This Article is From Jan 06, 2022

UP के चुनावी धर्मक्षेत्र में नौकरी का मुद्दा, नफरती राजनीति की चपेट में युवा

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Ravish Kumar

भारत में महंगाई के सपोर्टर की तरह क्या बेरोज़गारी के भी सपोर्टर हैं? जब भी लाखों की संख्या में नौजवान सरकारी भर्ती की परीक्षा को लेकर बीजेपी से लेकर कांग्रेस की सरकारों के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं, उन्हें कोसने वाले आ जाते हैं कि सरकार कितनों को नौकरी देगी, अपना बिजनेस क्यों नहीं करते. प्राइवेट जॉब क्यों नहीं करते. अगर प्राइवेट सेक्टर नौकरियां दे रहा होता तो फिर सरकारी नौकरियों के लिए भीड़ क्यों आती. अब तो सरकारी नौकरी में पेंशन भी नहीं है, वेतन भी ज़्यादा नहीं है फिर ऐसा क्यों है कि दस पोस्ट की वैकेंसी निकलती है और दस लाख फार्म भर जाते हैं. मेरा सवाल इतना सा है कि क्या महंगाई के सपोर्टर वाले देश में बेरोज़गारी के भी सपोर्टर होते हैं?

हर राज्य और हर दल की सरकार में नौजवानों का आंदोलन चलता रहता है. हर जगह पर भर्ती प्रक्रिया में इतनी बेईमानी और धांधली है कि कोई भी रिज़ल्ट बिना संदेह और मुकदमों के पूरा नहीं होता है. कांग्रेस से लेकर बीजेपी की सरकारों में नौजवान भर्ती निकालने और भर्ती कराने के लिए प्रदर्शन करते रहते हैं. ट्वि‍टर पर आए दिन ट्रेंड कराते रहते हैं. गोदी मीडिया में इनका कवरेज नहीं होता है और जहां होता है वहां भी कभी कभार होता है. जब कवरेज होता है, तब भी कुछ नहीं होता है. कोई नहीं बता सकता कि जब यही नौजवान मतदाता बनते हैं तब वोट धर्म और जाति के आधार पर देते हैं या नौकरी और स्वास्थ्य के. जिस देश में इतनी बेरोज़गारी है उस देश की राजनीति में धर्म के नाम पर नफ़रत का बोलबाला क्यों है. क्या नफरत से भरी धर्म की राजनीति में युवा शामिल नहीं हैं? दूसरी बात है किसी भी दल के पास रोज़गार को लेकर उठ रहे इन प्रश्नों का ठोस जवाब नहीं है. तीसरी बात, नौजवानों की यह भीड़ बेरोज़गार की तो लगती है लेकिन अपने अपने राज्यों में भी अपनी अपनी परीक्षाओं में बंटी हुई है. इनका आंदोलन अपनी भर्ती अपनी परीक्षा का आंदोलन है. रोज़गार को लेकर आज की राजनीति कैसे और क्या सोचे उसे लेकर नहीं है.

हमारा आज का सवाल यह है कि क्या महंगाई के सपोर्टर वाले देश में बेरोज़गारी के भी सपोर्टर होते हैं? क्या आप बेरोज़गारी के सपोर्टर को पहचानते हैं? मैं एक कैटगरी को जानता हूं. कई युवाओं ने बताया है कि उनकी फैमिली के व्हाट्सएप ग्रुप में रिटायर्ड अंकिल लोग भर्ती परीक्षा के आंदोलन को लेकर अच्छी बातें नहीं लिखते हैं. यही लिखते हैं कि सरकारी नौकरी की मांग करने वाले युवा नकारे लोग हैं. जबकि ये खुद सरकारी नौकरी कर चुके होते हैं और 2004 के पहले की नियुक्ति वाले हैं तो पेंशन भी लेते हैं. इन रियार्टड अंकिलों ने एक और काम किया है. फैमिली ग्रुप में धर्म के नाम पर नफ़रती सामग्री ठेल ठेल कर घर परिवारों की बातचीत का माहौल बदल दिया है. इंडिया और विदेशों में रहने वाले इन रिटायर्ड अंकिलों से सावधान रहिए. बुल्ली बाई ऐप के मामले में गिरफ्तार मयंक रावत, विशाल झा और श्वेता सिंह की कहानी कुछ यही कहती है. विशाल, श्वेता और मयंक के दिमाग़ में ज़हर कहां से आया, आप जानते हैं. सवाल वही है क्या हम रोज़गार को लेकर बात कर सकते हैं? या धर्म के नाम पर ही राजनीति होती रहेगी?

