This Article is From Feb 20, 2024

गुलज़ार को ज्ञानपीठ : ये सम्मान यों ही नहीं मिलता

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Vinod Khetan

कोई सत्तर साल हुए होंगे -बम्बई (आज के मुम्बई) के एक साहित्यिक अड्डे पर बात हो रही थी -कला की, साहित्य की और ज़िंदगी में साहित्य और कला की ज़रूरत की. यह दौर ऐसा था जिसमें उर्दू में लिखने वाले या यों कहें कि देवनागरी के अतिरिक्त नस्तालीक़ में लिखने वाले लेखकों का ज़ोर कुछ ज़्यादा था. राजेन्दर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी और सुखवीर जैसे रचनाकार अनौपचारिक गुफ़्तगू में या बहस में शामिल होते थे. बलराज साहनी जैसे लेखक और अभिनेता भी वहाँ होते थे. इप्टा और पीडब्लूए जैसे संगठनों से नवोदित लेखकों/ सर्जकों का जुड़ना आम बात थी. तो एक दिन इस साहित्यिक अड्डे में एक नवयुवक लेखक गुलज़ार भी शामिल थे. ज़्यादातर बड़े लोगों का मानना था कि समाज की संरचना में किसान मजदूर और अन्य श्रमजीवियों की तो महत्वपूर्ण भूमिका है, पर कला और कलाकार की भूमिका पर सवाल थे. नवयुवक गुलज़ार के पास कोई माकूल जवाब उस वक्त तो नहीं था पर उन्होंने अगली मीटिंग के लिए एक कहानी लिखी- सतरंगा. यह कहानी उस सवाल का जवाब तो है ही अपने आप में एक उत्कृष्ट रचना भी है. 'सतरंगा' के लेखक लिखते रहे, पढ़ते रहे, और लिखते रहे, और पढ़ते रहे. धीरे-धीरे दुनिया उनको जानती गई. पाठकों को गुलज़ार की रचनाएँ आकर्षित करती गईं और फिर गुलज़ार एक लब्धप्रतिष्ठ शायर, कहानीकार और फिल्मकार के रूप में स्थापित होते गए.

मज़े की बात यह है कि आज भी गुलज़ार लिखते उर्दू में ही हैं, पर उनका सबसे बड़ा पाठक वर्ग और ज़्यादातर लोग उनसे देवनागरी के माध्यम से ही रूबरू होते हैं. दरअसल उर्दू का व्याकरण तो वही है जो हिंदी का, ख़ास तौर पर संज्ञा और क्रियाएँ. भाषा की रवानी वही है. हाँ,  फ़ारसी और अरबी की शब्द संपदा का ज़ायका ज़रूर थोड़ा अलग है. बहरहाल गुलज़ार की शुरुआत की थोड़ी रोमांटिक-थोड़ी नॉस्टैल्जिक नज़्मों का संग्रह उर्दू में 'जानम' और फिर हिंदी में 'एक बूँद चाँद' आया. कहानियों का पहला संग्रह 'चौरस रात' आया, जिसमें ज़्यादातर कहानियाँ लंबी नहीं थी.बस यह सिलसिला चलता गया , पत्र पत्रिकाओं में गुलज़ार की रचनाएँ पाठकों के दिलों को छूती गयीं. उर्दू रिसालों में तो वे साया हो ही रहे थे, वरिष्ठ संपादक धर्मवीर भारती 'धर्मयुग' के लिए उनकी रचनाएँ अक्सर चुनते रहे. एक मज़दार क़िस्सा भी है कि एक बार जब भारती जी ने कुछ नयी रचनाएँ माँगीं तो गुलज़ार ने कुछ छोटी नज़्में भेज दीं, इस पर भारती जी ने मज़ाक किया कि ये रेज़गारी क्यों दे रहे हो! फिर जब 1979 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निधन पर धर्मयुग का अंक प्रकाशित हुआ तो उसमें गुलज़ार की नज़्म 'मौत ओ मातम /गेट टूगेदर ' भी शामिल थी और आँखों को नम करने वाली यह नज़्म चर्चा का विषय हुई. इस बीच उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी थीं. कविताओं की : कुछ और नज़्में; दस्तख़त; पुखराज; साइलेंसॆज; और कहानियों की : धुआँ  (हिंदी में 'रावी पार'). शिल्प के स्तर पर उनका एक अद्भुत प्रयोग था - 'त्रिवेणी'. सारिका में प्रकाशित इस नए फॉर्म 'त्रिवेणी' के आकर्षण में एक बड़ा पाठक समूह शामिल हो गुलज़ार को जान पाया. ख़ुद उनके शब्दों में "त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा जमुना की तरह मिलते हैं, और एक ख़याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं. लेकिन इन दो धाराओं के बीच एक और नदी है सरस्वती, जो नज़र नहीं आती, त्रिवेणी का काम सरस्वती को दिखाना है." 

