PM मोदी की रणनीति में बुरी तरह घिरा चीन

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Harish Chandra Burnwal

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के साथ वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए 8-9 जुलाई को मॉस्को उस समय पहुंचे, जब 32 देशों के संगठन NATO की 75वीं शिखर बैठक अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में 9-11 जुलाई को हो रही है. NATO की यह बैठक रूस-यूक्रेन युद्ध पर केंद्रित है, जिसमें यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की भी शामिल हो रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पल-पल बदलती इस रणनीति का असर तो आने वाले समय में दिखेगा, मगर 4 जुलाई को कज़ाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में जब शंघाई सहयोग संगठन का शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, तो उसमें प्रधानमंत्री मोदी शामिल नहीं हुए थे. PM मोदी की इस कूटनीति का असर तुरंत नज़र आने लगा था. यह समझ लीजिए कि अमेरिका के नेतृत्व वाले NATO की तरह चीन ने अपने नेतृत्व में शंघाई संगठन खड़ा किया है. इस शिखर सम्मेलन से प्रधानमंत्री मोदी की अनुपस्थिति से चीन पर ऐसा कूटनीतिक दबाव बना कि उसने शंघाई शिखर सम्मेलन की समाप्ति होने तक भारत के विदेशमंत्री के साथ बातचीत के दौरान सीमा विवाद को सुलझाने की पेशकश कर दी. यह भारत-चीन संबंधों को लेकर एक बहुत बड़ा बदलाव है.

जैसे को तैसा

अस्ताना में आयोजित 24वां शंघाई शिखर सम्मेलन ऐसा मौका था, जब चीन अगले एक साल के लिए संगठन की अध्यक्षता संभाल रहा है. यह चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के लिख़िलाफ़    ए अमेरिका और पश्चिमी देशों को यह दिखाने का मौका था कि चीन जिस भी संगठन का नेतृत्व करता है, उसमें एकमत और एकता होती है, लेकिन भारत के शामिल न होने से इससे बिल्कुल उलट संदेश गया. चीन जिस शंघाई संगठन को पश्चिमी देशों के संगठन के ख़िलाफ़ चुनौती के रूप में खड़ा करना चाहता है, उसमें एकमत और एकता नहीं है, क्योंकि चीन सदस्य देशों से एक बादशाहत की सोच के साथ व्यवहार करता है. इस स्थिति को संभालने के लिए ही सम्मेलन में भारत की तरफ से शामिल होने पहुंचे विदेशमंत्री डॉ एस. जयशंकर और चीन के विदेशमंत्री वांग यी के बीच हुई द्विपक्षीय मुलाकात में चीन ने कहा कि वह सीमा विवाद को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए वार्ता करना चाहता है. भारत के इस रुख से दो फ़ायदे हुए. एक - जी-20 शिखर सम्मेलन में चीन को उसके रवैये का करारा जवाब मिला, वहीं दूसरी तरफ सीमा विवाद को लेकर चीन को अपने रुख में बदलाव करने को विवश होना पड़ा.

चीन के सामने सीमा विवाद की चुनौती

चीन ने मोदी सरकार से पहले भारत के साथ ऐसी रणनीति तैयार की थी, जिसके तहत चीन चाहता था कि दोनों देशों के रिश्ते हर क्षेत्र में सामान्य रहें और सीमा विवाद को सेकंडरी मानते हुए उस पर बातचीत होती रहे. मगर मोदी सरकार ने इसे पूरी तरह बदल दिया. मोदी सरकार ने तय किया है कि जब तक सीमा विवाद हल नहीं कर लिया जाता, बाकी क्षेत्रों में अच्छे रिश्ते होने का कोई मतलब नहीं है. मोदी सरकार ने डोकलाम और गलवान की घटना के बाद भारत के हितों को सर्वोपरि रखते हुए अपनी चीन नीति में आमूलचूल परिवर्तन लाने का काम किया है.

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भारत और चीन के बीच लद्दाख सेक्टर में सीमा विवाद मई, 2020 के खूनी संघर्ष के बाद से ही चल रहा है. यह खूनी संघर्ष गलवान घाटी में उस समय हुआ था, जब चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अंदर घुसकर चौकी बनाने का प्रयास कर रहे थे. यह संघर्ष कोविड महामारी के दौर में हुआ था, जब चीन के कोरोनावायरस ने पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया था. कोविड महामारी से जूझ रहे भारत की स्थिति को कमज़ोर समझते हुए चीन ने लद्दाख की गलवान घाटी में हमला कर दिया था, लेकिन भारतीय जवानों ने भी मुंहतोड़ जवाब दिया. भारत के जवाबी हमले के दर्द को चीन आज तक सह रहा है और स्थिति यह है कि इस हमले के बारे में उसके लिए कुछ भी बोलते नहीं बन रहा है.