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सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानमी का ताजा सर्वे है कि दिसंबर 2021 में बेरोज़गारी की दर बढ़ कर 7.9 प्रतिशत हो गई. भारत के शहरी क्षेत्रों में बेरोज़गारी की दर 9.3 प्रतिशत हो गई है. मतलब यही है कि काम नहीं मिल रहा है. आम तौर पर 4 प्रतिशत ही काफी होती है लेकिन यह काफी ज्यादा है. यह सिर्फ एक सर्वे है. उनका जो काम मांगते हैं. इस सर्वे में वे बेरोज़गार शामिल नहीं हैं जिन्होने काम न मिलने से काम मांगना ही छोड़ दिया है. अगर सारे बेरोज़गार काम मांगने आ जाएं तो बेरोज़गारी की असली दर 7.9 प्रतिशत से भी ज्यादा हो सकती है. राज्यों के हिसाब से देखें तो कांग्रेस हो या बीजेपी हर किसी की सरकार में बेरोज़गारी का आलम भयावह है. दिसंबर के महीने में हरियाणा में बेरोज़गारी की दर 34.1 प्रतिशत हो गई थी, राजस्थान में बेरोज़गारी की दर 27.1 प्रतिशत और बिहार में बेरोज़गारी की दर 16 प्रतिशत है, जम्मू और कश्मीर में बेरोज़गारी की दर 15 प्रतिशत है. राजस्थान में ढाई साल में एक लाख सरकारी नौकरी देने के पोस्टर लगे हैं, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तस्वीर है, लेकिन यहां भी रीट परीक्षा की सीट बढ़ाने को लेकर आंदोलन चल रहा है. CMIE की रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर 2021 में बेरोजगारी दर में राजस्थान दूसरे नंबर पर है. हमने कई रिपोर्ट में देखा है कि प्रथम और द्वितीय तालाबंदी में जिन लोगों की नौकरी गई है उनमें से बहुतों को दोबारा काम नहीं मिला है. मिला है तो कम वेतन का या अस्थायी काम मिला है. सुशील महापात्रा ने सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानमी के महेश व्यास से बात की.  

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इस इंटरव्यू से तीन बातें निकल कर आती हैं. नौकरियों की संख्या कम होती जा रही है. पहले की तुलना में नौकरियां अस्थायी होती जा रही हैं और सैलरी घटती जा रही है. क्या आप धर्म और धर्म के नाम पर नफरत की राजनीति से इसे ठीक कर सकते हैं? महेश व्यास के सर्वे से एक बात निकल कर आई. एक तरफ हरियाणा और राजस्थान में बेरोज़गारी दर भयंकर है, दो अंकों में है वही यूपी में 4.9 प्रतिशत है. तो क्या यूपी में सबको रोज़गार मिल रहा है?

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यूपी का नंबर कम है क्योंकि लेबर मार्केट में यूपी के नौजवान आ ही नहीं रहे हैं. उन्हें काम नहीं मिल रहा है. महेश व्यास कहते हैं कि बेरोज़गारों में उसे गिना जाता है जो काम मांगने घर से निकलता है. अगर काम न मिले और वह घर से निकलना बंद कर दे तो उसकी गिनती नहीं की जाती है. यूपी में यही हुआ. इसलिए यूपी में दिसंबर के महीने में बेरोज़गारी की दर 4.9 प्रतिशत है.

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इसे समझने के लिए अमर उजाला में छपी दो खबरों की कतरन दिखा रहा हूं. पहली खबर प्रतापगढ़ ज़िले की है जहां पांच सौ रुपये का भत्ता लेने के लिए BA और MA की डिग्री वाले बेरोज़गार भी श्रमिक कार्ड के लिए पंजीकरण कराया है. प्रतापगढ़ की आबादी ही 32 लाख से कुछ अधिक है लेकिन यहां साढ़े बारह लाख लोगों ने पांच सौ का भत्ता लेने के लिए श्रमिक कार्ड बनवा लिए. अखबार ने लिखा है कि इसके पहले ज़िले में 1.46 लाख श्रमिकों का ही पंजीकरण था लेकिन इसकी संख्या साढ़े बारह लाख से अधिक हो चुकी है. इस योजना के तहत मार्च 22 तक पांच पांच सौ की राशि दी जाएगी. अमर उजाला में ही बलिया से ऐसी ही एक खबर छपी है कि पांच पांच सौ का भत्ता प्राप्त करने के लिए BA MA पास श्रमिक कार्ड के लिए पंजीकरण करा रहे हैं. यहां साढ़े ग्यारह लाख लोग पंजीकरण करा चुके हैं. यूपी सरकार अखबारों में विज्ञापन दे रही है कि डेढ़ करोड़ कामगारों के खाते में 1500 करोड़ की राशि दी जा चुकी है. क्या चुनाव जीतने के लिए इन खातों में पैसा दिया जा रहा है वो भी मार्च 2022 तक?

