इंदौर-देवास हाईवे पर 40 घंटे तक खिंचे एक जाम ने कई ज़िंदगियां थाम दीं, सांसें रुक गईं, एंबुलेंसें रो पड़ीं, और जिम्मेदारों के कानों में कोई आवाज नहीं पड़ी. लेकिन NHAI के वकील महोदय को जैसे सत्य की प्राप्ति हो गई, उन्होंने कहा "लोग निकलते ही क्यों हैं घर से?" वाह! अब ये बात इतनी महान है कि इसका प्रवेश संविधान की प्रस्तावना में होना चाहिए "हम भारत के लोग, जो बिना वजह सड़कों पर निकलते हैं, वादा करते हैं कि अगली बार घर से बाहर निकलने से पहले NHAI से आज्ञा पत्र लेंगे."
बलराम पटेल नहीं रहे... उनका भतीजा सुमित गुस्से में कहता है, "हम घूमने नहीं निकले थे, बड़े पापा को अस्पताल ले जा रहे थे. एनएचएआई वालों के घर में ऐसा होता तो समझ में आता."
अब जरा बुद्धिबल्लभ जी को बुला लीजिए... वह आते हैं, कुर्ते की जेब में पेन और आंखों में अनुभव की मोटी ऐनक लिए और बोलते हैं,"सरकारी जवाबदेही की गली में जितनी बार भी गया, या तो गड्ढा मिला या बंद दरवाजा. अब अगर कोई एंबुलेंस में मरे, तो वो 'यात्रा करने की गलती' कर चुका था.'मृतक दोषी था, सड़क बेकसूर.'
40 घंटे का जाम था...कोई सोच भी नहीं सकता कि आज़ादी के 75 साल बाद, 40 किलोमीटर का रास्ता तय करने में 40 घंटे लग सकते हैं. मतलब जितने में लखनऊ से लंदन की फ्लाइट पहुंच जाए, उतने में इंदौर से देवास नहीं पहुंच सके.
इंदौर से देवास तक का रास्ता महज़ 40 किलोमीटर है, लेकिन जो साहसी यात्री यह दूरी तय करने का प्रयास करता है, वह अब चार धाम यात्रा से कम कुछ नहीं कर रहा, क्योंकि यहां जाम लगता नहीं, बस प्रकट हो जाता है, जैसे कथा में ब्रह्मा प्रकट होते हैं, और फिर वहीं अटक जाते हैं.
NHAI के एक वकील ने कोर्ट में ज्ञानामृत की वर्षा करते हुए फरमाया “लोग घर से इतनी जल्दी निकलते क्यों हैं?”
जैसे देश का सबसे बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर संकट यह नहीं कि सड़क टूटी है, बल्कि यह है कि लोग सही समय पर निकले!
- अब सोचिए, इंदौर-देवास हाईवे पर हर दिन करीब 35 से 40 हजार वाहन, यानी पीसीयू (पैसेंजर कार यूनिट) चलती हैं.
- इनमें करीब 25-30 हजार कारें, 10-15 हजार दोपहिया वाहन, और बाकी भारी वाहन होते हैं.
- अगर हर वाहन में 1.5 व्यक्ति भी मान लें, तो हर दिन 50 हजार लोग निकल पड़ते हैं इस रास्ते पर.
- यानी वकील साहब की दृष्टि में, हर दिन पचास हजार अपराध हो रहे हैं, लोग घर से निकल रहे हैं!
बुद्धिबल्लभ जी, जो अब पेंशन पा चुके हैं पर विचार देना नहीं छोड़ा, इस पर गंभीर हुए और बोले “इस देश में अब नागरिकता का मतलब सिर्फ वोट डालना है, सड़क पर चलना नहीं.”
और फिर उन्होंने अफसोस जताया कि “पंचायती राज में भले निर्णय गांव में होते थे, मगर सड़कों पर कम से कम बैलगाड़ी निकल जाती थी, अब तो फॉर्च्यूनर भी दम तोड़ देती है.”
फिर ये जवाब तो वाजिब ही है “लोग इतनी जल्दी क्यों निकलते हैं?” अब कौन समझाए इन अफसरों को कि लोग घर से निकलते हैं ताकि वापस लौट सकें.पर अब तो निकलना मतलब न लौटना हो गया है.
तीन मौतें हुईं
कमल पांचाल-घुटन से
बलराम पटेल-देरी से
संदीप पटेल- व्यवस्था से
पर NHAI का जवाब- “ये भ्रामक सूचना है.”
जैसे कोई नदी में डूब जाए और कहा जाए- “नदी नहीं डुबोई, आदमी ही ज़्यादा पानी में चला गया.” अब गड्ढे किसके? यह तय करने में वक्त बीत रहा है. जैसे मोहल्ले में कुएं में मेंढक गिरा हो और पंचायत बैठी हो- "गड्ढा नगरपालिका का था या लोक निर्माण का?"