चीन यह नहीं बता सका है कि इस संघर्ष में उसके कितने सैनिक भारतीय जवानों के हाथों मारे गए. रूस और पश्चिमी देशों की खुफ़िया एजेंसियों ने उस समय जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार इस संघर्ष में चीन के 40 से अधिक सैनिक मारे गए. आज भी इसी क्षेत्र के देपसांग, डेमचोक में सीमा विवाद बना हुआ है. आज भी सीमा पर हज़ारों की संख्या में दोनों ओर से सैनिक खड़े हैं. मई, 2020 के बाद से ही इस विवाद को निपटाने के लिए 21 दौर की सैन्य वार्ता और 15 दौर की कूटनीतिक वार्ताएं हो चुकी हैं, लेकिन चीन उन समझौतों के आधार पर इस विवाद को सुलझाने को ही तैयार नहीं है, जिन पर उसने भारत के साथ 1990 से हस्ताक्षर किए हैं.

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फ़ेल हुई चीन की रणनीति

अठारहवीं लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी, 2024 में सीमा विवाद निपटाने के लिए 21वें दौर की सैन्य वार्ता हुई थी, लेकिन चीन की हठधर्मिता के कारण विफल रही. वार्ता के विफल होने के पीछे चीन की वह रणनीति थी, जिसमें वह लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर देखना चाहता था. यदि चीन की यह रणनीति सफल हो जाती, तो वह भारत में लेफ्ट लिबरल की बनने वाली सरकार के साथ मिलकर सीमा विवाद को बातचीत के ज़रिये सुलझाने का वादा कर अन्य आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों को तेज़ी से आगे बढ़ाने में कामयाब हो सकता था. लेकिन लोकसभा चुनाव के परिणामों ने चीन की रणनीति पर पानी फेर दिया. अब, जब नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री बन चुके हैं, तो चीन को भारत से मिल रही एक के बाद एक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

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सौ सुनार की, एक लोहार की

प्रधानमंत्री मोदी ने तीसरी बार शपथ ग्रहण करने के साथ ही चीन को सीधा संदेश देना शुरू कर दिया कि रिश्ते को सामान्य बनाने के लिए सीमा पर स्थिति का सामान्य होना आवश्यक है. 9 जून के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के अलावा सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को शामिल होने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने निमंत्रण दिया, जिसमें चीन के सबसे करीबी मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू को भी बुलाया गया था. फिर प्रधानमंत्री मोदी का यह निर्णय कि तिब्बत के 30 भौगोलिक क्षेत्रों का नामकरण भारत अपने मानकों के आधार पर करेगा, इससे चीन को सबसे कड़ा संदेश भी दिया गया. इसके बाद चीन को परेशान करने वाला सबसे बड़ा निर्णय यह लिया कि अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल को बौद्ध धर्म के धर्मगुरु दलाई लामा से मिलने के लिए धर्मशाला जाने की इजाज़त दे दी गई. अमेरिका के इस प्रतिनिधिमंडल में अमेरिकी सीनेट की पूर्व स्पीकर और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की नीतियों की धुर-विरोधी नैंसी पेलोसी भी थीं.

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आर्थिक युद्ध में फंसा चीन

चीन यह तो जानता है कि भारत के साथ उसके रिश्ते बेहतर होना ज़रूरी है, क्योंकि भारत के बाज़ार की ऐसे समय में उसको सबसे अधिक ज़रूरत है, जब अमेरिका के साथ आर्थिक युद्ध चल रहा है. चीन की कंपनियों और उत्पादों पर अमेरिका और पश्चिमी देशों में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं और बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन से अपने उत्पादन केंद्रों को बंद कर दुनिया के दूसरे देशों में ले जा रही हैं. इन आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए चीन चाहता है कि भारत रिश्तों को सामान्य बनाने में सीमा विवाद को मुद्दा न बनाए, लेकिन भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि सीमा को असामान्य रखकर चीन के साथ रिश्तों को सामान्य नहीं किया जा सकता. चीन रिश्तों को सामान्य बनाने का प्रयास कर रहा है और इसी क्रम में उसने इसी महीने भारत सरकार से यह भी आग्रह किया कि वह चीन और भारत के बीच हवाई सेवा शुरू होने दे, लेकिन भारत सरकार ने साफ़ कर दिया कि यह हवाई सेवा भी अभी बंद रहेगी. भारत-चीन के बीच हवाई सेवा कोविड के दौरान महामारी से बचने के लिए बंद की गई थी, जिसे भारत अभी सामान्य करने के पक्ष में नहीं है.

चीन इस मुगालते में था कि भारत ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगा, जिससे उसकी नाराज़गी बढ़े और भारत के इसी भय का फायदा उठाकर वह सीमा को भी अपने हिसाब से निर्धारित कर लेगा. लेकिन भारत ने सीमा के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में एक के बाद एक जिस तरह कदम उठाने शुरू किए, उससे निपटने के लिए चीन के पास निकट भविष्य में बातचीत के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है.

भारत के आगे कोई नहीं

प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ पिछले पांच सालों में कोई भी शिखर सम्मेलन नहीं हो सका है, क्योंकि चीन ने सीमा पर विवाद पैदा कर भारत के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाने का लगातार प्रयास किया है. शंघाई शिखर सम्मेलन के ठीक पहले इटली में आयोजित जी-7 शिखर सम्मेलन में PM मोदी का शामिल होना और अब NATO शिखर सम्मेलन के दौरान ही मॉस्को में राष्ट्रपति पुतिन से शिखर सम्मेलन कर प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को साफ़ संदेश दे दिया है कि उनके लिए भारत का राष्ट्रीय हित सबसे ऊपर है.

हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.