This Article is From Nov 01, 2021

धरती बचाने को कितनी ईमानदार है दुनिया?

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Ravish Kumar

क्या स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में जमा हुए G-20 देशों के कई नेता और कई देशों के प्रमुख धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए कोई ठोस फैसला कर पाएंगे? क्या राजनीतिक मजबूरियों और कोरपोरेट के दबाव से मुक्त होकर धरती को बचाने के लिए तुरंत कदम उठाएंगे या फिर टालने और दिखावटी कदम उठाने के कोई नए रास्ते निकाल लिए जाएंगे.

इस साल अगस्त में IPCC की रिपोर्ट ने ख़तरे की घंटी बजा दी है. अगले बीस सालों में ही औद्योगिक युग से पहले के तापमान की तुलना में धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक हो जाएगा. इस समय जब तापमान औद्योगिक युग के पहले के तापमान से 1.1 डिग्री सेल्सियस ही अधिक हुआ है, 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियम के बीच पहुंचने पर किस तरह की भीषण तबाही आएगी, यह कल्पना की भी बात नहीं है. बल्कि हाल के कुछ वर्षों के साथ-साथ इसी साल की कई घटनाओं को देखकर समझ सकते हैं कि क्या हो रहा है. प्राकृतिक आपदा से हर साल हज़ारों लोग मर रहे हैं और लाखों रुपये का नुकसान हो रहा है. क्या भारत के प्रधानमंत्री के इस भाषण से कोई ठोस रास्ता निकलता है.

भाषण अभी खत्म हुआ है, ज़रूरी नहीं कि तुरंत की तुरंत समीक्षा हो लेकिन हम देख सकते हैं कि भारत अपने स्तर पर क्या कर रहा है. उसमें ईमानदारी कितनी है. जलवायु संकट के लिए ज़िम्मेदार जो भी हैं, कुछ कम हैं कुछ बहुत ज़्यादा हैं लेकिन इसके असर से तबाह सभी हैं. जब तबाही में सब बराबर हैं तो जवाबदेही में भी सबको बराबर होना चाहिए. कोयला को लेकर भारत क्या कर रहा है?

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पिछले साल पर्यावरण संरक्षण एक्ट में सुधार कर अनिवार्य coal washing की शर्त हटा दी गई. जबकि जनवरी 2020 में नीति आयोग की रिपोर्ट है कि जितने भी नए कोल प्लांट होंगे उनके पास कोयले को धोने के लिए उच्च तकनीकी क्षमता से लैस व्यवस्था होनी चाहिए. पांच महीने बाद सरकार ने नया नोटिफिकेशन जारी कर कोयले की अनिवार्य धुलाई की शर्त समाप्त कर दी. जब विवाद हुआ तब सफाई दी गई कि जो थर्मल पावर कोयले की खदान से 500 किलोमीटर से अधिक की दूरी पर हैं उनके लिए धुलाई अनिवार्य नहीं होगी. तब जयराम रमेश ने तंज किया था कि 500 किलोमीटर के भीतर कोयला गंदा नहीं है और उसके बाद गंदा हो जाता है. अगर भारत क्लीन एनर्जी को लेकर चिन्तित होता तो 1997 से चले आ रहे इस नियम को समाप्त नहीं करता. भारत के कोयले में 30-40 प्रतिशत राख होती है इसलिए धुलाई ज़रूरी थी. सरकार ने कभी कोयले की धुलाई पर ध्यान ही नहीं दिया. अब तो धुलाई की शर्त ही हटा दी गई है. यही नहीं भारत सरकार 40 नई कोयला खदानों को लाइसेंस देने जा रही है. कोयले से चलने वाले नए थर्मल प्लांट को भी मंज़ूरी दी गई है और दी जा रही है. भारत में 75 प्रतिशत ग्रीन हाउस ऊर्जा क्षेत्र से आता है और 54 फीसदी ऊर्जा का उत्पादन कोयला से होता है. भारत ने तय किया है कि 2022 तक सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट ऊर्जा का उत्पादन करेगा लेकिन नवंबर 2020 में भारत की क्षमता 36.91 गीगा वाट पर ही पहुंच सकी. भारत इसे पहले के वर्षों की तुलना में ज्यादा बताता है लेकिन मौजूदा लक्ष्य से कितना पीछे रह गया इसकी बात नहीं करता. वही हाल वन क्षेत्रों का भी है. भारत का दावा है कि वन क्षेत्रों में विस्तार हुआ है लेकिन इस पर सवाल उठाने वाले कहते हैं कि 2030 तक जितना वन क्षेत्र करने का लक्ष्य है उसका 33 फीसदी ही अभी तक हासिल किया जा सका है. हर क्षेत्र में थोड़ा कर ज्यादा गुणगान हो रहा है.