धीरे-धीरे सैकड़ो नज़्मों का सफ़र एक बड़े मुकाम पर पहुँचा, जब 2002 में एक महत्वपूर्ण किताब आई 'रात पश्मीने की'. साहित्यिक जगत में गुलज़ार की अपनी शैली उनकी नज़्मों के विषयों का एक बड़ा कैनवस अब लोगों को दिखने लगा -आलोचकों को थोड़ा कम पर पाठकों को भरपूर. उनकी नज़्में कायनात 1,2,3,4; ख़ुदा 1,2,3,4; फ़सादात 1, 2,3,4,5,6  के अतिरिक्त वॉन गॉग़ का एक ख़त; वारदात; टोबा टेक सिंह; खर्ची;  एक और दिन; कचहरियों; और न जाने कितनी ऐसी नज़्मों पर चर्चा होती थी.

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हाँ, एक अजीब मुश्किल भी इस रचनाकार को झेलनी पड़ी. उन दिनों गुलज़ार फिल्मकार के रूप में एक अलग ऊँचाई पा चुके थे -गीतकार, पटकथा लेखक, संवाद लेखक और निर्देशक के रूप में. मुश्किल यह थी कि फिल्मकार गुलज़ार की चकाचौंध में आलोचकों को साहित्यकार गुलज़ार कभी-कभी नहीं दिखते थे. हालांकि यह सब मानते हैं कि उनके फिल्मी गीतों में भी जो काव्यतत्व है, जो कविता है, वह अपने आप में एक ऐसी साहित्यिक ऊंचाई है जिस पर आज तक लगातार बने रहना एक विरल घटना है. 'मेरा कुछ सामान' कविता है या फिल्मी गीत! अपनी-अपनी दृष्टि. बहरहाल, 2002 में गुलज़ार को कहानी संग्रह 'धुआँ' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. मेरी नज़र में यह एक तरह की क्षतिपूर्ति भी थी,  साहित्यकार गुलज़ार इसके हकदार तो कब से थे ही. हाँ पुरस्कारों से वे विचलित नहीं हुए, ना तो खुश होकर रुक गए और ना ही अपनी रचनाधर्मिता के मूल तत्व को बदला. उनकी रचनाओं के मूल में मनुष्य है- उसकी भावनाएँ, उसके रिश्ते, उसकी परछाइयाँ, उसकी परिस्थिति, उसका समाज, उसकी मुश्किलें और उसके संघर्ष.

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'सतरंगा' के नवयुवक गुलज़ार उम्र के नौवें दशक में भी कला और साहित्य की  प्रासंगिकता का अर्थ अनवरत तलाश रहे हैं- बिंबो के विपुल संसार को गढ़, शिल्प के जाने अनजाने रास्तों पर चल, और सबसे बढ़कर सृजन यात्रा में लगातार आगे बढ़.   ग़ज़लें लिखी तो उन्होंने कहा "कुछ तो कहिए" ग़ैर फिल्मी गीत लिखे तो "सनसेट पॉइंट" जैसे बीसियों एल्बम को उम्दा शायरी से रोशन किया. बच्चों के लिए  ढेर सारी किताबें लिखी - कायदा, एक में दो, बोसकी की गप्पें,  बोसकी का पंचतंत्र इत्यादि. संस्मरण के  'पिछले पन्ने' टटोले और अनुवाद में तो गुलज़ार इतने गहरे उतरे कि मराठी कवि कुसुमाग्रज की 'चुनी सुनी नज़्में' आई; टैगोर की कविताओं पर दो किताबें 'निंदिया चोर" और 'बागबान' प्रकाशित हुईं.  फिर 1947 के बाद के भारत की विपुल साहित्य संपदा में से अलग-अलग 34 भाषाओं के 279 कवियों की 365 कविताओं का एक बृहद संग्रह आया "ए पोयम ए डे ". इस संग्रह में दो भाषाओं- हिंदी और अंग्रेजी के पाठक को साल भर हर रोज एक कविता का स्वाद मिलता है. ग़ालिब की ज़िन्दगी पर आई  किताब और टेलीविजन सीरियल 'मिर्ज़ा ग़ालिब' से तो सारी दुनिया वाक़िफ है पर भारत के एक महान सपूत एपीजे अब्दुल कलाम की आत्मकथात्मक किताब 'परवाज़' को गुलज़ार ने शब्द दिए, आवाज दी, और नाट्य रूपांतरण भी किया.