इस पर यह भी बात होनी चाहिए कि क्या सीधे खाते में पैसा भेजने का राजनीतिक इस्तमाल हो रहा है? तीन महीने के लिए श्रमिकों को पांच पांच सौ का भत्ता क्या इसलिए दिया जा रहा है कि वे वोट दें. यूपी की इस हालत पर ईमानदारी से बात होनी चाहिए. यह अपने आप में कई देशों के बराबर एक देश है. अगर इसकी हालत इतनी खराब लगती है तो बाकी भारत की कल्पना आप कर सकते हैं.

एक तरफ रोज़गार न मिलने के कारण नौजवानों ने काम मांगना बंद कर दिया है तो दूसरी तरफ BA MA पास नौजवान मात्र 500 रुपये के लिए श्रमिक कार्ड बनवा रहे हैं? इसका जवाब आप खोजेंगे तो आपको इसका भी जवाब मिलेगा कि क्यों यूपी में राजनीति में धर्म का नशा छाया हुआ है और धर्म के नाम पर केवल नफरत की बातें हो रही हैं. भारत में 36 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं. प्रति व्यक्ति आय के मामले में यूपी 32वें नंबर पर है. नीचले पायदान पर. इसलिए लोग पांच सौ रुपये के लिए श्रमिक कार्ड बनवा रहे हैं. सरकार का एक और विज्ञापन इस राज़ को उजागर कर देता है.

जिसमें दावा किया जा रहा है कि यूपी के 15 करोड़ गरीब परिवारों को मार्च 2022 तक के लिए महीने में दो बार मुफ्त राशन दिया जाएगा. चुनाव के कारण अलग से इसके लिए थैला बनवाया गया है जिसका खर्चा हमें नहीं मालूम. एक ग़रीब प्रदेश में मुफ्त राशन इतने रंगीन झोले में दिया जा रहा है तो ज़रूर यह विकास की कोई नई तस्वीर होगी. इस विज्ञापन के बगल में डबल इंजन सरकार की तरफ से तीन पैकेट का भी अलग से ज़िक्र है. एक किलो चना, एक किलो नून, एक किलो तेल के पैकेट पर डबल इंजन सरकार के दोनों चेहरे हैं. जिस राज्य की आबादी 20 करोड़ बताई जाती है उस राज्य में अगर 15 करोड़ गरीब हैं तो फिर विकास कहां है, रोज़गार कहां है. क्यों मुफ्त अनाज और तेल नमक के बाद भी BA MA पास 500 रुपये के लिए श्रमिक कार्ड का पंजीकरण करना रहे हैं.

अगर एक्सप्रेस वे और मेट्रो से इतना विकास हो गया है तब फिर यूपी में 15 करोड़ लोग प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन पर निर्भर क्यों हैं? इतनी ग़रीबी क्यों है कि पांच सौ रुपये के लिए लोग MA पास श्रमिक कार्ड बनवा रहे हैं? यूपी सरकार की एक वेबसाइट है. यूपी रोज़गार संगम. यह राज्य सरकार की वेबसाइट है. इस वेबसाइट का मक़सद है कि काम मांगने वाले और काम देने वाले दोनों एक जगह पर आ जाएं. इसके डैशबोर्ड पर काम मांगने वालों की संख्या 40 लाख 89 हज़ार है. और यहां खाली वेकैंसी की संख्या मात्र 8702 है. क्या यह संख्या महेश व्यास की बात सही नहीं साबित करती कि काम ही नहीं है. यहां करीब 41 लाख लोग काम मांग रहे हैं मगर उनके लिए काम ही नहीं है. ज़ाहिर है वे लेबर मार्केट में जाना छोड़ देंगे और बेरोजगारी की संख्या कम दिखेगी लेकिन संख्या तो यहां दिख रही है सरकार की वेबसाइट पर.

