This Article is From Dec 24, 2023

आसान नहीं था अमृता प्रीतम का इमरोज होना, 'मोहब्बत की दुनिया' में हमेशा याद रखी जाएगी ये कहानी

Advertisement
Nishant Mishra

मशहूर कवि और चित्रकार इमरोज (Imroz) का 97 साल की उम्र में निधन हो गया. इमरोज का असली नाम इंद्रजीत सिंह था. इमरोज प्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) के साथ संबंधो को लेकर चर्चा में आए थे, इसलिए जब भी इमरोज का नाम आता है तो वहां अमृता का आना स्वाभाविक हो जाता है. इस दुनिया के उस पार एक हसीन दुनिया में अपने इमरोज के इंतेजार में बाहें फैलाए खड़ी अमृता का नज्म आज करीब 18 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद मुकम्मल हुआ...

Advertisement

'मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरुँगी
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूँगी'

26 जनवरी, 1926 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे इमरोज  की मुलाकात अमृता प्रीतम से 1950 के दशक में हुई थी, उस दौर में वह पहले से ही पंजाबी साहित्य में जानी- मानी हस्ती के रूप में विख्यात थीं. 31 अक्टूबर 2005 में प्रीतम की मृत्यु होने तक, करीब 40 वर्षों से तक वे एक दूसरे के साथ रहें. इमरोज का अंतिम संस्कार उत्तरी मुंबई के कांदिवली में दहानुकरवाड़ी श्मशान में किया गया, प्रीतम की पोती ने उन्हें मुखाग्नि दी. इमरोज  के करीबी रहे अमिय कुंवर ने बताया कि इमरोज कुछ दिनों से स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था.

Advertisement

'उसने जिस्म छोड़ा साथ नहीं'

2005 को अमृता की मौत हो गई, जिसके बाद इमरोज अमृता की याद में कहा कि "उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं. वो अब भी मिलती है कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में, कभी ख्यालों के उजाले में, हम उसी तरह मिलकर चलते हैं, चुपचाप हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं. उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं." 

Advertisement

हमेशा याद रखी जाएगी ये प्रेम कहानी 

इमरोज और प्रीतम के बीच की यह अनोखी लव स्टोरी भारतीय कला और साहित्य के क्षेत्र में एक खूबसूरत अध्याय है, जिसे इतिहास के पन्नों में बहुत ही खूबसूरत तरीके से याद रखा जाएगा. कहा जाता है कि प्रीतम की सबसे प्रसिद्ध कृतियों में से एक, 'मैं तैनू फिर मिलांगी' इमरोज  को समर्पित थी. जब अमृता राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज प्रत्येक दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उनका इंतेजार करते थे. लोग उन्हें कभी कभी ड्राइवर भी समझ लेते लेकिन उन्हे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उन्होंने तो अमृता के लिए कई अच्छी नौकरियों को भी ठुकरा दिया था. इमरोज ने अमृता के लिए एक किताब लिखी जिसका नाम 'अमृता के लिए नज्म जारी है' दिया, इस किताब को 2008 में पब्लिस किया गया.

Advertisement

मुश्किल है इमरोज होना

इमरोज  ने एक बार बताया था कि वो अक्सर अमृता स्कूटर पर ले जाते थे, तब उनके पास कार नहीं हुआ करती थी. अमृता की उंगलियां हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं. चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए इमरोज की पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. इससे उन्हें पता चला कि वो साहिर को कितना चाहती थीं!

Advertisement
इमरोज ने कहा कि 'लेकिन इससे फ़र्क क्या पड़ता है. वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूं.' मुहब्बत में इतनी आजादी भला कहा देखने को मिलती है. इसलिए इमरोज के लिए यह कथन बिल्कुल सटीक है कि "मुश्किल है इमरोज होना, रोज रोज क्या, एक रोज होना"

अमृता की एक गजल जो आज भी याद की जाती है...

'कलम ने आज गीतों का काफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूं
मेरे हाथ से हिज्र का कांटा निकाल दे..'

(निशान्त मिश्रा NDTV में पत्रकार हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Topics mentioned in this article