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आए दिन आप सुनते होंगे कि इलेक्ट्रिक व्हीकल को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे प्रदूषण कम होगा. इसे एक फैशन की तरह पेश किया जा रहा है लेकिन जब तक बिजली का उत्पादन कोयले से होगा तब तक प्रदूषण कैसे कम होगा. इलेक्ट्रिक व्हीकल के लिए बिजली की मांग बढ़ेगी और बिजपी पैदा होगी कोयले से. इस तरह आप एक हेडलाइन से खुश होंगे लेकिन बाकी दो डेडलाइन का पता नहीं चलेगा. जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत कितना गंभीर है इसका एक उदाहरण देता हूं. राज्यसभा में CPI के सांसद बिनोय विस्वाम ने एक सवाल किया कि क्या पर्यावरण मंत्रालय ने इस बात का संज्ञान लिया है कि जलवायु परिवर्तन का क्या असर हुआ है, क्या इसके कारण बार बार प्राकृतिक आपदाएं हो रही हैं. इसके जवाब में पर्यावरण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे कहते है कि जी, हां. अवलोकनों से पता चलता है कि हाल ही के दशकों में भारत सहित विश्व भर में अतिविषय मौसमी घटनाओं में वृद्धि हुई है. तथापि, भारत के मामले में ऐसा कोई प्रमाणित अध्ययन नहीं है जिससे प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन का परिमाणित योगदान सिद्ध होता हो. हालांकि अनेक अध्ययनों के मामध्यम से सूखे, बाढ़ और हिमनदो के टूटने जैसी घटनाओं की निगरानी की जाती है किन्तु इन परिवर्तनों के लिए विशेष रुप से जलवायु परिवर्तन के निर्धारण की प्रक्रिया बहुत जटिल है और यह वतर्मान में एक उभरता विषय है.

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कोई अध्ययन ही नहीं है ये मंत्री जी कह रहे हैं जबकि कोई ऐसा महीना नहीं बीतता है जब भारत का कोई इलाका किसी प्राकृतिक आपदा की चपेट में नहीं होता है. मंत्री जी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन की भूमिका को लेकर कोई प्रमाणिक अध्ययन नहीं है.

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इस साल केरल, असम, उत्तराखंड और मराठवाड़ा में भारी बारिश, भू-स्खलन और बाढ़ की घटनाओं को याद कीजिए. नैनिताल जैसे पहाड़ी शहर के हिस्से में बाढ़ आ गई. साल दर साल हम देखते जा रहे हैं. मुंबई में बारिश की तबाही के बाद गुरुग्राम देखा, फिर चेन्नई को डूबते देखा. 2018 में केरल की बाढ़ की विभिषिका आप देख चुके हैं. 2019 में पटना में बाढ़ आ गई जिसमें कई लोग मारे गए थे. मौसम विभाग के अनुसार भारत के 15 राज्यों में लू चला करती थी लेकिन 2019 में 23 राज्यों में लू चलने की घटनाएं दर्ज की गईं. जम्मू कश्मीर में भी लू चली. 2019 में बिहार में लू से 184 लोग मर गए थे. गया और नालंदा में धारा 144 लगानी पड़ी थी ताकि लोग घरों में बंद रहें. मौसम की मार के कारण स्कूल तो आए दिन किसी न किस शहर में बंद होते रहे हैं. 2016 में राजस्थान के बाड़मेर में बाढ़ आ गई थी. कहीं बारिश अधिक होने लगी है तो कहीं से बारिश नदारद हो चुकी है. भारत का कोई सिरा मौसम की मार से नहीं बचा है. अमरीका से लेकर भारत तक में 45-50 डिग्री सेल्सियस तापमान आम हो चुका है. अमरीका के जंगलों में आग लगने की घटनाओं की संख्या 41 हज़ार से अधिक हो चुकी है. इस साल जुलाई में जर्मनी की बाढ़ से भयंकर तबाही आ गई. कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन से अब कोई देश सुरक्षित नहीं है. चीन में बाढ़ की घटनाएं बढ़ चुकी हैं. जलवायु परिवर्तन ने कहर दिखाना शुरू कर दिया है, ये भविष्य में नहीं होगा बल्कि हो चुका है और होता जा रहा है. दक्षिण अमरीका में नदियां सूखने लगी हैं तो जर्मनी में सूख चुकी नदियों में बाढ़ का रूप तूफानी हो गया. सुमुद्र के जलस्तर का बढ़ना भी चिन्ता का कारण है.

