जिस बहस को कबीर ने छह सौ साल पहले निबटा दिया था, वह 21वीं सदी के हिंदुस्तान में फिर से खड़ी हो गई है. तब भी कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों की कट्टरताओं का, उनके कठमुल्लेपन का मज़ाक बनाया था. उन्होंने व्यंग्य किया था कि पत्थर को पूजने से ईश्वर मिलता है तो वे पहाड़ पूजने को तैयार हैं और लगभग वामपंथी अंदाज़ में याद दिलाया था कि इससे तो वह चक्की भली है जिससे गेहूं पीस कर संसार खाता है. उन्होंने अज़ान का भी मज़ाक बनाया था- कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद बनाने वाले और उस पर चढ़ कर 'बांग' देने वाले मुल्ला से उन्होंने पूछा था- क्या बहरा हुआ ख़ुदाय?
उस दौर में भी संभव था कि कोई हिंदू या मुसलमान कबीर को पकड़ कर घसीटता हुआ बादशाह के पास ले जाता और अर्ज़ करता कि इसकी चमड़ी उधेड़ दी जाए क्योंकि इसने लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई है. लेकिन तब लोग वाकई अपने ईश्वरों या ख़ुदाओं पर इतना भरोसा करते थे कि उन्हें लगता था, कबीर उनका क्या बिगाड़ेगा. या फिर वे यह महसूस करते थे कि कुछ अक्खड़ ढंग से, लेकिन बात तो वह सही कहता है. कबीर ने भी कह रखा था- जो घर जारै आपना चले हमारे साथ. यानी वे घर जलाने, शीश कटाने सबके लिए तैयार थे.
हालांकि इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब धार्मिक पाखंड या सामाजिक चलन के खिलाफ़ खड़ी या अपना रास्ता, अपना ईश्वर या अपना धर्म तलाश रही शख़्सियतों को संगसार किया गया, जलाया गया, बेदर-बेघर किया गया. सरमद ने कहा कि ईश्वर नहीं है तो उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया. मंसूर ने इंसान में खुदा के दीदार करने चाहे तो उसे सूली पर चढ़ा दिया गया. मीरा अपमानित की गई. तुलसी के मानस को जलाने की कोशिश की गई, राम के अनन्य भक्त गांधी को गोली मार दी गई. ये सब उन वक़्तों की कारस्तानियां हैं जब समाज सिकुड़ा हुआ रहा, किसी न किसी संकरी मानसिकता की गली में फंसा रहा. जब-जब वह उदार हुआ, जब-जब उसने खुद को फैला हुआ महसूस किया तो उन सबको समेट लिया जो उसके विरुद्ध थे या उससे अलग थे. उसने भरोसा दिलाया कि वह सड़ी-गली मूल्य संहिताओं के पार जाकर खुद की पुनर्रचना करने का, खुद को पुनर्नवा करने का काम कर सकता है. जब दिल बड़ा रहा तो उसने परायों को जानने की कोशिश की और जब तंगदिली बढ़ी तो उसने अपनों को मारने की साज़िश की.
आज की दुनिया में भारत को भी लगातार एक तंगदिल समाज में बदला जा रहा है. इस समाज में अपने-पराये का भेद बहुत पुराना था, लेकिन अब तो उसे चरम घृणा की हदों तक ले जाया जा रहा है. यहां इन दिनों सार्वजनिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, वह या तो प्रदर्शन के लिए हो रहा है या फिर प्रतिशोध के लिए. यहां पूजा दूसरों को चिढ़ाने के लिए की जाती है, शोभायात्रा में दूसरे समुदायों को गालियां दी जाती हैं, अज़ान से मुक़ाबले के लिए हनुमान चालीसा को लाउडस्पीकरों पर बजाया जाता है. हनुमान चालीसा का पाठ अदृश्य का भय भगाने के लिए किया जाता है, लेकिन यहां वह भय पैदा करने के लिए किया जा रहा है. कभी ख़ुदा को मोहब्बत का दूसरा नाम कहते थे, ईश्वर प्रेम का पर्याय होता था, आज उसे क़त्लोगारत के देवता में बदला जा रहा है. शक, संदेह, नफ़रत, क़त्ल जैसे इस नए समाज के मूल्य बनते जा रहे हैं.