और ये लोग कौन हैं, ये सारे भाई बहन किस देश के हैं, क्या ये जौनपुर और बलिया के लग रहे हैं? क्या हमारे यूपी के नौजवान इस तरह से दांत चियार कर फोटो नहीं खिंचा सकते थे? जब वे पांच सौ के लिए श्रमिक कार्ड बनवा सकते हैं तो फोटो भी खिंचा सकते हैं. क्या हमारे बेरोज़गार इन लोगों से कम हैंडसम हैं? और ये हंस क्यों रहे हैं, क्या इन विदेशी बच्चों को यूपी में नौकरी मिली है? मुख्यमंत्री वाई आदित्यनाथ को तुरंत इन विदेशी बच्चों के फोटो को हटाकर यूपी के बच्चों का लगाना चाहिए. नौकरी भले न मिले लेकिन फोटो में तो यूपी के युवाओं का हक नहीं मारा जाए. do you get my point?

आज कल अख़बारों में खबरें कम हैं, विज्ञापन ज़्यादा है. खबरों में भी न्यूज़ कम है, जीवन शैली के उपदेश ज्यादा हैं. गोदी मीडिया समझ गया है, रिपोर्टिंग कर सवाल पूछने से अच्छा है विज्ञापन लेकर चुप रहा जाए. 

विज्ञापनों में जिन बातों का दावा किया जा रहा है उसे लेकर सवाल करती हुई आपको ख़बर किसी अखबार में नहीं मिलेगी. इस तरह से विज्ञापन में किए गए दावे ही तथ्य बन जाते हैं. क्या आपने रोज़गार को लेकर यूपी के अखबारों में कोई व्यापक रिपोर्टिंग देखी है?

विज्ञापन में साढ़े चार लाख नौकरी का दावा करने वाली योगी सरकार बता दे कि इनकी भर्ती की अधीसूचना कब निकली, किस विभाग में कितने लोगों नौकरी मिली है. ठेके की हैं या परमानेंट हैं? दिल्ली में लगे इस होर्डिंग में दावा किया गया है कि डेढ़ लाख महिलाओं को नौकरी दी गई है. डेढ़ लाख महिलाएं किस विभाग में नियुक्त हुई हैं. अगर साढ़े चार लाख भर्ती हुई है तब फिर आए दिन यूपी से भर्ती परीक्षा को लेकर आवाज़ क्यों उठती रहती है? वैसे यूपी सरकार जब साढ़े चार लाख सरकारी नौकरी देने का दावा कर रही है तो दिल्ली की मोदी सरकार भी ऐसा एक विज्ञापन निकाल दे कि उसके विभागों में कितनी नौकरियां दी गई हैं. मोदी सरकार ऐसा विज्ञापन क्यों नहीं देती है.

रोज़गार के मुद्दे की लड़ाई धर्म के नाम पर नफरत के मुद्दे से है. जितना ज़्यादा नफरती भाषणों का शोर बढ़ेगा, रोज़गार का मुद्दा पीछे जाएगा.

उम्मीद है यूपी सरकार अगले विज्ञापन में साढ़े चार लाख सरकारी नौकरी के दावे की जगह इस बात की जानकारी देगी कि कब, कहां और किस विभाग मे नौकरियां दी गई हैं.

20 दिसंबर को द वायर में संतोष महरोत्रा ने एक लेख लिखा है. इसमें भी यही सवाल किया गया है कि साढ़े चार लाख नौकरियां कब और कहां दी गई हैं. इस लेख में  ट्विटर पर युवा हल्ला बोल नाम के एक अकाउंट का ज़िक्र है जिसे ब्लू टिक मिला हुआ है. इस अकाउंट को 35,000 लोग फॉलो करते हैं. अगर यूपी सरकार इस पर जवाब दे तो हम प्राइम टाइम के अगले अंक में ज़रूर शामिल करेंगे. युवा हल्ला बोल के अनुपम से हमने बात की.

''2017 के घोषणापत्र में वादा किया कि सरकार बनते ही 90 दिनों के अंदर सभी रिक्त सरकारी पदों को भरने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी लेकिन जब नहीं कर पाए तो युवाओं को ही अयोग्य कहने लगे मुख्यमंत्री. 17 सितंबर प्रधानमंत्री के जन्मदिन को हमने जुमला दिवस के तरह मनाया तो तुरंत खबर छपवा दी गयी कि मुख्यमंत्री ने रिक्त पदों का ब्यौरा मांगा है. फिर प्रचार करने लगे कि पौने चार लाख नौकरी दे दी है. हमारे एक साथी ने आरटीआई के जरिये विभागवार ब्यौरा मांगा तो कार्मिक विभाग ने जवाब दिया कि उन्हें कोई जानकारी नहीं. मतलब अपने राजनीतिक प्रचार में जो आंकड़े ये चला रहे हैं उसका क्या आधार है, ये इन्हें पता ही नहीं. हम तब से ही कह रहे हैं कि चुनाव आते आते ये 5 लाख नौकरी देने का झूठा प्रचार करने लग जाएंगे. अब वैसा ही होता दिख रहा है जबकि सच ये है कि 5 लाख से कहीं ज़्यादा स्वीकृत सरकारी पद आज भी रिक्त हैं.''

