मैच ड्रॉ करवा पाने की काबिलियत को हल्के में मत लीजिए!

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Amaresh Saurabh

भले ही ऑस्ट्रेलिया के साथ गाबा टेस्ट ड्रॉ होने के लिए बारिश ही ज्यादा जिम्मेदार रही, लेकिन इससे अपने खिलाड़ियों की प्रतिभा पर शक नहीं किया जा सकता. हाथ से लगभग फिसलते जा रहे मैच को ड्रॉ तक पहुंचा पाना भी कोई कम बहादुरी की बात नहीं. दरअसल, ड्रॉ करवाने का ये हुनर सिर्फ खेलों में ही नहीं, लाइफ में और भी कई जगह बहुत काम आता है. देखिए, कैसे.

गाबा का मरहम

गाबा टेस्ट में टीम इंडिया पर फॉलोऑन का खतरा साफ मंडरा रहा था. जैसे हालात पैदा हो गए थे, उसे देखते हुए इस टेस्ट के नतीजे ने हमारी दुखती रगों पर मरहम ही लगाया है. कोई रोहित शर्मा के दिल से पूछे कि बतौर कप्तान लगातार 4 टेस्ट हारने के बाद उन्हें इस ड्रॉ से कितना सुकून मिला होगा. मेजबान टीम को सीरीज में बढ़त बनाने से फिलहाल रोक पाना भी हमारी जीत से कम है क्या?

हां, कुछ अति उत्साही लोग इस ड्रॉ से निराश हो सकते हैं. IPL का फॉर्मूला मन ही मन टेस्ट मैच में अप्लाई करने वालों को 54 ओवर में 275 रन का टारगेट आसान लग सकता है. पर ये केवल 'लगने' भर की बात है. असल बात यही है कि इस ड्रॉ में हमारी जीत है. यह ड्रॉ हमारी आदतों की जीत है. इस जीत का जश्न मनाया ही जाना चाहिए.

मैच ड्रॉ कराने के परंपरागत तरीके

गली-मोहल्ले में क्रिकेट खेल चुके लोग ही इस बात को ठीक से समझ सकेंगे कि एक हारते हुए मैच को ड्रॉ करवाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है. अपने किसी एजेंट से पिच पर गोबर या कीचड़ डलवा देना, सारे स्टंप उखाड़कर भाग खड़े होना, जीतती हुई टीम के सदस्यों को 'असंसदीय शब्द' कहकर झगड़ा खड़ा कर देना, रनों की गिनती या अंपायरिंग में बेईमानी का आरोप लगाना- ये सभी मैच ड्रॉ करवाने के ही परंपरागत तरीके हैं. उम्मीद है कि आज की नई पीढ़ी भी इनमें से कुछ फॉर्मूले जरूर आजमाती होगी.

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अच्छा हुआ, गाबा में हम वैध तरीके से, ससम्मान ड्रॉ खेल पाए. रही बात इंद्रदेव की, तो उनसे कौन पार पा सका है? कभी न चाहने पर भी बरसा जाते हैं, कभी चाहने पर भी तरसा जाते हैं.

वैसे सीमित ओवर वाले मैचों में बारिश के बाद भी नतीजे निकल सकें, इसकी खातिर इंसानों ने पुरजोर कोशिश की है. पहले यह डकवर्थ-लुईस (D/L) सिस्टम था. बाद में जाकर इसमें एक तीसरे इंसान की एंट्री हुई. अब इसका नाम है- डकवर्थ-लुईस-स्टर्न (DLS) सिस्टम. पता नहीं क्यों, कई प्रेक्षक अभी भी मानते हैं कि इसमें बाद में बल्लेबाजी करने वाली टीम को घाटा उठाना पड़ता है. अगर सचमुच ऐसी बात है, तो मैच ड्रॉ रखने में ही क्या दिक्कत है भाई?

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इंद्रदेव और हमारा जुगाड़

खेल-कूद के बीच अगर कभी बारिश न हो, तो दुनिया जान भी न पाए कि बारिश से बचने के लिए इंसान के पास कैसे-कैसे साधन उपलब्ध हैं. यह बारिश ही है, जो समय-समय पर हमारे भीतर छुपी हुई क्रिएटिविटी को कैमरे के सामने लाती रहती है. इस मायने में हम आज भी अव्वल हैं. दुनिया आज भी दाद देती है! कुछ याद आया?