क्या आज लोगों को अपने ईश्वरों पर भरोसा नहीं रहा? क्या उनकी धार्मिकता ऐसी कच्ची है कि एक धक्के में उनकी आस्था हिल जाती है, उनकी भावना छिल जाती है? दरअसल यह कोरी या कच्ची धार्मिकता का मामला नहीं है. यह खुर्राट, पकी हुई राजनीति के साये में पली उस सयानी सांप्रदायिकता का मामला है जो एक बहुत बड़ी आबादी को अशिक्षित, बेरोज़गार और संवेदनहीन बनाकर अपने हित साधती है. वह पहचान के नकली खेल को इतना बड़ा बना डालती है कि हर पराया शख़्स दुश्मन मालूम होने लगता है, वह पूजा को भी एक अपवित्र कर्म में बदल डालती है और जो इस बात की तरफ उसका ध्यान खींचते हैं, वह उसकी जान लेने को आमादा रहती है.
ऐसा नहीं कि यह नया हिंदुस्तान रातोंरात पैदा हुआ है. इसे बरसों तक गढ़ा जाता रहा. बड़ी बारीकी, चालाकी और चुप्पी के साथ एक सांप्रदायिक विमर्श को इतना मज़बूत किया जाता रहा कि उसके आगे बाकी राजनीतिक विचारधाराएं और रणनीतियां बिल्कुल व्यर्थ होती चली गईं. उल्टे इस सांप्रदायिकता ने संसदीय राजनीति में ऐसा बल अर्जित कर लिया कि अब वह लोकतंत्र की दुहाई देती है और अपनी आलोचना पर याद दिलाती है कि जनता उसके साथ है, उसके आलोचकों के साथ नहीं. यह कुछ भावुक सी टिप्पणी हो गई है. इसमें उस वैचारिकता की छौंक नहीं है जो इन हालात की पड़ताल करे, उसके मूल तक पहुंचने का उद्यम करे. इसकी अपनी निराशाएं हैं. लेकिन डॉ राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि निराशा के भी कर्तव्य होते हैं. कबीर के बारे में कई किंवदंतियां हैं. एक यह है कि जब उनकी मौत हुई तो हिंदू-मुसलमानों में झगड़ा हो गया कि वे किसके हैं, उन्हें किसके साथ जाना चाहिए. जब चादर हटाई गई तो पता चला कि कबीर का शव तो फूलों में बदल चुका है. हिंदू-मुसलमान दोनों ने ये फूल बांट लिए और अपने-अपने घर गए.
हम सब जानते हैं कि यह महज कहानी है- एक कल्पना से उपजी हुई. लेकिन कौन होगा जिसने यह कल्पना की होगी, ऐसी कहानी गढ़ी होगी? वह कैसा समय होगा जिसमें इस कल्पना के लिए गुंजाइश रही होगी कि मृत्यु भी फूलों में बदल जाए. यह वह बड़े दिल वाला, बडे ख्यालों वाला समाज होगा, जिसे पता होगा कि कौन सी विरासत कितनी अनमोल है और उसे कैसे फूलों में बदल कर बचाया जा सकता है.
तो अभी जब सब कुछ शव में बदल रहा है, लाश हुआ जा रहा है, तब ज़रूरी है कि हम कबीर के बचे हुए पूल खोजें. या जो लाश हुआ जा रहा है उसे फूलों में बदलने की कोशिश करें. यह कबीर का जादू नहीं था, उस कल्पना का जादू था जिसने कबीर की शिक्षा से प्राण ग्रहण किए थे. क्या हमारे समय में यह जादू लौटेगा? बताना मुश्किल है. लेकिन यह जादू तभी लौटेगा जब इसे लौटाने का संकल्प भी उतना ही पक्का होगा, इसके लिए की जाने वाली पूजा भी उतनी ही सच्ची होगी, उसके लिए लिया जाने वाला संकल्प भी उतना ही दृढ़ होगा. क्या वह संभव है? पता नहीं, किसने लिखा है, लेकिन ऐसे मौक़ों पर अक़्सर याद आता है- जब कच्ची थीं मस्जिदें तो पक्के थे नमाज़ी, अब पक्की हैं मस्जिदें तो कच्चे हैं नमाज़ी. बस उम्मीद की जा सकती है कि पढ़ने वाले समझ जाएंगे कि यह किन नमाज़ियों, किन नए मुसलमानों की बात हो रही है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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