हिन्दी हार्टलैंड में महाभारत : फिर दक्षिण क्यों गए राहुल गांधी...?

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Dharmendra Singh

चाहे खेल का मैदान हो या युद्ध का, या लोकसभा चुनाव 2024 का संग्राम, कप्तान हो या सेनापति, या पार्टी का मुखिया, इन्हें हमेशा फ्रंट पर ही रहना होता है. कांग्रेस के सेनापति राहुल गांधी चले थे PM नरेंद्र मोदी से टक्कर लेने, लेकिन लेफ़्ट से टकरा रहे हैं. सवाल इसीलिए उठ रहे हैं कि राहुल गांधी ने वायनाड लोकसभा क्षेत्र क्यों चुना और अमेठी का ज़िक्र क्यों नहीं किया गया.

BJP ने लोकसभा चुनाव के लिए 195 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी की है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लिस्ट में पहले नंबर पर हैं. संदेश साफ है कि पार्टी के सेनापति आगे हैं. राजनीति, रणनीति और मार्केटिंग में संदेश साफ़ होना ज़रूरी होता है, वरना कन्फ़्यूज़न से सौ सवाल पैदा होते हैं, क्योंकि कन्फ़्यूज़न से परिणाम का रिश्ता भी होता है.

गौर करने की बात है कि BJP के बाद कांग्रेस के 39 उम्मीदवारों की लिस्ट आई, लेकिन पहले नंबर पर राहुल गांधी नहीं हैं, बल्कि 17वें नंबर पर हैं. सवाल है कि सेनापति आगे नहीं होंगे, तो वोटर, पार्टी, कार्यकर्ता, विपक्ष और एक्सपर्ट को क्या संदेश जाएगा. यह शायद कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा हो सकता है, लेकिन रणनीति ऐसी हो कि सबके गले भी उतरे. बात यहीं नहीं खत्म हो रही है, बल्कि लोकसभा चुनाव 2024 की जंग, खासकर हिन्दी पट्टी में है, जिस हिन्दी पट्टी से गांधी परिवार के ताल्लुकात शुरू से ही रहे हैं, इनकी इस पुश्तैनी सीट (अमेठी, रायबरेली) का ज़िक्र तक नहीं है, जबकि इन दोनों सीटों को लेकर समाजवादी पार्टी (SP) से कोई पेंच फंसने की बात भी नहीं आई है. पहले भी SP का कोई विरोध नहीं दिखा था, अब भी विरोध का कोई तर्क नहीं दिख रहा है.

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अमेठी से BJP ने फिर स्मृति ईरानी को उतारने का फ़ैसला किया है, तो फिर BJP की लिस्ट आने के बाद कांग्रेस में क्या पेंच फंस गया है...? अगर पेंच फंस भी गया था, तो अमेठी और रायबरेली के साथ वायनाड भी टाल सकते थे...? कन्फ़्यूज़न का सवाल ही पैदा नहीं हो पाता...?

जब जंग हिन्दी पट्टी में होनी है, तो भी एक तरफ जहां नरेंद्र मोदी गुजरात से चलकर वाराणसी से चुनाव मैदान में उतर जाते हैं, और दूसरी तरफ राहुल गांधी की पुश्तैनी सीट अमेठी का ज़िक्र किए बिना वायनाड की घोषणा कर दी जाती है. यह भी ताज्जुब ही था कि सोनिया गांधी लोकसभा चुनाव से पहले राज्यसभा के लिए चुनी गईं, लेकिन संदेश दे गईं कि वह भी रायबरेली से इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगी. दूसरी तरफ, अमेठी और रायबरेली को लेकर सस्पेंस बना हुआ है, लेकिन इस सस्पेंस का मायने, महत्व और असर भी होता है. ये सिर्फ दो नेताओं का निर्णय भर नहीं है, बल्कि पार्टी, संगठन, कार्यकर्ता और बूथ सबसे जुड़ा हुआ मुद्दा है, ऐसे में सवाल है कि संदेश क्या जा रहा है, पार्टी, नेता और कार्यकर्ता क्या महसूस कर रहे हैं. क्या राहुल गांधी अपनी पार्टी की लड़ाई लड़ रहे हैं या सिर्फ अपनी सीट बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं...?

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ध्यान देने की बात है कि राहुल गांधी दावा करते हैं कि इस बार प्रधानमंत्री को हराएंगे और विपक्ष की ओर से इकलौते नेता वही हैं. प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा प्रहार भी राहुल गांधी ही करते हैं, लेकिन जब राजनीतिक जंग की बात आई, तो वह वायनाड पहुंच गए, जहां उन्हें BJP से नहीं, बल्कि लेफ़्ट से टकराना है.

