This Article is From Dec 29, 2021

समाज सुधारक बनने के चक्कर में नीतीश कुमार ने अपनी छवि को ही धक्का पहुंचाया

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Manish Kumar

"सुशासन बाबू" के नाम से चर्चित बिहार (Bihar) के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) इन दिनों समाज सुधार अभियान (Samaj Sudhar Abhiyan) पर बिहार के ज़िला मुख्यालयों में प्रमंडलवार समीक्षा कर रहे हैं. कोरोना काल में ये समाज सुधार अभियान उनके साढ़े पाँच वर्ष पूर्व शराबबंदी के फैसले की असफलता के कारण उन्हें शुरू करना पड़ा है. इस बात में कोई बहस नहीं कि नीतीश ना केवल बिहार की सता पर 16 वर्षों से काबिज हैं बल्कि राज्य में सबसे लंबे समय तक मुख्य मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड भी उनके नाम हो गया है. वो उन कुछ अपवादस्वरूप मुख्यमंत्रियों में से एक हैं, जिन्होंने सता में बने रहकर ना तो भ्रष्ट तरीके अपनाए और ना ही व्यक्तिगत तौर पर संपति अर्जित की, बल्कि वो इस प्रवृति से कोसों दूर रहे. यहां तक कि नीतीश कुमार ने अपने परिवार के किसी व्यक्ति को पार्टी या सत्ता के नज़दीक भटकने भी नहीं दिया जो आज कल की राजनीति में एक बिरला उदाहरण हो सकता है.

इस पृष्ठभूमि में 2021 में नीतीश के प्रदर्शन को आप देखेंगे तो निराशा हाथ लगेगी. जिस शराबबंदी को उन्होंने प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ है, वो आज उनके सुशासन का सार्वजनिक तरीके से उपहास उड़ाता है. अब तो लोग मजाक में कहते हैं कि एक तरफ शराब की खाली बोतल हो और एक तरफ बम तो बिहार पुलिस बोतल की जाँच पहले शुरू करेगी, भले ही बम विस्फोट हो जाए और कुछ लोगों की जान ही क्यों ना चली जाय?

इसके कई कारण हैं. इस साल की तीन सबसे महत्वपूर्ण तस्वीर बिहार की क्या रही? अगर आपसे कोई पूछे तो पहला नीतीश कुमार का इंडिगो एयरलाइंस के मैनेजर रूपेश कुमार की हत्या के बाद मेरे उस सवाल पर कि क्या आपका इक़बाल ख़त्म हो रहा है तो जवाब में उनकी नस तनी भाव भंगिमा का वायरल फ़ोटो होगा. नीतीश के जवाब का लब्बोलुवाब यह था कि आपकी सहानुभूति विपक्ष और राष्ट्रीय जनता दल से अधिक है तो मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठे सत्ता के नशे में चूर होकर वह शायद भूल गए कि लोकतंत्र में विपक्ष के साथ पत्रकार का मेल-जोल अपराध नहीं बल्कि इस बात की निशानी है कि सत्ता उसे तमाम शक्ति और हथकंडों के बावजूद अपने खेमे में मिला नहीं पाई है.

दूसरा दृश्य बिहार विधान सभा के बजट सत्र के आख़िरी दिन का होगा, जब विधान सभा के इतिहास में पहली बार पुलिसकर्मियों ने ना केवल विधान सभा के अंदर प्रवेश किया बल्कि सदन के अंदर से विपक्षी सदस्यों को खींच कर पीटते-घसीटते हुए बाहर ले गए और ये सब तब हुआ, जब सुशासन की सरकार के मुखिया यानी नीतीश कुमार अपने चैम्बर में बैठे हुए थे और विपक्ष के सदस्य विधान सभा अध्यक्ष के चैम्बर के सामने धरना पर बैठे थे. ये सब नीतीश की सहमति और जानकारी में हुआ लेकिन इस घटनाक्रम के बाद उन्होंने उसी शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम का लुत्फ़ उठाया और इस घटनाक्रम के लिए उनके चेहरे पर थोड़ी भी शिकन तक नहीं थी. जानकारों का कहना है कि सता में आने के लिए जब नीतीश बाहुबलियों के सामने नतमस्तक हो सकते हैं तो इस घटना पर इतना आश्चर्य क्यों? ये उनके स्वभाव के अनुरूप है.