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जरा याद कीजिए साल 1996 का वर्ल्डकप. पटना का मोइन-उल-हक स्टेडियम. किस तरह जिम्बाब्वे-केन्या के मैच में दुनिया में पहले-पहल आउटफील्ड सुखाने के लिए हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल हुआ था. क्या अद्भुत दृश्य था! वैसे देश-दुनिया में पिच सुखाने के लिए हेयर ड्रायर, पेडेस्टल फैन, स्पंज, हैलोजन लैंप से लेकर कोयला जलाए जाने तक का लंबा इतिहास रहा है. हाल ही में रणजी ट्रॉफी मैच के दौरान गोबर के उपले जलाकर पिच सुखाए जाने की तस्वीरें आपने देखी होंगी. खेलों के लिए दीवानगी हो, तो ऐसी. नहीं तो पढ़ाई-लिखाई करने में ही क्या बुराई है?

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परीक्षा में 'ड्रॉ' के फायदे

कोई ज्ञान कभी बेकार नहीं जाता. मैच ड्रॉ होने के ढेर सारे फायदों को जान-समझकर ही कई स्टूडेंट परीक्षाओं तक में अपनी हार को चकमा देते रहे हैं. पहले यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं में 'वॉक आउट' का खूब ट्रेंड था. पिछले साल पूछा गया कोई सवाल रिपीट हुआ, तो 'वॉक आउट'. आपने पिछले ही साल तो ये सवाल पूछा था, इस बार फिर कैसे पूछ सकते हैं? और तो और, जो सवाल हमारे अनुमान से बाहर का है, आपने उसे पेपर में डाला कैसे? नतीजा- परीक्षा कैंसिल. माने, बहुमत को एक और जीवनदान!



बदलते वक्त के साथ अब एग्जाम 'ड्रॉ' कराने के तरीके बदल गए हैं. हालांकि परीक्षाएं रद्द होने से परीक्षार्थियों को फौरी राहत तो मिल ही जाती है. भले ही लंबी रेस में जीतता वही है, जिसमें जीतने का माद्दा होता है. वैसे 'ड्रॉ' खेलने का सबसे सदाबहार तरीका है, परीक्षा के फॉर्म भरना, लेकिन परीक्षा में न बैठना. आसन्न संकट टाल देने वाले ऐसे उम्मीदवारों की तादाद कम नहीं होती है.

राजनीति का खेल

बात खेल की हो और उसमें राजनीति न आए, यह कैसे संभव है? खेल की राजनीति और राजनीति के खेल- दोनों जगह कई फॉर्मूले कॉमन होते हैं, जो रामबाण जैसा काम कर जाते हैं. हारते हुए मैच को ड्रॉ करवाने की कोशिश इनमें से एक है.

किसी के भाषण या वक्तव्य के बीच में शोर-शराबा किस वजह से होता है? किसी गंभीर मसले या बिल पर चर्चा हो रही हो, उस दौरान नारेबाजी करने, वेल में घुस आने, सदन चलाने में बाधा खड़ी करने का मकसद क्या होता है? चलो अपनी जीत न सही, कम से कम पब्लिक की नजर में मैच 'ड्रॉ' तो लगे. हालांकि इस तरह के 'ड्रॉ' से सदन का वक्त बर्बाद होता है और टैक्सपेयर का पैसा. राजनीति के मैदान में अक्सर विपक्ष इसी तरह मैच 'ड्रॉ' करवाने की चालें चलता है. शतरंज के चतुर खिलाड़ी 'ड्रॉ' का रोल खूब समझते हैं.

रोजाना के ड्रॉ मैच

यह 'ड्रॉ' खेलने की आदत का ही नतीजा है कि जीवन की गाड़ी पटरी पर आराम से बढ़ती चली जाती है. पति-पत्नी के बीच मीठी नोक-झोंक या तीखी बहसबाजी का आखिर क्या नतीजा निकलता है- बात 'ड्रॉ' पर आकर खत्म. न तुम जीते, न हम हारे... बाकी रिश्तों को बनाए या बचाए रखने में भी यही टेक्निक काम करती है. इसी को तो संस्कार कहते हैं!



इसी तरह, राह चलते किसी पावरफुल इंसान ('You know who I am?' टाइप) से टकरा जाने पर 'सॉरी' बोल देना ही हार टालने का एकमात्र उपाय बच जाता है. गांव-गली के द्विपक्षीय विवाद के दौरान भी कुछ लोग फौरन 'ड्रॉ' करवाने के लिए लपककर आगे बढ़ आते हैं. ऐसे लोगों के दम पर ही तो इंसानियत जिंदा है.

गौर से देखा जाए, तो 'ड्रॉ' वाले फॉर्मूले के आधार पर कई अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के हल भी चुटकियों में निकल सकते हैं. लेकिन उन पचड़ों में कौन पड़ने जाए? फिलहाल तो हमें सीरीज के अगले मैच का इंतजार है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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