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गौर करने की बात है कि लोकसभा चुनाव 2019 में 439 सीटें ऐसी थीं, जहां NDA बनाम UPA की सीधी टक्कर हुई थी, इनमें से NDA ने 346 सीटें जीतकर सफलता दर 79 फीसदी हासिल किया. सवाल लाज़िमी है कि जहां राहुल की ज़रूरत थी, वहां राहुल को डटे रहना चाहिए था, लेकिन अमेठी में हार के बाद वह बार-बार वायनाड जाते रहे, बल्कि हारी हुई अपनी पुश्तैनी सीट अमेठी इक्का-दुक्का बार ही गए होंगे.

अब खेल बदल गया है. मैदान चुनावी हो या जंग का, असली सेनापति वही होता है, जो हार और जीत की परवाह किए बिना सामने होता है. भारत में चुनाव युद्ध से बड़ा होता है, जीत-हार के साथ ही तैयारी शुरू हो जाती है. चुनावी युद्ध में बड़ी बहादुरी, प्लानिंग, तन्मयता, खतरों से खेलना, दुश्मन को चकमा देना, दवाब बनाकर रखना, 24 घंटे आंख-कान-नाक खोलकर रखना, ऐसी चुनावी गर्जना और इस तकनीकी युग की चकाचौंध, राजनैतिक दुश्मनों की तैयारी को फीका साबित कर देता है. युद्ध हो या चुनाव, कई स्तर पर तैयारी होती है. पहला सेनापति या नेता कौन है, संगठन कितना मज़बूत है, विचारधारा क्या है, कार्यकर्ता में जोश कितना है, बूथ का सेनापति से कनेक्शन है या नहीं...? चुनावी पिटारे में क्या है इत्यादि. यह सिर्फ एक नेता का चुनाव नहीं होता, बल्कि पूरे संगठन, कार्यकर्ता, बूथ और विचारधारा की जीत और हार का भी होता है.

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ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने तैयारी नहीं की, बल्कि INDIA गठबंधन कर राजनीतिक भूचाल लाने की कोशिश की. 28 मज़बूत दलों के साथ प्रधानमंत्री मोदी को हराने का ऐलान भी किया. उनके इस ऐलान से सत्ता पक्ष भी सकते में आने को मजबूर हुआ, लेकिन इस गठबंधन को ज़िन्दा रखने और बढ़ाने में राजनीतिक हवा-पानी की जो ज़रूरत थी, वह नहीं मिलने से वह मुरझाने की स्थिति में है. कई दलों ने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया, कुछ नेताओं ने मोदी के खेमे में छलांग लगाने का फैसला कर लिया. INDIA गठबंधन में जो बचे हुए हैं, उनके बीच कहीं-कहीं सीटों का बंटवारा हुआ है, तो कइयों के साथ पसोपेश की स्थिति बरकरार है.

INDIA गठबंधन की इसी तैयारी को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी गठबंधन की अपनी फौज को बढ़ाते ही जा रहे हैं. अब तो 400 पार का नारा दे रहे हैं. इसी से जुड़ा हुआ सवाल है कि NDA के सेनापति मोदी हैं, लेकिन INDIA गठबंधन के सेनापति को लेकर सस्पेंस पहले भी था और अब भी सस्पेंस ही है. गौर करने वाली बात है कि नीतीश कुमार, जयंत चौधरी, फारुक अब्दुल्ला और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रिश्ता तोड़ने के बाद भी INDIA गठबंधन तय नहीं कर पा रहा है कि मोदी के खिलाफ उनके पास कौन चेहरा है...?

राहुल गांधी ने दो बार जनसंपर्क अभियान भी शुरू किया. एक बार 'भारत जोड़ो यात्रा' और दूसरी बार 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा'. राहुल का मकसद देश में मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाना और लोकसभा चुनाव में हराने का है. यहां सवाल उठता है कि INDIA गठबंधन के गठन के समय राहुल का आगे होना और 'भारत जोड़ो यात्रा' को लीड करना, लेकिन असली जंग के समय अमेठी से वायनाड चले जाना संदेह पैदा करता है...? कभी 400 से ज़्यादा सीट हासिल करने वाली कांग्रेस 52 पर सिमट गई है, एक समय ऐसा भी था, जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी. UP में तूती बोलने वाली कांग्रेस पार्टी को अब अपने गढ़ अमेठी और रायबरेली की शायद परवाह ही नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्या राहुल गांधी का फैसला सही है या वोटर के फ़ैसले का इंतज़ार करना चाहिए...?

धर्मेंद्र कुमार सिंह पत्रकार, चुनाव विश्लेषक और किताब 'विजयपथ - ब्रांड मोदी की गारंटी' के लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.