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तीसरा दृश्य सबसे हास्यास्पद और इस देश की दो प्रमुख सेवाओं IAS और IPS बिरादरी के लिए शर्मनाक था, जब बिहार विधान सभा परिसर में शराब की एक ख़ाली बोतल की जाँच के लिए राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को तलब किया गया था और वो उस बोतल का ऐसे निरीक्षण करते दिखे थे, जैसे कोई परमाणु बम का गोला गिरा हो. अमूमन ऐसी जाँच कोई स्थानीय थाना प्रभारी कर सकता था लेकिन पूरे देश में इस फ़ोटो और विज़ुअल्स की चर्चा इस संदर्भ में होती रही कि बिहार के मुख्य सचिव और डीजीपी को इसी काम के लायक नीतीश समझते हैं.

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बिहार विधान सभा परिसर में शराब की बोतलों का निरीक्षण करते राज्य के डीजीपी और मुख्य सचिव.

और यही हाल आज के नीतीश कुमार के बिहार का है. सता में वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से बैठे तो हैं लेकिन उनकी हनक अब नहीं रही. इसी का प्रमाण है कि वो चाहे शराबबंदी हो या जातिगत जनगणना या विशेष राज्य का दर्जा.. सबकी हवा विपक्ष से पहले उनकी सहयोगी पार्टी भाजपा अपने तर्कों से निकाल दे रही है. नीतीश भाजपा के कुछ मंत्री को नसीहत तो यदा कदा देते हैं लेकिन अधिकांश समय उनका पंचिंग बैग मीडिया ख़ासकर कुछेक पत्रकार होते हैं जो उनके वर्तमान समय के बारे में सत्य लिखने की हिम्मत दिखाते हैं. नीतीश अपनी तरफ से मीडिया पर अंकुश लगाने का प्रयास अपने विज्ञापन नीति के माध्यम से पूरा करते हैं लेकिन सब पर उनका दबाव नहीं चलता है. 

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शराबबंदी विफल है और इसे विफल बनाया है उनकी ही पुलिस ने मफ़ियाओं के साथ मिलकर लेकिन अगर आप लिखेंगे तो चूँकि नीतीश खुद पुलिस विभाग के मुखिया हैं तो जनता में स्वीकार कर नहीं सकते कि उनकी भूल-चूक से ये समानांतर व्यवस्था क़ायम हुई है. ऐसे में दोष आँगन को देना मनुष्य का सहज स्वभाव बन जाता है. लिहाजा वो मीडिया के ऊपर दोष डालकर इससे बचना चाहते हैं और अगर आपका उनसे आमना-सामना हो गया तो वो आपको याद दिलाएँगे कि आपने भी शपथ खायी थी कि शराबबंदी को सफल बनाएँगे लेकिन वो खुद भूल जाते हैं कि हर बार वो भी बिना राग द्वेष के काम करने की शपथ खाते हैं लेकिन करते हैं बिल्कुल ठीक उसका उल्टा.

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बिहार में शराबबंदी सफल नहीं हुई तो नीतीश के ऊपर ही इसकी ज़िम्मेवारी इसलिए बनती है क्योंकि चाहे नालंदा में उनकी पार्टी के नेताओं की गिरफ़्तारी का मामला रहा हो या उनके मंत्रिमंडल सहयोगी रामसूरत राय के भाई के विद्यालय से शराब की ज़ब्ती का, नीतीश की कथनी और करनी में उन जगहों पर फ़र्क साफ दिखता रहा. या फिर आईपीएस अधिकारी विवेक कुमार जिनके ऊपर EOW ने शराब माफिया से साँठगाँठ के कथित आरोप के आधार पर कारवाई शुरू की तब भी नीतीश की कथनी और करनी में अंतर दिखा. इस वजह से उनके अभियान को कोई गंभीरता से नहीं लेता.

बिहार सरकार में मंत्री रामसूरत राय और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार.

