पद्मविभूषण एवं पद्मभूषण जैसे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों से सम्मानित मूर्धन्य चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की आठवीं पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी जन्मभूमि मण्डला, मध्य प्रदेश में उन्हें विभिन्न कलाओं के माध्यम से याद किया गया. यह आठवां वर्ष है, जब उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर कला और साहित्य को समर्पित रज़ा फ़ाउंडेशन ने रज़ा स्मृति नाम से तीन-दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें देश के अलग-अलग क्षेत्रों से चित्रकारों, हिन्दी-उर्दू के कवियों-शायरों के साथ स्थानीय कलाकारों और स्कूली बच्चों ने 'छाते के रंग' और 'माटी के रंग' जैसी कलात्मक गतिविधियों में भाग लिया.
सैयद हैदर रज़ा ऐसे ही चित्रकार के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपने जीवन का प्रारम्भ अभावों की क्षति में मध्य भारत के प्राकृतिक माहौल में किया. विभाजन के बाद जहां उनका परिवार पाकिस्तान जा बसा था, वहीं रज़ा ने फैसला किया कि वह भारत में ही रहेंगे. उनका यह फैसला महात्मा गांधी और मां नर्मदा के प्रति आस्था और विश्वास का परिणाम था.
रज़ा के रचे चित्रों में मूर्तन और अमूर्तन दोनों ही तरह के भाव विद्यमान हैं और एक समय बाद उनके बनाए चित्र बिंदु-केंद्रित हो गए, जो इस बात की ओर संकेत करता है कि रज़ा ध्यान और अध्यात्म के मौन अभ्यास में अपनी कूची के माध्यम से कला में नए आयाम खोज रहे थे.
सैयद हैदर रज़ा द्वारा रचित बिन्दु-केंद्रित एक चित्र 'इनऑडिबल साउंड : न सुनी जा सकने वाली आवाज़' के रंग-विस्तार और अंतःध्वनि के सूक्ष्म कणों को शब्द देते हुए हिन्दी भाषा के समादृत लेखक-कवि उदयन वाजपेयी ने लिखा है, "पहले इस चित्र को ध्यान से देखो... कुछ देर ध्यान से देखते रहो... चित्र के ठीक बीच का काला गोला अपनी ही जगह धड़कता-सा महसूस होता है... यह मुझे लगता है, शायद तुम्हें भी लगे या शायद न लगे... उसके हर तरफ हल्का पीला रंग लगा है... धड़कते गोले या कह लें बिन्दु-नाद से नाद की उत्पत्ति शुरू नहीं हुई है... अभी तक धड़कन आवाज़ नहीं बन पाई है... और अगर बन गई है, तो वह सुनाई नहीं दे रही... वह आवाज़ तो बन गई है, पर इतनी ज़ोर की नहीं कि उसे सुना जा सके... बिन्दु-नाद का कम्पन दिखाई दे रहा है, पर सुनाई नहीं देता..."
पिछले आठ वर्ष से रज़ा फ़ाउण्डेशन के प्रबन्ध न्यासी अशोक वाजपेयी सैयद हैदर रज़ा की पुण्यतिथि पर इसी तरह की कलात्मक गतिविधियां मण्डला की स्थानीयता में कला के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए आयोजित करवा रहे हैं. भारतीय युवाओं को कला में प्रोत्साहन देने के लिए ही 'रज़ा फा़उंडेशन' की स्थापना की गई है.
अशोक वाजपेयी ने खासा लंबा अरसा सैयद हैदर रज़ा के साथ बिताया है. उन्होंने रज़ा के कलात्मक पक्षों को न सिर्फ़ गहराई से जानने का प्रयास किया, बल्कि रज़ा को अपने चित्रों में डूबे सत्रों में घंटों बैठे देखते हुए उनकी प्रतीक्षा भी की है. रज़ा ने भारत से अपनी कला की शुरुआत की और फ्रांस में कई वर्षों तक रहते हुए अपनी कला को असीम विस्तार दिया. वह प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के सदस्य रहे हैं, जिनमें एफ.एन सूज़ा, के.एच. आरा, एम.एफ. हुसैन, एस.के.बाकरे, एच.ऐ. गाडे उनके साथी चित्रकार थे. इस ग्रुप ने चित्रकला में आधुनिकता का एक ऐसा भारतीय रूप बनाने का प्रयास किया, जिसमें पारंपरिक भारतीय चित्रकला के साथ यूरोप और अमेरिका में कला के अग्रणी विकास को भी स्वीकार किया गया. सैयद हैदर रज़ा की दूसरी पत्नी जानीन भी कलाकार थीं.
20 से 23 जुलाई तक मण्डला में आयोजित तीन-दिवसीय रज़ा स्मृति कार्यक्रम के अंतिम दिन रज़ा फ़ाउण्डेशन के प्रबन्ध न्यासी अशोक वाजपेयी ने उपस्थित कलाकारों और स्थानीय लोगों से अपील की कि वे मण्डला की ज़मीं पर जन्मे अपने चित्रकार की स्मृतियों को अपनी कला के माध्यम से सदा याद रखें, जिसके लिए फ़ाउंडेशन की स्थापना भी की गई है. शायद यही एक उच्च भाव हो सकता है, मण्डला की ही ज़मीन में मृत्यु के बाद आराम कर रहे एक कलाकार के स्पंदनों को महसूस करने का.
पूनम अरोड़ा 'कामनाहीन पत्ता' और 'नीला आईना' की लेखिका हैं... उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी पुरस्कार, फिक्की यंग अचीवर, और सनातन संगीत संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है...
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