अब इसे व्यंग्य न समझिए, यह विकास की नई परिभाषा है “सड़क का होना जरूरी नहीं, उस पर बोर्ड होना चाहिए कि ‘सड़क निर्माणाधीन है, कृपया धैर्य रखें.'”
इसी बीच हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाई गई. आनंद अधिकारी, जो नाम से लगते हैं कि अधिकारी होंगे, पर असल में आम नागरिक निकले. वह भी फंस गए थे जाम में. फिर सोचा कि जब इंदौर नहीं जा सकते तो क्यों न अदालत ही जाया जाए?
कोर्ट ने पूछा- "चार हफ्ते में डायवर्जन रोड बनाना था, अब तक क्यों नहीं हुआ?"
जवाब आया- "क्रशर हड़ताल पर था."
मतलब देश का इंफ्रास्ट्रक्चर अब क्रशर के मूड से चल रहा है.
कल को अगर रेता नाराज़ हो गई, तो सड़क भी कहेगी- "मैं नहीं बनूंगी!"
बुद्धिबल्लभ जी फिर बोलते हैं "सर, क्रशर की हड़ताल 10 दिन की थी, लेकिन काम रुका 3 महीने का था.
ये बहाने नहीं, साहित्य हैं. NHAI को 'सृजनात्मक बहाना सम्मान' मिलना चाहिए."
NHAI की वकील का ऐतिहासिक वाक्य- "लोग छुट्टी के दिन क्यों निकलते हैं?" मतलब अब छुट्टी पर घूमने जाना संवैधानिक अपराध है. NHAI की वकील ने कहा- "लोग छुट्टी में मॉल, होटल और मैरिज गार्डन क्यों जाते हैं?" अब ये भी अपराध है.यानी देश के 4.3 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी की सबसे बड़ी बाधा ‘घूमते हुए नागरिक' हैं.
हम डिजिटल पेमेंट में अमेरिका को पीछे छोड़ रहे हैं, ऑनलाइन ऑर्डर से लेकर जीएसटी तक में रिकॉर्ड बना रहे हैं,
पर अफसरों की नजर में सबसे बड़ा रिकॉर्ड-‘लोग अब भी सड़क पर निकल जाते हैं.' अब तो सरकार को नारा बदल देना चाहिए- सबका साथ, सबका विकास,किन घर के भीतर.
कल से सरकारी फॉर्म में लिखा होगा-"यह शपथ लेता हूँ कि अपनी पत्नी-बच्चों के साथ कहीं न जाऊंगा,घर में रहकर टीवी देखूंगा और केवल तभी बाहर निकलूंगा जब सरकार कहे.जाम, मौत या अफसरों की मूर्खता के लिए स्वयं जिम्मेदार होऊंगा.
अब तो लगता है अगली जनगणना के साथ "जन-गतिविधि सर्वेक्षण" भी होगा.
हर नागरिक से पूछा जाएगा कि "यों निकले? कहां गए? किस उद्देश्य से? किस टोल से गुज़रे?" र जो सही उत्तर देगा, उसे मिलेगा "सड़क उपयोग प्रमाणपत्र"
बुद्धिबल्लभ जी मुस्कुराते हैं और फुसफुसाते हैं अब सिस्टम कह रहा है कि जीडीपी बढ़ाइए, लेकिन सड़क पर मत आइए. खर्च करिए, पर घर में बैठकर. और अगर घर से निकलें, तो NHAI से अनापत्ति प्रमाणपत्र लीजिए."
निष्कर्ष?
जनता फंसी है-जाम में
व्यवस्था फंसी है- जवाबों में
न्यायपालिका उलझी है-तारीखों में
और विकास?
वो शायद बायपास से कहीं और डायवर्ट हो चुका है
क्योंकि, अब मौत से पहले पोस्टमार्टम फॉर्म भरना ज़रूरी है. लिखिए - ‘मैं मरने के बाद सरकार को दोषी नहीं ठहराऊंगा, क्योंकि मेरी गलती थी- मैं घर से निकला था.'
बुद्धिबल्लभ जी अब अंतिम निष्कर्ष देते हैं कि “यह देश तभी बचेगा जब लोग नहीं चलेंगे, गाड़ी नहीं चलेगी, सांस नहीं चलेगी, सिर्फ ‘प्रगति रिपोर्ट' चलेगी.” इसलिए, हे भारतवासियों, घर में रहिए, पनीर ऑनलाइन मंगाइए, Reel बनाइए, GDP बढ़ाइए पर सड़क पर मत आइए. क्योंकि सड़क अब जनता के लिए नहीं, सिर्फ 'विकास के पोस्टर' के लिए बनी है.
लेखक परिचयः अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में स्थानीय संपादक (न्यूज़) हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.