हालात तो ऐसे हैं कि नीतीश के आदेश को उनके वरीय अधिकारी भी गंभीरता से नहीं लेते. इसका बड़ा उदाहरण राज्य के डीजीपी हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री ने खुद अपना मोबाइल फ़ोन उठाने का आदेश दिया था लेकिन जो नंबर डीजीपी ने जारी किया है, उस पर जब आप फोन करेंगे तो कोई मातहत उठाएगा तो ज़रूर लेकिन वर्तमान डीजीपी कभी कॉल बैक नहीं करते. यही कारण है कि शराबबंदी के सम्बंध में जब भी वो समीक्षा बैठक करते हैं तो सबका यही मानना होता है कि ये समय की बर्बादी है. 

नीति आयोग की रैंकिंग में फिसड्डी आने पर नीतीश जनसंख्या और राज्य के क्षेत्रफल का हवाला देते हैं लेकिन वो भूल जाते हैं कि जिस बिहार के बगल में तीन राज्यों पश्चिम बंगाल, झारखंड और उतर प्रदेश के अलावा दो देश नेपाल और बांग्लादेश में शराब की ख़रीद बिक्री खुलेआम हो रही हो, वहाँ बिहार में इसकी उपलब्धता कैसे कम हो जायेगी. इसके अलावा बिहार में दो जातियाँ पासी और माँझी समाज के लोग सदियों से इसे बनाने और बेचने के धंधे में लगे रहे हैं, वहाँ केवल छापेमारी कर आप कैसे दिन में यह सपना देख सकते हैं कि सब ठीक है. इसके अलावा अगर आप नीतीश कुमार से सवाल करें कि वैसे ग्यारह लोगों से मिला दीजिए जिन्होंने शराबबंदी के बाद शराब से तौबा कर लिया हो तो वो बगले झांकने लगते हैं.

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इसलिए समाज सुधारक बनने के चक्कर में नीतीश कुमार ने सुशासन बाबू की अपनी छवि को ही धक्का पहुँचाया है. नीति आयोग की रिपोर्ट के बाद उन्होंने कोई समीक्षा बैठक नहीं की कि आने वाले समय में रैंकिंग में कैसे सुधार किया जाए लेकिन नीति आयोग को नसीहत ज़रूर दी. उसी तरह विधि व्यवस्था, स्वास्थ्य या शिक्षा अब उनकी प्राथमिकता नहीं रही. पूरी सरकार में भवन निर्माण की एक होड़ सी लगी हुई है, जैसे नीतीश के अपने गृह जिले नालंदा में वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज हो या मधेपुरा मेडिकल कॉलेज, वहां इतने सुंदर भवन बने लेकिन वहाँ अधिकांश विभाग सालों से ख़ाली पड़े हैं और पद पर बहाल प्रिन्सिपल अस्पताल से ज्यादा निजी प्रैक्टिस में अधिक समय देते हैं. 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों समाज सुधार अभियान पर राज्य के दौरे पर निकले हुए हैं.

कोरोना काल में भी जाँच के नाम पर धांधली हुई. नीतीश के तमाम दावों के बावजूद कोरोना की दूसरी लहर में कुल जाँच का 70% से अधिक ऐंटिजेन टेस्ट होता था ना कि आरटी-पीसीआर, जबकि उन्होंने इसका दावा किया था. पीएमसीएच और एनएमसीएच का तो ये हाल था कि कोविड की दूसरी लहर में जब लोगों को फ़ंगल इन्फ़ेक्शन हुआ तो वहाँ के ऑपरेशन थिएटर में सामान तक नहीं था और जो सामान उपलब्ध था, उसकी सालाना देखभाल का टेंडर तक नहीं हुआ था, जिसके कारण उस ओटी में एक भी सर्जरी नहीं हुई.