नेट ज़ीरो को लेकर बहुत बातें होती हैं. भारत सहित कई देशों ने कभी नेट-ज़ीरो का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया था. नेट ज़ीरो मतलब जितना ग्रीन हाउस पैदा करेंगे, उतना ही उसके सोख लेने का इंतज़ाम करेंगे. लेकिन कहा जा रहा है कि नेट ज़ीरो के नाम पर पर्यावऱण के सख्त नियमों को रोका जाने लगा है. यह बहाना बन गया है. कार्बन डाईआक्साइड हवा में पहुंच कर 150-200 साल तक ज़िंदा रहता है. वो कहीं खो नहीं जाता है. धरती का तापमान बढ़ाता रहता है. कोई फैक्ट्री अगर ग्रीन हाउस के उत्सर्जन को कम नहीं करती है और वह कहीं और पेड़ लगाने के लिए पैसे देती है तो इससे जवाबदेही पूरी नहीं हो जाती है. धरती का गरम होना तो जारी ही रहता है. नेट ज़ीरो को लेकर 12 देशों ने 2050 तक का लक्ष्य तय किया है. चीन और सऊदी अरब जैसे देश खानापूर्ति कर रहे हैं, 2060 तक का लक्ष्य तय कर रहे हैं.

दुनिया के पास वक्त कम है. धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है. अमीर देशों ने जवाबदेही पूरी नहीं की. कई दशक बहस और रिपोर्ट जमा करने में ही निकल गए. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा है कि ग्लासगो सम्मेल की नाकामी तय है, दुनिया के देश साफ साफ वादा नहीं कर रहे हैं कि धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोका जाए.

IPCC की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि बीस साल के भीतर ही तामपान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाएगा. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज IPCC की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि जब 1990 में इसकी पहली रिपोर्ट आई थी तब से लेकर अब इन कारणों को समझने का विज्ञान बहुत विकसित हो चुका है. इस समय यूपी और दिल्ली में डेंगू फैला है. इस बारे में भी कहा गया है कि अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ा तो मलेरिया और डेंगू के केस बढ़ेंगे. उन जगहों पर भी होंगे जहां इनके मामले कम देखे गए है.

कांफ्रेंस आफ पार्टीज़ का 26वां कांफ्रेंस होने जा रहा है. इसे ही COP26 कहते हैं. नैतिक रूप से ज़रूर भारत का पक्ष मज़बूत है कि धरती को प्रदूषित करने में उसका योगदना अमरीका, चीन, यूरोपीयन यूनियन के देशों की तुलना में बहुत कम है. ऐतिहासिक रूप से भारत को उपनिवेश बनाकर लूटा गया और उसके पैसे से इन देशों ने विकास के नाम पर धरती को प्रदूषित किया. लेकिन क्या यही तर्क भारत के भीतर लागू नहीं होता है. क्या भारत के भीतर उसी तरह की नीतियां और प्रक्रिया आज भी जारी नहीं हैं? क्या भारत के भीतर लाखों ग़रीब लोग बाढ़ से विस्थापित नहीं होते, लू से नहीं मरते. बाज़ार के नाम पर सबको ग्लोबल विश्व दिखता है लेकिन पर्यावरण के नाम पर सबको ग्लोबल विश्व क्यों नहीं दिखता है. क्या हम कह सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने भारत के लोगों को दुनिया के किसी भी हिस्से से कम प्रभावित किया है? न्यू लांसेंट कांउटडाउन रिपोर्ट के अनुसान केवल लू चलने के कारण 2019 में 118 अरब कार्य घंटों का नुकसान हुआ जो दुनिया में सबसे अधिक है. मछुआरे, किसान और निर्माण क्षेत्रों के लाखों मज़दूरों और किसानों पर इसका असर पड़ता है. निश्चित रूप से भारत, चीन, अमरीका और यूरोपीय देशों की तुलना में बहुत कम प्रदूषण करता है लेकिन क्या यही भारत के लिए अवसर नहीं है कि वह अपने स्तर को इसी पर रोक दे, आगे न ले जाए.

इसलिए केवल यह मत देखिए कि दुनिया में भारत की क्या ज़िम्मेदारी है, यह भी देखिए कि भारत के भीतर भारत की क्या ज़िम्मेदारी है. भारत अपनी ज़िम्मेदारी केवल अमीर देशों की तरफ उंगली दिखाकर नहीं टाल सकता. अमीर देशों ने बहुत ज़्यादा निराश किया है. दस साल पहले का वादा है कि सौ अरब डॉलर का क्लाइमेट फंड बनाएंगे जो अभी तक नहीं बन पाया है. ग़रीब देशों का समूह यह भी आरोप लगा रहा है कि बड़ी कंपनियों के दबाव में अमीर देशों के नेता फैसला नहीं कर रहे हैं, कदम नहीं उठा रहे हैं. सबको समझना होगा जब धरती ही नहीं बचेगी तो न कंपनी बचेगी न अमीर देश. ये और बात है सौ पचास लोग अपना अपना रॉकेट लेकर कुछ दिनों के लिए अंतरिक्ष चले जाएंगे, लेकिन उससे कोई हल तो नहीं निकलने वाला है.

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