नज़्में साथ-साथ चलती रहीं- सिलेक्टेड पोयम्स; नेगलेक्टेड पोयम्स; ग्रीन पोयम्स जैसी अंग्रेजी अनुवाद के साथ हिंदी-उर्दू की नज़्में आती रहीं. 'यार जुलाहे', 'पन्द्रह पाँच पचहत्तर', "प्लूटो' जैसे नए संग्रह आते रहे.अक्सर शायर गुलज़ार को कुछ और कहना होता तो वह कहानी लिखते और फिर 'ड्योढ़ी' जैसे कहानी संग्रह प्रकाशित होते. विभाजन की त्रासदी पर 'फुटप्रिंट ऑन ज़ीरो लाइन' जैसी बहुविधात्मक किताब आई, एक विषय पर लिखी नज़्मों और कहानियों का संग्रह बनाते हुए. और फिर 2017 में आया गुलज़ार का पहला उपन्यास "दो लोग". विभाजन के वक़्त का यह गंभीर पर बहुत दिलचस्प उपन्यास है, इसमें त्रासदी तो है ही पर विभाजन की पीड़ा से कस्बाई आम इंसानों ने, साधारण परिवारों ने कैसे वक़्त गुज़ारा- इसकी एक अत्यंत मानवीय गाथा है यह उपन्यास.

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बहरहाल बात आज  ज्ञानपीठ पुरस्कार की है. हमें नहीं पता कि इस वक़्त के इतने बड़े लेखक को कैसा लगा होगा जब उन्हें फिल्मों की सफलताओं के लिए कई-कई फिल्मफेयर और नेशनल अवार्ड मिले, ऑस्कर मिला, ग्रैमी मिला  दादा साहब फाल्के मिला ! ज़ाहिर है बहुत अच्छा लगा होगा. पर मेरा यह यकीन है कि किशोरावस्था में जिस गुलज़ार ने लेखक होने का सपना देखा, बड़े लेखक मोपाँसा की किताब की जिल्द पर लेखक के नाम  के ऊपर अपना नाम चस्पा कर यह कल्पना की कि जब वह लिखेंगे और किताब छपेगी और लोग उन्हें लेखक के रूप में मानेंगे तो कैसा अद्भुत लगेगा, उन्हें आज एक सुखद पड़ाव मिला. बीज पड़ चुका था. बीज बचपन में ही पड़ चुका था -टैगोर की खाद थी और जिज्ञासा का पानी कम उम्र से ही इस लेखक को सींचता रहा. आज जब गुलज़ार को ज्ञानपीठ से नवाजा गया है तो ज़ाहिर है मूलत: साहित्यकार के रूप में उनकी पहचान को स्वीकारा गया है. और साहित्यकार गुलज़ार को तसल्ली ज़रूर हुई होगी. यहाँ गुलज़ार साहब के खिलंदड़े अंदाज में यह बताना भी ज़रूरी है कि ये जो फिल्मी गीत लिखने वाले गुलज़ार हैं ना, उन्होंने फिल्मों के अतिरिक्त इतने विपुल रचना संसार की सृष्टि की है की जिसे पढ़ने समझने में मुझ जैसे पाठक की आधी उम्र निकल जाए. वैसे पाठकों के कान में बता दूँ कि  गुलज़ार फिल्मी गीत भी उतना ही उम्दा लिखते हैं, जितनी खूबसूरत नज्में.  गुलज़ार साहब को ज्ञानपीठ मिलने की मुबारकबाद और ज्ञानपीठ को गुलज़ार चुनने की मुबारकबाद!

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(लेखक एम्स में डॉक्टर हैं और लेखन, कविता और कला में गहरी दिलचस्पी रखते हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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