नीतीश हमेशा से दावा करते रहे हैं कि उन्होंने क्राइम, करप्शन और कम्यूनलिज्म से समझौता नहीं किया लेकिन जब आरोप उनके उप मुख्य मंत्री तारकिशोर प्रसाद पर लगे तो उन्होंने तेजस्वी यादव की तरह सफ़ाई नहीं माँगी और ना ही उसे मुद्दा बनाया क्योंकि अब उनके पास ना तो संख्या बल है और ना ही विकल्प. नीतीश ने किसी एजेन्सी से जाँच कराने की बजाय पूरे मामला को रफ़ा-दफ़ा कर दिया.

इसी तरह जून महीने में जब सभी विभाग में तबादलों का दौर चला तो इस साल भी पैसों का खेल जमकर नीतीश की नाक के नीचे हुआ. उन्होंने अधिकारियों को मंत्रियों के मनमाने फैसलों में अड़ंगा ना डालने का अलिखित संदेश दिया जो साबित करता है कि वो सता में बने रहने के लिए कोई भी समझौता करने को तैयार हैं. हालाँकि, संस्थागत भ्रष्टाचार के लिए अभी भी नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ कोई भी शिकायत नहीं है लेकिन उनके समय में सृजन घोटाला हुआ और आज तक यह सबकी समझ से परे है कि इस घोटाले के मुख्य आरोपी को जाँच एजेन्सी किसके इशारे पर गिरफ़्तार नहीं कर रही. अगर इतने बड़े घोटाले का आरोपी गिरफ्तार नहीं हुआ है तो यह भी नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ ही जाता है.

नीतीश समाज सुधार के जिस अभियान पर निकले हैं, उसमें सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि जब तक वो अपने शासन को चुस्त-दुरुस्त नहीं करते, तब तक उन्हें अपने मक़सद में कामयाबी मिलने से रही. शराब के नाम पर इधर-उधर छापेमारी कर कुछ दिनो तक सुर्ख़ियाँ तो बटोरी जा सकती हैं लेकिन दुरूह व्यवस्था ध्वस्त नहीं की जा सकती क्योंकि जो समानांतर व्यवस्था क़ायम है वह हमेशा दो कदम आगे सोचता है. इसके पीछे नफ़ा छिपा है जो बहुत अधिक है. 

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किसी राजा या मुख्य मंत्री का सबसे असरदार अस्त्र होता है उसका ख़ुफ़िया तंत्र. उनके खुफिया तंत्र की हालत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव दिल्ली में क्या करते हैं और किससे मिलते हैं और कब शादी करने वाले हैं ये जानकारी भी नीतीश को सालों तक सही-सही नहीं मिल पायी. नीतीश हमेशा यही कहते थे कि लड़का कहाँ रहता है, कहाँ घूमता है कौन जानता हैं? लेकिन इतने बड़े ख़ुफ़िया तंत्र के बॉस को जब तेजस्वी यादव ने अपने निजी जीवन के बारे में भनक तक नहीं लगने दिया तो हज़ारों की संख्या में शराब के कारोबार में लगे लोगों पर समाज सुधारक नीतीश बाज़ी कैसे जीत लेंगे? ये उनके कट्टर समर्थक भी नहीं जानते.

हाँ , नीतीश जब तक सुशासन के प्रतीक थे, उन्होंने मीडिया से कभी मुँह नहीं मोड़ा. उनकी मिशाल सब देते थे कि सप्ताह में एक दिन वो पत्रकारों के हर सवाल का जवाब देते थे, इससे उन्हें न्यूज़ चैनलों में एयर टाइम मिलता था. इस पर उनके विरोधी चिढ़कर, एक जमाने में तब उनके राजनीतिक विरोधी रहे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हों या बाद में लालू या तेजस्वी यादव, मुद्दा बनाते थे लेकिन अब समाज सुधारक नीतीश कोरोना का बहाना बनाकर मीडिया के सवालों से भागते हैं. सोमवार को जनता दरबार में जिन चुनिंदा लोगों को अब सवाल पूछने का अवसर मिलता है, उनके सवालों पर पहले नीतीश के बाबू निगाहें डालते हैं और उस पर सहमति देते हैं कि अमुक सवाल ही पूछा जा सकता हैं. नीतीश अब डेमोक्रेट कहने के लिए रह गए हैं. समाज सुधार के नाम पर निरकुंश प्रवृति उन पर हावी हो गई है.