अक्टूबर में आयी यूनेस्को की रिपोर्ट (जिसका आधार PLFS जैसे सरकारी आंकड़े थे) के अनुसार अकेले शिक्षकों के तीन लाख से ज्यादा पद रिक्त हैं. गृह मंत्रालय के BPRD के अनुसार 1,11,865 से ज्यादा पुलिस विभाग में रिक्तियां हैं. इसका असर सिर्फ रोज़गार नहीं, शिक्षा स्वास्थय law & order पर भी पड़ रहा है.

हमारी यूपी सरकार से मांग है कि आचार संहिता लागू होने से पहले सभी रिक्त पदों को विज्ञापित करे और 'मॉडल एग्जाम कोड' के तहत 9 महीने में हर भर्ती पूरी करे. 'मॉडल कोड' के तहत अगर समयबद्ध भर्ती पूरी नहीं होती तो अभ्यर्थियों को मुआवजा मिले और सरकार में किसी न किसी की स्पष्ट जवाबदेही तय हो.

साढ़े चार लाख नौकरियां कब और किसे दी गई हैं? लेकिन यूपी के अखबारों की खबरों से यह भी पता चलता है कि हाल के कुछ महीनो में कई भर्तियों के नियुक्ति पत्र बांटे गए हैं और कई भर्तियां निकली हैं. वे नौकरियां इस साढ़े चार लाख से अलग हैं या शामिल हैं, पता नहीं. दारोगा भर्ती और शिक्षक भर्ती की परीक्षा का पर्चा पहले ही लीक हो गया था. चुनाव आ गए हैं तो भर्तियां निकल रही हैं और भत्ते बांटे जा रहे हैं. इस रिपोर्ट को देखकर विपक्षी दल बहुत खुश न हों, झारखंड और राजस्थान औऱ पंजाब से आए दिन युवा भर्ती परीक्षाओं को लेकर लिखते रहते हैं. भर्तियां भी होती हैं तो ठेके की नौकरी ज्यादा होने लगी है.

2017 में यूपी चुनाव के लिए बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में दावा किया था कि पांच साल में सत्तर लाख रोज़गार और स्वरोज़गार देंगे. इसमें यह साफ नहीं है कि 70 लाख में से सरकारी नौकरियां कितनी होंगी? इसके नीचे लिखा है कि सरकार बनने के 90 दिनों के भीतर सारी भर्तियां पूरी कर दी जाएंगी. क्या बीजेपी बताएगी कि 90 दिन के भीतर कितनी भर्ती पूरी हुई? इसी में यह भी लिखा है कि सरकार बनने पर यूपी में स्थापित हर उद्योग में 90 प्रतिशत नौकरियों को प्रदेश के स्थानीय युवाओं के लिए आरक्षित किया जाए. इस संबंध में बीजेपी के ही विधायक बिमला सिंह सोलंकी ने सवाल पूछा तो विधानसभा में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने जवाब दिया कि ऐसी कोई नीति नहीं बनी है और न इसका प्रस्ताव है. मंत्री का जवाब 2021 का है यानी 4 साल बीत गए. अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को आदेश दिया था कि 2021 तक डेढ़ लाख पुलिस की बहाली पूरी करे. क्या यह संख्या भी साढ़े चार लाख की भर्ती में शामिल है?

नौकरियों को लेकर जो दावे किए जा रहे हैं, उनकी जांच आप कैसे करेंगे, यह पहाड़ काट कर रास्ता बनाने जैसा है. हम एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि इस मामले में योगी आदित्यनाथ की टीम हमारी भी मदद करेगी.

2017 में यह खबर पत्रिका और बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी है. इसमें लिखा है कि सीएम बनते ही योगी आदित्यनाथ एक्शन में आ गए हैंऋ राज्य में 25,000 सूर्यमित्रों की नियुक्ति के लिए मई 2017 में ही अधिसूचना जारी होगी.

