आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते भारत के कदम, क्या हैं रास्ते की बाधाएं

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प्रो. जसपाली चौहान

आत्मनिर्भरता आज समय की मांग बन चुकी है. हम भी आत्मनिर्भर होना चाहते हैं. हम स्वदेशी का आंदोलन चलाते हैं. विदेशी का बहिष्कार करते हैं. इस तरह से हम आत्मनिर्भर, जाना चाहते हैं. परंतु आत्मनिर्भरता की हकीकत पर जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह कार्य इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि हम दूसरों पर कुछ ज्यादा ही निर्भर हैं. हमारा दवा उद्योग, हमारे चिकित्सा उपकरण, हमारा सौर ऊर्जा उद्योग, हमारा मोबाइल और मोटर पार्ट्स का उद्योग और खिलौना उद्योग पूरी तरह से चीन पर निर्भर है. इसके बाद हमारे रत्न आभूषण, भारी मशीन, स्टील, प्लास्टिक, वनस्पति तेल जैसे उत्पादों के लिए हम संयुक्त अरब अमिरात, जापान, दक्षिण कोरिया और मलेशिया पर निर्भर रहते हैं. ऐसे में हम कैसे बन पाएंगे आत्मनिर्भर?

आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम

हम स्वयं उत्पादन करते नहीं है. दूसरों के भरोसे रहते हैं, विदेशी को तवज्जो देते हैं. उसका देशज विकल्प ढूंढना नहीं चाहते हैं.आयातित विदेशी वस्तुओं के साथ अपनी प्रतिष्ठा को जोड़कर चलते हैं. इसलिए 'लोकल के लिए वोकल' कभी नहीं बने, फिर कैसे दे पाएंगे अपनी अर्थव्यवस्था को गति? एक बड़ी चुनौती ब्रांड के मोर्चे पर भी है. गुणवत्ता के मामले में आज भी दुनिया हमारे उत्पादों पर भरोसा नहीं करती है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हम अपेक्षित संख्या में आकर्षित नहीं कर पाए हैं. उन्हें उचित माहौल नहीं दे पाए हैं, जिससे कि वो भारत में आकर उत्पादन कर सकें फिर कैसे मिल पाएगा भारतीय ब्रांड को वैश्विक मंच? वर्तमान सरकार ने उन्हें उचित माहौल देखकर आकर्षित करने के लिए ऋण सुविधाओं को काफी सरल बनाया है.आत्मनिर्भरता की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान लघु सूक्ष्म एवं मध्यम उद्योग-धंधों का होता है. ये इकाइयां बड़े पैमाने पर रोजगार मुहैया करवाती हैं. इससे आम आदमी के हाथ में पैसा आता है और उसकी क्रयशक्ति शक्ति बढ़ती है और फिर बाजार में मांग पैदा होती है. यह अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाती है, लेकिन अभी तक ये इकाइयां महंगी ब्याज दर और ऋण व्यवस्था के कठोर नियमों के कारण विशेष योगदान नहीं दे पाई हैं. 

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सरकार ने अब इसके लिए भी सस्ती ब्याज दरों पर सरल नियमों के साथ गारंटी मुक्त ऋण की व्यवस्था की है. ताकि वे इकाइयां अपना उत्पादन बढ़ाएं जिससे स्थानीय विनिर्माण और निर्यात को बढ़ावा मिल सके. बाद राहत पैकेज भी इनको दिया है.जो आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार की ओर से उठाया गया एक महत्वपूर्ण एवं सराहनीय कदम है. यह राहत पैकेज हमारे  किसान, श्रमिक, उधमी, स्टार्टअप्स से जुड़े नौजवान सभी के लिए नए अवसरों का दौर लेकर आएगा. नवाचार की दृष्टि से भी हम अच्छी स्थिति में नहीं हैं, यह कमी तभी पूरी होगी जब हम विश्व अर्थव्यवस्था के साथ कदम बढ़ाएंगे. यद्यपि अतीत में महामारियों ने ही नवाचार को गति देने का काम किया है और नए विचारों के साथ बदलाव को मुमकिन बनाया है. करोना काल में 'वर्क फ्रॉम होम' जैसी व्यवस्था हमारे देश में भी एक सामान्य सी बात हो गई है. यह व्यवस्था आर्थिक दृष्टि से किफायती भी है. हम सचमुच में आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं तो हमें सर्वप्रथम आयातित वस्तुओं का देशज विकल्प ढूंढना होगा. आयातित प्रत्येक वस्तु का उत्पादन स्वयं अपने देश में करना होगा. बेशक हम इसके कुशल उत्पादन में सक्षम हो या ना हो फिर भी हमें उत्पादन करना होगा. देश को उन क्षेत्रों में भी संसाधन उपलब्ध कराने होंगे, जहां उत्पादकता कम है. हमें कम लागत में महत्वपूर्ण उत्पादन करने वाले क्षेत्रों को और अधिक संसाधन मुहैया करवाने होंगे ताकि लाभ की स्थिति बनी रहे.

वोकल फॉर लोकल

हम विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की बात करते हैं परंतु हम तुरंत प्रभाव से विदेशी सामान का शत-प्रतिशत बहिष्कार भी आज की स्थिति में नहीं कर सकते हैं हमें तब तक वैश्विक आपूर्ति संख्या का हिस्सा बने रहना होगा हमारी उत्पादकता में इजाफा करते हैं. इसलिए कम से कम दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स या मोटर वाहन के पार्ट्स का आयात जारी रखना ही होगा परंतु अब ये जरूरी पार्ट्स भी हमें कई देश से आयात करने चाहिए ताकि वर्तमान समय में किसी एक देश के साथ मुश्किल होने पर आपूर्ति बाधित न होने पाए. 

अंततः आत्मनिर्भर तो हम भारतीय परिश्रम, भारतीय प्रतिभा और स्थानीय स्तर पर बने लोकल उत्पादों के दम पर ही बन सकते हैं. लेकिन हमारी आयात पर निर्भरता कम हो पाएगी हमें मेक-इन-चीन का जवाब मेक-इन-इंडिया से देना होगा. देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना ही होगा. भारत उत्पादकता हब तभी बन पाएगा जब देश का प्रत्येक व्यक्ति यह तय करेगा कि हम भारत में ही बनी चीजों का उपयोग करेंगे. इससे हमारी अर्थव्यवस्था को गति मिल पाएगी. यदि हमारे अंदर संकल्पशक्ति, आत्मबल और आत्मविश्वास है तो हम अवश्य ही आप निर्भर बनेंगे. आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में वैश्वीकरण का बहिष्कार नहीं है अपितु दुनिया के विकास में मदद की मंशा है हमारी संस्कृति तो 'वसुधैव कुटुंबकम' की संकल्पना में विश्वास रखती है.  भारत क्योंकि दुनिया का ही हिस्सा है ऐसे में उसकी प्रगति दुनिया की प्रगति में योगदान देगी.ऐसे में हम क्यों ना लें 'लोकल को  वोकल' बनाने का संकल्प?

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डिस्क्लेमर: प्रो.(डॉ) जसपाली चौहान दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में पढ़ाती हैं.डॉ. चौहान के 100 से ज्यादा रिसर्च पेपर पब्लिश हो चुके हैं. उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 

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