30 मई को 'अंतरराष्ट्रीय आलू दिवस' के तौर पर मनाया जाने लगा है. इसकी शुरुआत पिछले साल ही हुई. आलू की ओर सबका ध्यान खींचे जाने के पीछे कई ठोस वजहें हैं. कुछ तो बेहद जरूरी. फिलहाल इस फसल को अलग-अलग नजरिए से, अलग-अलग रंग के चश्मे से देखने की कोशिश करते हैं.
आलू : एक जटिल सवाल
आलू को लेकर एक सवाल तो एकदम कॉमन है. बायोलॉजी के पेपर में पूछा जाता है कि आलू एक फल है, तना है या जड़? अब लीजिए. न तो इसका स्वाद फल जैसा मालूम पड़ता है, न ही यह कभी तने जैसा तना हुआ नजर आता है. जमीन के नीचे उगता जरूर है, पर सिर्फ ये देखकर इसे सीधे-सीधे जड़ भी नहीं बोल सकते. साइंस के हिसाब से देखना होगा. बायोलॉजी में तो कद्दू, भिंडी, परवल, यहां तक कि करेला और मिर्च को भी 'फल' ही बोलते हैं. अब जिसको मिर्ची लगती हो, लगती रहे!
इतना तो तय है कि आलू एक जटिल और कन्फ्यूजन पैदा करने वाला सवाल है, जो एग्जाम में रैंकिंग ऊपर-नीचे करवाने में बड़ा रोल अदा कर सकता है. यहां तक कि आलू में किसी का पॉलिटिकल करियर संवारने या बिगाड़ने की क्षमता भी मौजूद है. यकीन नहीं होता ना?
राजनीतिक रसूख
अगर राजनीति में ऐसे लोग न हों, हर कोई, हर किसी से मुंह फुलाए ही बैठा रहे, तो अब तक न जाने कहां-कहां, कितनी बार त्रिशंकु विधानसभाएं गठित हुई होतीं. मध्यावधि चुनाव का कितना बड़ा खर्चा टैक्सपेयर के माथे पर पड़ता. भला हो ऐसे लोगों का, जो सत्ता का गणित गड़बड़ाने पर आगे आकर कहते हैं- मैं हूं ना!
पहले एक गीत खूब बजता था, 'जब तक रहेगा समोसे में आलू...' पता नहीं, इसके आगे की लाइन क्या थी. कई साल से यह गीत कहीं बजते नहीं सुना. आपको कुछ याद है क्या?
मेरे सोना रे!
राजनीति में आलू के किस्से और भी हैं. यहां की गलियों में कोई खाते-पीते, उठते-बैठते 'आलू' बोलता है, तो सामने वाले को 'सोना' सुनाई पड़ता है. जैसे आलू न हुआ, कोई सचमुच का सोना हो गया! जरा सोचिए, आलू और सोने के बीच भी कुछ तुलना हो सकती है क्या?
हो क्यों नहीं सकती. हमारे यहां के शायर तो 'मुखड़ा' को 'चांद का टुकड़ा' और 'नैन' को 'शराब के प्याले' तक कह दिया करते हैं. ऐसे में 'आलू' को 'सोना' कह देने में क्या हर्ज है? दोनों में समानताएं भी तो हैं. एक तो दोनों का रंग सुनहरा होता है. दोनों ही जमीन के नीचे से निकलते हैं. एक का बाजार-भाव अमूमन 10 ग्राम में बताए जाने का चलन है. अब दूसरा वाला भी 10-20 ग्राम के पैकेट में मिलने लगा है. अब बताइए, कोई कसर रह गई है क्या?
जुझारूपन की मिसाल
आलू ने अगर हर तरफ अपना रुतबा बढ़ाया है, सब्जियों के बीच बादशाहत कायम की है, तो यह अकारण नहीं है. दक्षिण अमेरिका में जन्मा और यूरोप के रास्ते दुनियाभर में पॉपुलर होता चला गया. और जरा जुझारूपन देखिए. कैसी भी जमीन हो, कंकड़ीली या पथरीली- यह सब पर आसानी से पकड़ बनाता चला जाता है. अपने यहां ऐसों को 'धरतीपकड़' की संज्ञा दी जाती है.
हर तरह के वातावरण में ढलते जाने और प्रतिकूलताओं से फाइट करने का माद्दा भी एकदम जबरदस्त. यही कारण है कि राजा-रानी का जमाना लद जाने के बाद भी आलू 'किचन किंग' बना हुआ है. इसकी कहानी तो सबको पता ही है. बिना किसी भेद-भाव के, हर तरह की सब्जियों से तालमेल बिठाकर रखना, सस्ती-महंगी, हर तरह की प्लेट के लिए खुद को तैयार कर लेना, और मुसीबत की घड़ी में अकेला ही उठ खड़ा हो जाना इसे लीडर बनाता है. देखा, आलू हो जाना इतना आम नहीं!
यूएन और आलू
आलू पर मौज-मस्ती के बीच एक गंभीर चर्चा बेहद जरूरी है. बात दिसंबर, 2023 की है. संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने इस फसल के लिए एक दिवस (30 मई) समर्पित किए जाने का फैसला किया. कारण कई हैं. इन्हें देखा जाना चाहिए.
यूएन के मुताबिक, आलू दुनियाभर की पांच मुख्य खाद्य फसलों में से एक है. इस तरह, यह दुनियाभर के लोगों के पेट भरने में अपना खासा योगदान करता है. आलू छोटे किसान भी आसानी से उपजा लेते हैं. गांव-गांव की महिलाएं कम जमीन में, घर-आंगन में भी इसे रोप लेती हैं. कह सकते हैं कि भूख और कुपोषण दूर करने में इसका जोड़ा ढूंढना मुश्किल है. इसके पोषक-तत्त्वों और स्वाद से तो दुनिया वाकिफ है ही.
एक बेहतर 'फूड बैंक' होने के साथ-साथ आलू लोगों की आमदनी बढ़ाने का जरिया भी हो सकता है. यूएन का कहना है कि पिछले दशक में, दुनियाभर में आलू के उत्पादन में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जिससे रोजगार और आय में भी वृद्धि हुई है. इन्हीं बातों को लेकर दुनिया को जागरूक करने के लिए आलू-दिवस मनाए जाने का फैसला किया गया.
कई बार देखना...
निदा फ़ाज़ली साहब का एक बहुत ही चर्चित शेर है, "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी/ जिसको भी देखना हो, कई बार देखना". क्या लगता है, यह बात केवल आदमियों के बारे में है? लगता तो नहीं. जब एक आलू भी न जाने कितने ही रोल में, कितने ही चेहरे लिए घूमता फिरता है, तो औरों की क्या बात की जाए?
जानकार बताते हैं कि आलू की 5000 से ज्यादा किस्में धरती पर मौजूद हैं. सबके सब अपना किरदार निभाने में व्यस्त हैं. इसलिए जब भी हाट-बाजार या खाने की मेज पर आलू दिखे, तो मन ही मन यह शेर जरूर याद कर लीजिएगा. क्या पता, किसी शहंशाह का चेहरा सामने आ जाए!
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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