यूपी न्यू एंड रिन्यूबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी यूपीनेडा को 25000 सूर्यमित्र नियुक्त करना था जिनका काम सौर ऊर्जा के उपकरणों का प्रचार-प्रसार करना है. सरकार को बताना चाहिए कि अखबारों में यह खबर सही छपी थी या गलत, और गलत छपी थी तो क्या उस वक्त खंडन किया गया था? तब तक मेरा सवाल सिम्पल है. 25,000 सूर्यमित्र की भर्ती का विज्ञापन कब निकला, कितनी सैलरी पर सूर्यमित्र किस किस ज़िले में तैनात किए गए? जवाब खोजने के लिए हमने थोड़ी कोशिश और की लेकिन UPNEDA की वेबसाइट पर भी नहीं पता चला कि 25,000 सूर्यमित्र कब नियुक्त हुए हैं, कहां तैनात हुए. और रिसर्च किया तो पता चला कि सूर्यमित्र भारत सरकार के नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय यानी MNRE की एक योजना है. 2015 में यह योजना लांच हुई थी. National Institute of Solar Energy (NISE) की साइट से पता चला कि यह संस्था सूर्यमित्र बनने की ट्रेनिंग देती है. तीन महीने का डिप्लोमा कोर्स होता है. इस संस्था को देश भर में 2015-20 के बीच पचास हज़ार सूर्यमित्र बनाने थे. लेकिन पांच साल में यह टारगेट पूरा नहीं हुआ. 47,166 सूर्य मित्र को ही ट्रेनिंग मिली है.

दरअसल बेरोज़गारों को मैं समझ गया हूं. अगर आप उन्हें एक हाथ से नफरती पत्र और एक एक हाथ से नियुक्ति पत्र देंगे तो मुमकिन है कि आज का युवा नियुक्ति पत्र छोड़ कर नफरती पत्र ले लेगा. ट्विटर पर ट्रोल बनने में जो आनंद है वो अब अफसर या नौकरी करने में नहीं है. अगर ये आनंद नहीं मिलता तो विशाल झा, मयंक रावत और श्वेता सिंह जैसे नौजवान बुल्ली बाई ऐप बनाने के मामले में नहीं पकड़े जाते. कितना दुखद है. कहां तो युवाओं को सूर्य मित्र बनाना था और कहां वे मुस्लिम महिलाओं की बोली लगा रहे हैं. क्या वाकई भारतीय संस्कृति गौरव के इन्हीं दिनों का इंतज़ार कर रही थी? बहरहाल हम अभी भी सूर्यमित्र को लेकर परेशान हैं. बसपा के सांसद श्याम सिंह यादव के एक सवाल के जवाब में 16 दिसंबर को ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने जवाब दिया है कि 2015-16 से 2019-20 के बीच यानी पांच साल में यूपी में केवल 165 महिलाओं को सूर्य मित्र की ट्रेनिंग दी गई है. वो भी 12 ज़िलों से केवल 165 को ही. गोरखपुर से किसी महिला को सूर्यमित्र की ट्रेनिंग नहीं मिली.

प्राइवेट और सरकारी संस्थाएं भी सूर्यमित्र की ट्रेनिंग देती हैं. अगर ट्रेनिंग की संख्या की ये हालत है तो अंदाज़ा ही लगा सकते हैं कि 25000 सूर्यमित्र कहां से रखे गए होंगे, यदि रखे गए हैं तो. हमें राज्य सरकार के जवाब का इंतज़ार रहेगा. भारत सरकार के अक्षय ऊर्जा मंत्रालय की वेबसाइट पर एक सालाना रिपोर्ट है जो 2020-21 की है. ये भारत सरकार की रिपोर्ट है यूपी की नहीं. इसमें बताया गया है कि यूपी में पांच साल के दौरान यानी 2020 तक 4212 सूर्य मित्रों को ही ट्रेनिंग दी गई है. क्या ट्रेनिंग पाए इन 4212 नौजवानों को सूर्यमित्र की नौकरी मिली है? इस नौकरी के लिए विज्ञापन कब निकला, अधिसूचना कब जारी हुई? 2017 में 25000 सूर्यमित्र को नौकरी पर रखने की बात थी, उसका क्या हुआ.

इस मुद्दे को छोड़ देते हैं. फ्लैशबैक में देखते हैं कि अखबारों में सरकारी भर्ती को लेकर क्या क्या छपा है. कुछ ऐसी खबरें दिखाना चाहते हैं जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ के हवाले से छपी हैं. इन बयानों में हर साल अलग अलग संख्या में सरकारी नौकरी देने की घोषणा है. उस साल उतनी सरकारी नौकरी दी गई है या नहीं इसका जवाब जानने के लिए यूपी के युवाओं को सपना देखना होगा. जिस सपने में इन दिनों भगवान आते हैं, यह बताने कि कौन कहां से चुनाव लड़े. बीजेपी के एक नेता ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र लिखा है. तो बेस्ट है कि युवा सोया करें ताकि सपना आए और सपना आए तो उसमें भगवान आएं. बहरहाल हम आपको फ्लैशबैक में ले जाना चाहते हैं.

