला गया. और यह मजबूती आडवाणी के नेतृत्व से ही हासिल हुई थी.

पार्टी फर्स्ट की नीतियों पर जीवन भर चलते रहे आडवाणी

किसी भी पार्टी के लिए आडवाणी से अधिक समर्पित कार्यकर्ता मिलना असंभव जान पड़ता है. 1992 में अपने द्वारा बनाई गई राम लहर के बाबजूद उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को नेता मान लिया. 2014 में जब आडवाणी राजनीति में सक्रिय थे फिर भी पार्टी ने उस समय गुजरात के सीएम रहे नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाया, तो पार्टी के फैसले को आडवाणी ने स्वीकार कर लिया. जबकि पार्टी के इस फैसले के खिलाफ आडवाणी के दौर के ही कई नेता विद्रोह करने तक पर उतर आए थे. लेकिन आडवाणी ने पार्टी के हर फैसले ना सिर्फ स्वीकार किया  बल्कि सरआंखों पर भी रखा.

 2014 में जिस कालाधन के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सत्ता में आए वो 2009 में आडवाणी का मुद्दा था, हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली थी.

जैन हवाला कांड के बाद छोड़ दी थी सांसदी

एक तरफ जहां राजनेता अंतिम समय तक सत्ता और पद बचाने के लिए संघर्ष करते हैं. वहीं, ये वही आडवाणी हैं जिन्होंने सिर्फ आरोप लगने भर से ही संसदीय राजनीति से दूरी बना ली थी. 90 के दशक में जब लाल कृष्ण आडवाणी की राजनीति अपने चरम पर थी तो उसी समय एक डायरी सामने आयी. जिसे  ‘जैन हवाला कांड' के नाम से जाना जाता है. उसमें कुछ बड़े नेताओं और अधिकारियों के नाम थे। एक पत्रकार ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की.

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इस डायरी में लालकृष्ण आडवाणी का भी नाम था. जब इसकी खबर आडवाणी तक पहुंची उन्होंने तत्काल अपने सांसदी से इस्तीफा दे दिया. इतना ही नहीं उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि जब तक पाक साफ नहीं हो जाऊंगा चुनावी राजनीति में हिस्सा नहीं लूंगा. 1996 के लोकसभा चुनाव में आडवाणी ने BJP के लिए जमकर मेहनत की, लेकिन चुनाव में नहीं उतरे.

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13 दिनों के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो आडवाणी उस सरकार का हिस्सा भी नहीं बने. नंबर 2 की हैसियत से मुरली मनोहर जोशी ने शपथ ली थी. कुछ दिनों बाद आडवाणी को कोर्ट से क्लीन चिट मिल गई. अदालत से पाक साफ होने के बाद आडवाणी की संसदीय राजनीति में वापसी हुई.

आइडियोलॉजी+इम्प्लीमेंट
आडवाणी की राजनीति की खासियत रही कि उन्होंने विचारों को जमीन पर उतारने के लिए काफी मेहनत की. मंडल कमीशन की रिपोर्ट को जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने लागू किया तो इसे BJP के अखंड हिंदुत्व की राजनीति के लिए एक बड़े खतरे के तौर पर देखा गया. उससे पहले BJP की हिंदुत्व की राजनीति की ऐसी स्वीकार्यता नहीं थी.

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आडवाणी ने चुनौती को स्वीकार करते हुए मंडल बनाम कमंडल के डिस्कोर्स को जन्म दिया. बाद के दिनों में इसके लिए जनसमर्थन हासिल करने के लिए उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्राएं कीं. समय के साथ उनकी राजनीति को बड़ी स्वीकार्यता मिली.

SIMI पर प्रतिबंध
लगभग 5 साल तक देश के गृहमंत्री रहने के दौरान लालकृष्ण आडवाणी के फैसलों में विचारधारा को लेकर उनका क्लियर स्टैंड झलकता है. जिस तरह कुछ समय पहले देश के कई राज्यों में PFI पर कई घटनाओं को अंजाम देने के आरोप लगे थे, वैसी ही घटनाएं 2000 के दौर में SIMI (Student islamic movement of india) पर लगे थे. गृहमंत्री रहते हुए आडवाणी ने SIMI पर प्रतिबंध लगा दिया था. कई विपक्षी दल SIMI पर प्रतिबंध के खिलाफ थे, लेकिन आडवाणी ने न सिर्फ संगठन पर प्रतिबंध लगाया बल्कि, उसके सदस्यों के खिलाफ देश भर में कार्रवाई भी की.

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POTA कानून के लिए संसद का बुलाया था संयुक्त सत्र
आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 (POTA) भारत की संसद द्वारा 2002 में पारित किया गया था. POTA का उद्देश्य आतंकवाद विरोधी अभियानों को मजबूत करना था. देश की संसद पर 13 दिसम्बर 2001 को हुए हमले के दौरान लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे. इस घटना के बाद आतंकवाद के खिलाफ मजबूत कानून की जरूरत महसूस हो रही थी. हालांकि इस कानून के मसौदे को लेकर विपक्षी दल नाराज थे.

BJP सरकार के पास राज्यसभा में जरूरी आंकड़े नहीं थे. सरकार ने संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर विधेयक पास करवाया था.

पार्टी ने कहा तो मांग ली माफी
लालकृष्ण आडवाणी ने हमेशा पार्टी को सबसे ऊपर रखा. 2004 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद, 2005 में आडवाणी पाकिस्तान गए वहां वे जिन्ना की मजार पर पहुंचे. आडवाणी ने जिन्ना का पाकिस्तान में महिमामंडन किया. लालकृष्ण आडवाणी के कदम का पहली बार BJP में ही भारी विरोध देखने को मिला. RSS के नेताओं ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी थी. भारत वापस आने के बाद जब उन्हें पार्टी में विरोध की खबर मिली तो उन्होंने माफी मांग ली. विवाद को खत्म कर दिया.

आप वैचारिक रूप से आडवाणी के विरोधी हो सकते हैं. लेकिन एक संगठनकर्ता, एक पार्टी कार्यकर्ता एक त्यागी पुरुष के रूप में आपको आडवाणी का सम्मान करना पड़ सकता है. इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बाद भी परिवारवाद से दूर रहने वाले आडवाणी ने पार्टी को ही परिवार समझा.

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सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं.

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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