पत्रिका अखबार की एक हेडलाइन 19 मार्च 2018 की है. एक साल पूरा होने पर सीएम योगी का बड़ा तोहफा, 2018 में चार लाख युवाओं को देने जा रहे हैं सरकारी नौकरी. क्या वाकई 2018 के साल में चार लाख युवाओं को सरकारी नौकरी मिली थी? इस हेडलाइन को खोजो, सपने में खोजो या यूपी में खोजो, but guys from up, lets search for it na. Speak in english.

इस हेडलाइन को पढ़कर यूपी में कितना अच्छा माहौल बना होगा. 2018 के बाद जब 2019 आया. आप बोर तो नहीं हो रहे हैं. हमने कई बार देखा है जब भी बेरोज़गार के मसले पर प्राइम टाइम करता हूं यू ट्यूब में व्यूज़ बहुत औसत किस्म का होता है. बेरोज़गार भी नहीं देखते होंगे. बाकी धर्म की राजनीति में लगे होंगे. चलिए आप बोर भी हो रहे हैं तब भी बता रहा हूं कि 2019 में क्या छपा.

2018 में सीएम का बयान छपा था कि एक साल में चार लाख सरकारी नौकरी देंगे. 2019 में छपा कि दो लाख नौकरी देंगे. दो लाख नौकरी हेडलाइन में ही गायब हो गई क्या. कभी ऐसी हेडलाइन नहीं छपी कि 2018 में चार लाख नौकरी की बात की थी, 2019 में पूरी हो गई. 27 सितंबर 2019 के हिन्दुस्तान अख़बार की हेडलाइन है कि उत्तर प्रदेश में दो लाख से अधिक बेरोज़गारों को मिलेगी नौकरी, योगी सरकार ने बनाया ब्लू प्रिंट. इसी दिन नवभारत में भी खबर कुछ और छपी है. इसमें नौकरी की संख्या एक लाख हो गई है. लिखा है कि यूपी में जल्द आएंगी एक लाख सरकारी नौकरियां: योगी आदित्यनाथ. खबर के भीतर लिखा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि शिक्षा सहित अन्य विभागों में जल्द ही एक लाख पदों पर भर्ती शुरू की जाएगी. इस समय करीब एक लाख पदों पर भर्ती चल रही है. यह चार-पांच महीने में पूरी हो जाएगी. सरकार ढाई साल में 2.25 लाख नौकरियां दे चुकी है.

अलग अलग समय पर अलग अलग हेडलाइन, अलग अलग हेडलाइन में अलग अलग संख्या. खेल तब हो रहा था या अब हो रहा है. इन खबरों को जोड़ लें तो केवल दावों के हिसाब से सरकारी नौकरी की संख्या 8 से दस लाख हो जाती है. लेकिन सितंबर 2019 का अखबार कहता है कि ढाई साल में सवा दो लाख नौकरियां दी गईं हैं. 2018 में सीएम का बयान छपता है कि उस साल चार लाख नौकरी देंगे. 2019 में हेडलाइन छपती है कि दो लाख नौकरी देंगे. दावों में इतना अंतर है कि सब छू मंतर हो जाता है. तब अखबार सही थे या अब सही हैं, इस सवाल का जवाब आपको बीस साल बाद मिलेगा जब सपनों के टेंट और तंबू उखड़ चुके होंगे.

फ्लैशबैक में देखने पर शक हो जाता है कि क्या अखबार गलत सलत लिख रहे थे या सरकार कुछ भी दावा कर रही थी. हम एक बार और फ्लैश बैक में ले जाना चाहते हैं. 12 जून 2021 की खबर है कि कोविड की दूसरी लहर को देखते हुए 2021 के साल में एक लाख सरकारी नौकरिया दी जाएंगी. क्या पिछले साल एक लाख सरकारी नौकरियां दी गईं? क्या अखबार कुछ भी छाप रहे हैं? कुछ अखबारों में यह भी मिला है कि दिसंबर 2020 में यूपी सरकार ने मिशन रोज़गार लांच किया है. इसके तहत मार्च 2021 तक पचास लाख युवाओं को रोज़गार देने का लक्ष्य तय किया गया था. अब अगर यह खबर बिना किसी त्रुटी के छपी है तो तीन महीने में पचास लाख रोज़गार देने का यह कौन सा मिशन था, और कितनी कामयाबी मिली थी, यूपी सरकार को बताना चाहिए.

कितनी पड़ताल करेंगे, रहने देते हैं. यूपी के नौजवानों को अपना भविष्य मालूम है. उनके सपनों में मंदिर और माफिया से लैस भाषण उबाल भर रहे हैं. उन सपनों को कोई नहीं बदल सकता है, जिस राज्य की प्रति व्यक्ति आय नीचले पायदान पर हो, जिस राज्य के बीए एमए पास युवा पांच सौ के लिए श्रमिक कार्ड बनवा रहे हों, उस राज्य के नौजवानों के ख़्वाब क्या हैं, नेताओं को ठीक से पता चल गया है. यूपी की जवानी अगर अपनी यही कहानी लिखना चाहती है तो बस इतना पूछ लीजिए, ये कहानी वे खुद लिख रहे हैं या कोई और लिख रहा है.

राजनीति की भाषा में दीमक लग गया है इसलिए राजनीति में टरमाईट, गिरगिट और न जाने क्या क्या इस्तमाल होने लगा है. म से माफिया और माफिया में केवल म से मुसलमान अपराधियों के नाम लिए जा रहे हैं.

लेकिन यहां जो क्रिकेट खेल रहे हैं उनका नाम धनंजय सिंह है. वे पूर्व सांसद हैं. हत्याकांड में आरोपी हैं और फरार हैं. पुलिस ने धनंजय सिंह पर 25000 का इनाम रखा है. मगर धनंजय सिंह क्रिकेट खेल रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी और गृह मंत्री बताएं कि धनंजय सिंह क्या हैं और विकास दुबे क्या था. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उसके क्रिकेट खेलने की वीडियो ट्वीट कर लिखा है कि : बाबा जी अपने क़रीबी नालबद्ध माफियाओं के टॉप टेन की सूची बनाकर एक टीम बना लें और आईपीएल की तरह "एमबीएल" मतलब "माफिया भाजपा लीग" शुरू कर दें. शहर के पुलिस कप्तान तो उनके लिए पिच बिछाए बैठे ही हैं. और टीम कप्तान वो खुद हैं ही... हो गए पूरे ग्यारह." यूपी के डीजीपी मुकुल गोयल से पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसकी जांच कर कार्रवाई की जाएगी.

अमित शाह के अगले भाषण का इंतज़ार कीजिए. निज़ाम की तरह क्या वे विकुआध कहेंगे यानी धनंजय सिंह, कुलदीप सिंह सेंगर, आशीष मिश्रा और विकास दुबे के पहले अक्षर को लेकर नया जुमला बनाना चाहेंगे? रोज़गार अब एक मरा हुआ मुद्दा है. इतना मर चुका है कि इसकी औपचारिकता निभा दी जाती है. पूरे कार्यक्रम के दौरान मेरे दिमाग़ में श्वेता सिंह, विशाल झा और मयंक रावत की तस्वीर घूमती रही.

3 जनवरी के प्राइम टाइम में हमने दिखाया था कि मुस्लिम महिला पत्रकारों, बुजुर्ग महिलाओं की बोली लगाने का एक ऐप आया है. इसके प्रचार के लिए ट्विटर पर खाते खोले गए हैं. हमें इसके पीछे का कारण तो पता था लेकिन कौन हैं ये नहीं पता था. मुंबई पुलिस ने इस मामले में तीन युवाओं को पकड़ा है. 20-21 साल का मयंक रावत, विशाल झा और श्वेता सिंह पर आरोप हैं कि इन्होंने कथित रुप से बुल्ली डील ऐप बनाए हैं, इसके प्रचार के लिए ट्विटर अकाउंट खोले हैं. श्वेता के माता पिता नहीं हैं. 12वीं की छात्रा है और इंजीनियरिंग की तैयारी कर रही थी. इन लोगों के दिमाग में ज़हर किसने भरा है. किस विचारधारा से इन्हें किसी समुदाय से इतनी नफरत करने की सीख मिली कि ये लड़कियों औऱ औरतों की बोली लगाने का सपना देखने लगे. इस सवाल पर NRI रिटायर्ड अंकिल वीडियो कॉल बंद कर देंगे. यह होना था, साल दर साल हमने प्राइम टाइम में इसे लेकर चेताया है. चेतावनी आज भी दे रहा हूं.